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चिकनी बातों....(गजल)

22  22  22  22  22  22

चिकनी बातों में आ जाना अच्छा है क्या?

बेमतलब खुद को बहलाना अच्छा है क्या??1

मूंछों पर दे ताव चले हर वक्त महाशय,

टेढ़ी पूंछों को सहलाना अच्छा है क्या?2

गाओ अपना गीत,करो धूसर वैरी को

कटती गर्दन तब मुसुकाना अच्छा है क्या?3

देखा है दुनिया ने अपना पौरुष पहले

नासमझों के गर लग जाना अच्छा है क्या?4

बाजार बनी जिसके चलते धरती अपनी

उस कातिल से हाथ मिलाना अच्छा है क्या?5

तुम बंद…

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Added by Manan Kumar singh on June 17, 2020 at 6:47pm — 2 Comments

अगर है जीना तो फ़िक्रों के कारवाँ से निकल(१११ )

ग़ज़ल(1212 1122 1212 22 /112 )

अगर है जीना तो फ़िक्रों के कारवाँ से निकल

हिसार का जो बनाया उस आसमाँ से निकल

कहा ख़ुशी ने कि हूँ इंतज़ार में कब से

है मेरी बारी अरे ग़म तू इस मकाँ से निकल

अमीर है तो क़ज़ा क्या न आएगी तुझको

फ़ना न होगा तू ऐसे बशर गुमाँ से निकल

ख़ुदा ग़रीब की ख़ातिर तू अश्क बन जा मेरे

दुआ का रूप ले मेरी सदा ज़बाँ से निकल

बिना पसीना बहाये नसीब बनता नहीं

नुज़ूमी और लकीरों के साएबाँ से निकल

हयात लेती है जो भी वो…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 17, 2020 at 4:00pm — 2 Comments

बूँद

कहते हैं मानसून अब

देगा बहुत सुकून

कैसे सहेजेगी भला

यह बारिश की बूँद?

ताल-तलैया , झील , नद

चढ़ें , अतिक्रमण भेंट

दोहन होता प्रकृति का

अनुचित हस्तक्षेप

करें बात जो न्याय की 

वही कर रहे घात

करनी कथनी से अलग 

ज्यों हाथी के दाँत

मौलिक एवंअप्रकाशित 

Added by Usha Awasthi on June 17, 2020 at 12:43pm — 2 Comments

यथार्थ  दोहे :

यथार्थ  दोहे :

देह जली शमशान में, सारे रिश्ते तोड़।

राहें तकती रह गईं,अंत चला सब छोड़।।1

अंत मिला बेअंत में, हुई जीव की भोर।

भौतिक तृष्णा मिट गई,मिटे व्यर्थ के शोर।।2

व्यर्थ देह से नेह है, व्यर्थ देह अभिमान।

तोड़ देह प्राचीर को,उड़ जाएंगे प्रान।।3

थोड़ी- थोड़ी रैन है, थोड़ी-थोड़ी भोर।

थोड़ी सी है ज़िंदगी, थोड़ा सा है शोर ।।4

कितना टाला आ गई, देखो आखिर मौत।

ज़ालिम होती है बड़ी, साँसों की ये सौत…

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Added by Sushil Sarna on June 16, 2020 at 9:30pm — 4 Comments

ग़ज़ल (वही मंज़र है और मैं) - शाहिद फ़िरोज़पुरी

बहरे मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़

221  / 2121  / 1221 /  212

बद-हालियों का फिर वही मंज़र है और मैं

इक आज़माइशों का समंदर है और मैं [1]

अरमान दिल के दिल में घुटे जा रहे हैं सब

महरूमियों का एक बवंडर है और मैं…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on June 16, 2020 at 11:54am — 17 Comments

परिंदा तिफ़्ल हो उसके भी पर तो रहते हैं(११० )

(1212 1122 1212 22 /112 )

.

