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भूख तक तो ठीक था - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२१२२/२१२२/२१२२/२१२



जिन्दगी की डाँट खाकर भी सँभल पाये न हम

चाह कर भी यूँ  पुराना  पथ  बदल पाये न हम।१।

**

एक संकट क्या उठा के साथ छूटा सबका ही

हाथ था सबने बढ़ाया किन्तु चल पाये न हम।२।

**

फर्क था इस जिन्दगी को जीने के अन्दाज में

आप सा छोटी खुशी पर यूँ उछल पाये न हम।३।

**

भूख तक तो ठीक था मुँह फेरकर सब चल दिये

लुट रही इन इज्जतों  पर क्यों उबल पाये न हम।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 28, 2020 at 6:55am — 6 Comments

बचपने की उम्र है

खेल लेने दो इन्हे यह बचपने की उम्र है

गेंद लेकर हाथ में जा दृष्टि गोटी पर टिकी

लक्ष्य का संधान कर ,  एकाग्रता की उम्र है

खेल.....

गोल घेरे को बना हैं धरा पर बैठे हुए

हाथ में कोड़ा लिए इक,सधे पग धरते हुए

इन्द्रियाँ मन में समाहित, साधना की उम्र है

खेल.....

टोलियों में जो परस्पर आमने और सामने

ज्यों लगे सीमा के रक्षक शस्त्र को हैं तानने

व्यूह रचना कर समर को जीतने की उम्र है

खेल.....

मौलिक…

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Added by Usha Awasthi on May 27, 2020 at 7:59pm — 6 Comments

गजल( कैसी आज करोना आई)

22 22 22 22

कैसी आज करोना आई

करते है सब राम दुहाई।

आना जाना बंद हुआ है,

हम घर में रहते बतिआई!

दाढ़ी मूंछ बना लेते हैं

सिर के बाल करें अगुआई।

बंद पड़े सैलून यहां के

रोता फिरता अकलू नाई।

डर के मारे दुबके हैं सब

नाई कहता, 'आओ भाई!

मास्क लगाकर मैं रहता हूं

तुम क्योंकर जाते खिसियाई?

मुंह ढको,फिर आ जाओ जी,

घर जाओ तुम बाल कटाई।

एक दिवस की बात नहीं यह

आगे बढ़ती और लड़ाई।

झाड़ू पोंछा,बर्तन बासन,

अपना कर,अपनी…

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Added by Manan Kumar singh on May 27, 2020 at 1:15pm — 7 Comments

वो सुहाने दिन

कभी लड़ाई कभी खिचाई, कभी हँसी ठिठोली थी

कभी पढ़ाई कभी पिटाई, बच्चों की ये टोली थी

एक स्थान है जहाँ सभी हम, पढ़ने लिखने आते थे

बड़े प्यार से गुरु हमारे, हम सबको यहाँ पढ़ाते थे

कोई रटे है " क ख ग घ", कोई अंग्रेजी के बोल कहे

पढ़े पहाड़ा कोई यहां पर, कोई गुरु की डाँट सहे 

एक यहां पर बहुत तेज़ था, दूजा बिलकुल ढीला था

एक ने पाठ याद कर लिया, दूजे का चेहरा पीला था

 

कमीज़ तंग थी यहाँ किसी की, पतलून किसी की ढीली…

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Added by AMAN SINHA on May 27, 2020 at 8:06am — 3 Comments

हल हँसिया खुरपा जुआ (कुंडलिया)

हल हँसिया खुरपा जुआ, कन्नी और कुदाल।
झाड़ू   गेंती  फावड़ा,  समझ  रहे   हैं  चाल।
समझ  रहे   हैं चाल, मगर सबके सब बेबस।
जब भी जिसको चुना, स्वप्न दिखलाए हैं बस।
युगों-युगों से भूख, गरीबी से हैं बेकल।
कन्नी और कुदाल, जुआ खुरपा हँसिया हल।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by रणवीर सिंह 'अनुपम' on May 26, 2020 at 10:37pm — 4 Comments

उफ़ ! क्या किया ये तुम ने ।

उफ़ ! क्या किया ये तुम ने, वफ़ा को भुला दिया,  

उस शख़्स ए बावफ़ा को, कहो क्या सिला दिया।

  

जो ले के जाँ, हथेली पे, हरदम रहा खड़ा, 

तुम ने उसी को, ज़ह्र का, प्याला पिला दिया।

अब क्या भला, किसी पे कोई, जाँ निसार दे, 

जब अपने ख़ूँ ने, ख़ून का, रिश्ता भुला दिया।

गुलशन की जिस ने तेरे, सदा देखभाल की,

उस बाग़बां का तू ने, नशेमन जला दिया।

गर वो मिलेंगे हम से, कभी पूछ लेंगे हम, 

क्यूँ ख़ाक़ में हमारा,…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on May 26, 2020 at 12:08pm — 16 Comments

योग छंद

छंद विधान [20 मात्रा,12,8 पर यति,अंत 122 से]

मन में हो शंका तो, खून जलाए।

ऐसे  में  रातों को, नींद  न  आए।।

बात अगर मन में जो, रखी दबाए।

अंदर ही अंदर वह, घुन सा खाए।। (1).

