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१२२/१२२/१२२/१२२
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जुड़ेगी जो टूटी कमर धीरे-धीरे
उठाने लगेगा वो सर धीरे-धीरे।१।
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दिलों से मिटेगा जो डर धीरे-धीरे
खुलेंगे सभी के अधर धीरे -धीरे।२।
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नपेंगी खला की हदें भी समय से
वो खोले उड़ेगा जो पर धीरे -धीरे।३।
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भले द्वेष का विष चढ़े तीव्रता से
करेगी सुधा मित्र असर धीरे-धीरे।४।
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उलझती हैं राहें अगर ज़िन्दगी की
सुलझती भी हैं वे मगर धीरे-धीरे।५।
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भला क्यों है जल्दी मनुज को ही ऐसी
हुए देव भी …
Posted on June 25, 2025 at 11:40pm — 4 Comments
221/2121/1221/212
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कहते हो बात रोज ही आँखें तरेर कर
होगी कहाँ से दोस्ती आँखें तरेर कर।।
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उलझे थे सब सवाल ही आँखें तरेर कर
देता रहा जवाब भी आँखें तरेर कर।।
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देती कहाँ सुकून ये राहें भला मुझे
पायी है जब ये ज़िंदगी आँखें तरेर कर।।
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माँ ने दुआ में ढाल दी सारी थकान भी
देखी जो बेटी लौटती आँखें तरेर कर।।
*…
Posted on June 24, 2025 at 9:28pm — 1 Comment
२१२२/२१२२/२१२२
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आग में जिसके ये दुनिया जल रही है
वह सियासत कब तनिक निश्छल रही है।१।
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पा लिया है लाख तकनीकों को लेकिन
और आदम युग में दुनिया ढल रही है।२।
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क्लोन का साधन दिया विज्ञान ने पर
मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है।३।
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मान मर्यादा मिटाकर पाप करती
(भूल जाती मान मर्यादा सदा वह)
भूख दौलत की जहाँ भी पल रही है।४।
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गढ़ लिए मजहब नये कह बद पुरानी
पर न सीरत एक की उज्वल रही है।५।
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दौड़ती नफरत हमेशा फिर रही…
Posted on April 30, 2025 at 11:41am — 13 Comments
रक्त रहे जो नित बहा, मजहब-मजहब खेल।
उनका बस उद्देश्य यह, टूटे सबका मेल।।
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जीवन देना कर सके, नहीं जगत में कर्म।
रक्त पिपाशू लोग जो, समझेंगे क्या धर्म।।
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छीन किसी के लाल को, जो सौंपे नित पीर।
कहाँ धर्म के मर्म को, जग में हुआ अधीर।।
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बनकर बस हैवान जो, मिटा रहे सिन्दूर।
वही नीच पर चाहते, जन्नत में सौ हूर।।
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मंसूबे उनके जगत, अगर गया है ताड़।
देते है फिर क्यों उन्हें, कहो धर्म की आड़।।
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पहलगाम ही क्यों कहें, पग-पग मचा…
Posted on April 30, 2025 at 11:26am — 3 Comments
सादर आभार आदरणीय
अपने आतिथ्य के लिए धन्यवाद :)
मुसाफिर सर प्रणाम स्वीकार करें आपकी ग़ज़लें दिल छू लेती हैं
जन्मदिन की शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’ जी
प्रिय भ्राता धामी जी सप्रेम नमन
आपके शब्द सहरा में नखलिस्तान जैसे - हैं
शुक्रिया लक्ष्मण जी
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी!आपने मुझे इस क़ाबिल समझा!
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