परिंदा तिफ़्ल हो उसके भी पर तो रहते हैं

ग़रीब हो भले ख़्वाबों में घर तो रहते हैं

**

भले ही ज़िंदगी हासिल हुई अमीरों सी

मगर उन्हें भी कुछ अन्जाने डर तो रहते हैं

**

हुआ है बंद कभी एक रास्ता मत डर

खुले कहीं न कहीं और दर तो रहते हैं

**

मिला न एक सुबू गाँव में तमन्ना का

भले ही हसरतों के कूज़ा-गर  तो…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 16, 2020 at 1:30am — 16 Comments

गीत (सरसी छंद में )

तू मेरी साँसों का परिमल,  मैं तेरा  उच्छ्वास I

 

बन उपवन भौरे गुंजन सब

देते है अवसाद I

तृप्ति मुझे मिल जाती है यदि

थोड़ा मिले प्रसाद I

अनुभव के पन्नों में बिखरा, रागायित इतिहास I

 

जाने कहाँ तिरोहित हैं सब

मान और सम्मान I

घुल जाता है तेरे सम्मुख

पुरुषोचित अभिमान I

अग्नि-खंड यह बन जाता है, मुग्ध प्रणय का दास I

 

उल्काओं को धूल बनाने

की है तुममें शक्ति I

वही शक्ति…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 15, 2020 at 7:50pm — 3 Comments

गीत- मैं पुरुष हूँ! मात्र इस हित, मत करो अपमान मेरा

भूल कर सब प्रेम करुणा त्याग तप बलिदान मेरा

मैं पुरुष हूँ! मात्र इस हित, मत करो अपमान मेरा

राम सा आदर्श मानव औ' भरत सा भ्रात मैं हूँ

दुश्मनों के वक्ष पर करता रहा आघात मैं हूँ

मैं प्रतिज्ञा भीष्म की हूँ, मैं युधिष्ठिर धर्मकारी

पार्थ का गांडीव मैं हूँ, मैं सुदर्शन चक्र-धारी

शौर्य है श्रृंगार मेरा, रण-विजय ही गान मेरा

मैं पुरुष हूँ! मात्र इस हित, मत करो अपमान मेरा।।

भूमिका मेरी यहाँ बेटा, पिता, पति, भ्रात की है

माप रखता जो हमेशा…

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Added by नाथ सोनांचली on June 15, 2020 at 11:30am — 13 Comments

दुनिया में दुनिया - डॉo विजय शंकर

इस दुनिया में
हर आदमी की
अपनी एक दुनिया होती है।
वह इस दुनिया में
रहते हुए भी अपनी
उस दुनिया में रहता है।
उसी में रह कर रहता है ,
उसी में सोचता है ,
उसी में जीता है।
**************************
वो बेहद खुशनसीब हैं
जो रिश्तों को जी लेते हैं ,
वफ़ा के लिए जी लेते हैं ,
वफ़ा के लिए मर जाते हैं ,
बाकी तो सिर्फ ,इन्हें
निभाते-निभाते मर जाते हैं।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on June 15, 2020 at 9:30am — 9 Comments

यह प्रणय निवेदित है तुमको

हे रूपसखी हे प्रियंवदे

हे हर्ष-प्रदा हे मनोरमे

तुम रच-बस कर अंतर्मन में

अंतर्तम को उजियार करो

यह प्रणय निवेदित है तुमको

स्वीकार करो, साकार करो

अभिलाषी मन अभिलाषा तुम

अभिलाषा की परिभाषा तुम

नयनानंदित - नयनाभिराम

हो नेह-नयन की भाषा तुम

हे चंद्र-प्रभा हे कमल-मुखे

हे नित-नवीन हे सदा-सुखे

उद्गारित होते मनोभाव

इनको ढालो, आकार करो

यह प्रणय निवेदित है तुमको

स्वीकार करो साकार करो

मैं तपता…

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Added by आशीष यादव on June 15, 2020 at 4:30am — 10 Comments

थोड़ा सा आसमान ....

थोड़ा सा आसमान ....