बुद्धि नष्ट क्रोधी की, क्रोध   कराए।

क्रोधी ही  अपनों से, बैर    बढ़ाए।।

बात सही क्रोधी को,समझ न आए।

गर्त में पतन के भी, क्रोध   गिराए।। (2).

ईर्ष्या से मानव की, बुद्धि नसाए।

ईर्ष्या ही मन में भी, क्रोध बढ़ाए।।

ईर्ष्या …

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Added by Hariom Shrivastava on May 25, 2020 at 8:00pm — 3 Comments

ग़़ज़़ल- फोकट में एक रोज की छुट्टी चली गई

बह्र - मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन

221 2121 1221 212

अन्धों के गांव में भी कई बार ख्वामखाह

करती है रोज रोज वो ऋंगार ख्वामखाह

रिश्ता नहीं है कोई भी उससे तो दूर तक

मुजरिम का बन गया है तरफदार ख्वामखाह

फोकट में एक रोज की छुट्टी चली गई

इतवार को ही पड़ गया त्यौहार ख्वामखाह

नाटक में चाहते थे मिले राम ही का रोल

रावण का मत्थे मढ़ गया किरदार ख्वामखाह

ये बुद्ध की कबीर की चिश्ती की है जमीन

फिर आप भाँजते हैं क्यूँ तलवार ख्वामखाह

खबरे बढ़ा चढ़ा…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 25, 2020 at 5:07pm — 16 Comments

'तुरंत' के दोहे ईद पर (१०६ )

अपने जीवन काल में , देखी पहली ईद |

मोबाइल में कर रहा , मैं अपनों की दीद ||

बिन आमद के घट गयी , ईदी की तादाद |

फीका बच्चों को लगे , सेवइयों का स्वाद ||

कहे मौलवी ईद है , कैसी बिना नमाज़ |

रब रूठा तो क्या करें, कौन सुने आवाज़ ||

ख़ूब मचलती आस्तीं , हमकिनार हों यार |

लेकिन सब दूरी रखें , कोविड करे गुहार ||

ग्राहक का टोटा हुआ ,सूने हैं बाज़ार |

घर में सारे बंद हैं , ठंडा है व्यापार ||

चन्द जगह पर विश्व में , जबरन हुई नमाज़ |

जिए…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 25, 2020 at 2:30pm — 10 Comments

ईद कैसी आई है!

ईद कैसी आई है ! ये ईद कैसी आई है !

ख़ुश बशर कोई नहीं, ये ईद कैसी आई है !

जब नमाज़े - ईद ही, न हो, भला फिर ईद क्या,

मिट गये अरमांँ सभी, ये ईद कैसी आई है!

दे रहा कोरोना कितने, ज़ख़्म हर इन्सान को,

सब घरों में क़ैैद हैं, ये ईद कैसी आई है!

गर ख़ुदा नाराज़ हम से है, तो फिर क्या ईद है,

ख़ौफ़ में हर ज़िन्दगी, ये ईद कैसी आई है!

रंज ओ ग़म तारी है सब पे, सब परीशाँ हाल हैं,

फ़िक्र में रोज़ी की सब, ये ईद कैसी आई…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on May 25, 2020 at 6:00am — 9 Comments

आपने मुझ पे न हरचंद  नज़रसानी की (१०५ )

(2122 1122 1122 22 /112 )

.

आपने मुझ पे न हरचंद  नज़रसानी की

फिर भी हसरत है मुझे  इश्क़ में  ज़िन्दानी की

**

दिल्लगी आपकी नज़रों में  हँसी खेल मगर

मेरी नज़रों में है ये बात परेशानी की

**

मौत जब आएगी जन्नत के सफ़र की ख़ातिर

कुछ ज़रूरत न पड़ेगी सर-ओ-सामानी की

**

या ख़ुदा ऐसा कोई काम न हो मुझ से कभी

जो बने मेरे लिए वज्ह पशेमानी की

**

जिस तरह चाल वबा ने है चली दुनिया में

हर बशर के लिए है बात ये हैरानी…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 24, 2020 at 3:00pm — 4 Comments

मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

कहते भरे हुए हैं अब भण्डार तो बहुत

लेकिन गरीब भूख से लाचार तो बहुत।१।

**

फिरता है आज देखिए कैसे वो दरबदर

जिसने बनाये खूब  यूँ सन्सार तो बहुत।२।

**

मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ

रेलों बसों को  कर  रहे  तैयार तो बहुत।३।

**

बनता दिखा न आजतक हमको भवन कोई

रखते  गये  हैं  आप  भी  आधार  तो  बहुत।४।

**

सारे अदीब चुप  हुए  संकट  के दौर में

सुनते थे यार उनका है बाजार तो बहुत।५।

**

मजदूर सह किसान  से  जाने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 24, 2020 at 11:11am — 13 Comments

