क्रोध तम मद-लोभ ईर्ष्या में पड़ा संसार सारा
आचरण आदर्श के गायब हुए, विपदा बड़ी है।।
छोड़ अन्तस का शिवालय भ्रम मनुज लाने चला है
शोर के गहरे तमस में मौन को पाने चला है
पास उसके आत्म दर्पण है नहीं जो राह रोके
जी रहा है वह स्वयं की जिन्दगी में कण्ट बोके
सत्य है नेपथ्य में बस मूर्खता मन में अड़ी है
आचरण आदर्श के गायब हुए, विपदा बड़ी है।।
मस्त सब हैं छोड़कर सिद्धांत सारे सभ्यता के
मन अपाहिज वस्त्र चिथड़े किंतु साधक भव्यता के
जब पलट के देखता हूँ पल पुराने सादगी के
आँसुयों की धार बहती भाव बस लाचारगी के
नग्नता में सभ्यता बौनी हुई, किसको पड़ी है
आचरण आदर्श के गायब हुए, विपदा बड़ी है।।
वृक्ष क्या ठूँठा हुआ झट उड़ गए खगवृन्द सारे
स्वार्थ का अनुबंध टूटा शून्य चेतन वह निहारे
घर जिन्होंने है बनाया वे कहीं कोने पड़े हैं
सोचते बेटे कि अब माँ-बाप से भी वे बड़े हैं
मौन वह जिसने सिखाया स्नेह की बारह खड़ी है
आचरण आदर्श के गायब हुए, विपदा बड़ी है।।
पथ-प्रदर्शक विश्व गुरु भारत रहा है चल-अचल में
भूलकर मदमस्त हैं सब आज पश्चिम की नकल में
शीश धरते क्यों यहाँ सब मूर्ख जन के ही चरण में
क्यों खुशी मिलती उन्हें यों कामियों के अनुसरण में
झाँक कर अपने हृदय में देखने की यह घड़ी है
आचरण आदर्श के गायब हुए, विपदा बड़ी है।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0 तेजवीर सिंह जी सादर अभिवादन। खूबसूरत प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।
आद0 समर कबीर साहब सादर प्रणाम। आपकी प्रतिक्रिया और आशीष का हमें सदैव इन्तजार रहता है। बहुत बहुत शुक्रिया आपका
हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी। बेहतरीन गीत।
शीश धरते क्यों यहाँ सब मूर्ख जन के ही चरण में
क्यों खुशी मिलती उन्हें यों कामियों के अनुसरण में
झाँक कर अपने हृदय में देखने की यह घड़ी है
आचरण आदर्श के गायब हुए, विपदा बड़ी है।।
जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आदाब,अच्छा गीत लिखा आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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