चुरा लिया

सपनों की चादर से

थोड़ा सा

आसमान

पहना दिया

उम्र को

स्वप्निल परिधान

लक्ष्य रहे चिंतित

राह थी अनजान

प्रश्नों के जंगल में

उलझे समाधान



पलकों की जेबों में

अंबर को डाला

अधरों पर मेघों की

बरखा को पाला

व्याकुलता की अग्नि में

जलते अरमान

भोर से पहले हुआ अवसान

धरती पर अंबर की

नीली चुनरिया

पंछी के कलरव की

बजती पायलिया

व्योम क्यूँ…

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Added by Sushil Sarna on June 14, 2020 at 9:35pm — 6 Comments

ग़ज़ल (जो नज़र से पी रहे हैं )

212 /1212 /2

जो नज़र से पी रहे हैं

बस वही तो जी रहे हैं

ये हमारा रब्त देखो

बिन मिलाए पी रहे हैं

कोई रिन्द भी नहीं हम

बस ख़ुशी में पी रहे हैं

इक हमें नहीं मयस्सर

गो सभी तो पी रहे हैं

क्या पिलाएंगे हमें जो 

तिश्नगी में जी रहे हैं 

वो हमें भी तो पिला दें

जो बड़े सख़ी रहे हैं   

 

बेख़ुदी की ज़िन्दगी है 

बेख़ुदी में पी रहे हैं …

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on June 14, 2020 at 9:00pm — 17 Comments

"समय नहीं है"

चुप है समय,

दिशाओं के अनुमान में,

भ्रमित और आहत है मन

सत्य के संधान में,

शब्द करते हैं सवारी,

नुकीले अस्त्रों की,

शब्द,

बनना चाहिए था

जिन्हें मरहम!

अंगुलियां उठती हैं

सामर्थ्य पर;

थाम सकतीं थीं जो,अशक्तता ...

अंगुलियां जो,ढाल सकतीं थीं

दहकते लावे को

फूल की शक्ल में; शून्य हैं ऑखे,

ऑखे, जो संजो सकतीं थीं

पल-पल का इतिहास,

आहत है मन,

जो प्रहरी था सच का,

निःशब्द है अपने आखेट पर,

अभी समय नहीं… Continue

Added by Anvita on June 14, 2020 at 1:18pm — 2 Comments

पर्यावरण बचायें

आओ प्यारे हम सब मिलकर

पर्यावरण बचायें।

हरे भरे हम वृक्ष लगाकर

हरियाली फैलायें।1।

नदियाँ पर्वत झील बावली

और तलाब खुदायें।

महावृक्ष पीपल वट पाकड़

वृक्ष अनेक लगायें।2।

धरा धधकती धक-धक धड़कन

जन-जन की न बढ़ाएं।

पर्यावरण संतुलित होवे

ऐसे कदम उठायें।3।

प्राण वायु जल शीतल निर्मल

प्रकृति प्रेम से पायें।

आज के सुख के खातिर हमसब

भावी कल न मिटायें।4।

सोचो हम क्या देंगे अपनी

आने वाली पीढ़ी को।

सब कुछ दूषित हवा…

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Added by Awanish Dhar Dvivedi on June 13, 2020 at 10:52pm — 3 Comments

खंडित नसीब - लघुकथा -

खंडित नसीब - लघुकथा -

बिंदू का तीन साल का इकलौता बेटा नंदू सुबह से चॉकबार आइसक्रीम खाने की रट लगाये हुए था। पता नहीं किसको देख लिया था चॉकबार आइसक्रीम खाते। इंदू के पास पैसे नहीं थे इसलिये  वह बार बार उसे आइसक्रीम खाने के नुकसान समझा रही थी। लेकिन बिना बाप का बच्चा जिद्दी हो चला था। किसी भी तरह बहल नहीं रहा था।

इंदू को बाबू लोगों के घर झाड़ू पोंछा बर्तन का काम करने जाना था लेकिन नंदू  उसे जाने नहीं दे रहा था ।

इंदू कुछ समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे।फिर उसे याद आया कि…

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Added by TEJ VEER SINGH on June 13, 2020 at 6:30pm — 4 Comments

बगैर बादल के आ बरस जा तू इश्क़ की कुछ फुवार कर दे

1212, 212, 122, 12 12, 212, 122

बगैर बादल के आ बरस जा तू इश्क़ की कुछ फुवार कर दे

है एक अर्से से प्यासी धरती बढ़ा ले क़ुर्बत बहार कर दे

बहुत बड़ा है शहर ये दिल्ली यहाँ के चर्चे बहुत सुने हैं

हमें तो अपना ही गांव प्यारा तू लाख इसको सुधार कर दे

बदल रहे हैं घरों के ढांचे सभी के अपने अलग है कमरे

पुराने बर्तन नए हुए हैं तू भी बदल जा कनार कर दे

क़मर से कह दो ठहर के निकले कि दीद उनका अभी हुआ है

नहीं भरा उनसे दिल हमारा ख़ुदा क़मर को बुख़ार कर…

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Added by Dimple Sharma on June 13, 2020 at 5:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल ( अभी जो है वही सच है....)

(1222 1222 1222 1222)

अभी जो है वही सच है तेरे मेरे फ़साने में

अबद तक कौन रहता है सलामत इस ज़माने में

तड़पता देख कर मुझको सड़क पर वो नहीं रूकता

कहीं झुकना न पड़ जाए उसे मुझको उठाने में

गले का दर्द सुनते हैं वो पल में ठीक करता है

महारत भी जिसे हासिल है आवाज़ें दबाने में

किसी दिन टूट जाएँगी ये चट्टानें खड़ी हैं जो

लगेगा वक़्त शीशे को हमें पत्थर बनाने में

अजब महबूब है मेरा जो पल में रुठ जाता है

महीने बीत…

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Added by सालिक गणवीर on June 13, 2020 at 2:00pm — 12 Comments

"नियति "

आस छोड़ी न थी,
न,प्रयास बौने थे,
जीतना कहाँ
संभव होता
हम
नियति के हाथों के,
खिलौने थे।
ओढे, बिछाए,
तह लगाकर
रख दिए
हमारी इच्छाओं के
ही तो,बिछौने थे।

अन्विता ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Anvita on June 13, 2020 at 1:10pm — 2 Comments

गीत -आचरण आदर्श के गायब हुए, विपदा बड़ी है

क्रोध तम मद-लोभ ईर्ष्या में पड़ा संसार सारा

आचरण आदर्श के गायब हुए, विपदा बड़ी है।।

छोड़ अन्तस का शिवालय भ्रम मनुज लाने चला है

शोर के गहरे तमस में मौन को पाने चला है

पास उसके आत्म दर्पण है नहीं जो राह रोके

जी रहा है वह स्वयं की जिन्दगी में कण्ट बोके

सत्य है नेपथ्य में बस मूर्खता मन में अड़ी है

आचरण आदर्श के गायब हुए, विपदा बड़ी है।।

मस्त सब हैं छोड़कर सिद्धांत सारे सभ्यता के

मन अपाहिज वस्त्र चिथड़े किंतु साधक भव्यता के

जब पलट के…

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Added by नाथ सोनांचली on June 12, 2020 at 7:00pm — 4 Comments

प्रेमियों केे प्रेम केे निशान बन गए (पूरी ग़ज़ल)

वो फख्र से जुदा हुए अनजान बन गए

प्यार का क़तल किया दीवान बन गए (1)

देते कभी थे इश्क़ में जन्मो के वास्ते

वो चार रोज़ में ही बेगान बन गए (2)

वादों की और इरादों की लम्बी कतार थी

फहरिस्त उन इरादों के अरमान बन गए (3)

अक्सर वफ़ा की कसमें जो खाते थे बार बार

कल तोड़ के कसम वो बेईमान बन गए (4)

महफ़िल कभी जिनके लिए हमने सजाई थी

आज उनकी महफ़िलों के महमान बन गए (5)

एहसास जिनकी कश्ती में महफूज़ था हमें

साहिल…

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Added by Vinay Prakash Tiwari (VP) on June 12, 2020 at 10:18am — 12 Comments

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