उस बेवफ़ा से (ग़ज़ल)

221 / 2121 / 1221 / 212

उस बेवफ़ा से दिल का लगाना बहुत हुआ

मजबूर दिल से हो ये बहाना बहुत हुआ [1]

छोड़ो ये ज़ख़्म-ए-दिल का फ़साना बहुत हुआ

ये आशिक़ी का राग पुराना बहुत हुआ [2]

चलते ही चलते दूर निकल आये इस क़दर

ख़ुद से मिले हुए भी ज़माना बहुत हुआ [3]

ख़ुद से भी कोई रोज़ मुलाक़ात कीजिये

ये दूसरों से मिलना मिलाना बहुत हुआ [4]

तस्कीन दे न पाएँगे काग़ज़ पे कुछ निशाँ

लिख लिख के उसका नाम मिटाना बहुत हुआ [5]

अब इक…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on May 24, 2020 at 10:32am — 8 Comments

ग़ज़ल ( नहीं था इतना भी सस्ता कभी मैं....)

(1222 1222 122)

नहीं था इतना भी सस्ता कभी मैं

बशर हूँ ,था बहुत मंहगा कभी मैं

अभी जिसने रखा है घर से बाहर

उसी के दिल में रहता था कभी मैं

जिसे कहते हो तुम भी झोपड़ी अब

मिरा घर है वहीं पर था कभी मैं

वहाँ पर क़ैद कर रक्खा है उसने

जहाँ देता रहा पहरा कभी मैं

सड़क पर क़ाफिला है साथ मेरे

नहीं इतना रहा तन्हा कभी मैं

मुझे भी तुम अगर तिनका बनाते

हवा के साथ उड़ जाता कभी…

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Added by सालिक गणवीर on May 24, 2020 at 8:30am — 8 Comments

सफेद कौवा(लघुकथा)



कौवा तब सफेद था।बगुलों के साथ आहार के लिए मरी हुई मछलियां, कीड़े वगैरह ढूंढ़ता फिरता। फिर बगुलों ने जीवित मछलियों का स्वाद चखा।वह उन्हें भा गया। अब वे जीवित मछलियां ही उड़ाने लगे।सोचते कि भला कौन मुर्दों की खिंचाई करे।उन्हें भी तो चैन नसीब हो।जिंदगी भर हुआ कि नहीं,किसे पता।अहले सुबह वे कुछ मरी हुई छोटी छोटी मछलियां और कीड़े मकोड़े लिए तालाब के ऊपर मंडराने लगते।उनके टुकड़े कर पानी में फेंकते...मछलियां अपने आहार की खातिर झुंड के झुंड पानी की सतह पर आतीं....फिर बगुले झपट्टा…

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Added by Manan Kumar singh on May 24, 2020 at 6:30am — 4 Comments

उनको न मेरी  फ़िक्र न रुसवाई का है डर(१०४ )

एक बे-रदीफ़ ग़ज़ल

( 221 1221 1221 122 )

.

उनको न मेरी  फ़िक्र न रुसवाई का है डर

पत्थर का जिगर रखते हैं सब  यार सितमगर

**

बर्बाद हुआ देख के भी दिल न भरा था

साहिल को रहा देखता गुस्से में समंदर

**

सब लोग हों यक जा नहीं मुमकिन है जहाँ में

हाथों की लकीरें  भी न होतीं हैं  बराबर

**

आईने जहाँ भी हों वहाँ  जाता नहीं मैं

वो नुक़्स  मेरे जग  को बता देते हैं  अक्सर

**

इन्सान को  हालात बना…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 23, 2020 at 11:00am — 6 Comments

ग़ज़ल - इस तरफ इंसान कड़की में

बह्र - फाइलातुन फाइलातुन फा

2122 2122 2

इस तरफ इंसान कड़की में

उस तरफ भगवान कड़की में

एक पल को भी नहीं भटका

राह से ईमान कड़की में

लाक डाउन में गई रोजी

सब बिके सामान कड़की में

ज़िन्दगी रफ्तार से दौड़े

हैं नहीं आसान कड़की में

हैं बहुत बीमार हफ्तों से

घर में अम्मी जान कड़की में

भूल बैठे सब हंसी ठठ्ठा

गुम हुई मुस्कान कड़की में

क्या कहें बरसात से पहले

ढह गया…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 23, 2020 at 9:11am — 6 Comments

रंग काला :

रंग काला :

जाने कितने रंग सृष्टि के

अद्भुत लेकिन है रंग काला

काली अलकें काली पलकें

काले नयन लगें मधुशाला

काला भँवरा

हुआ मतवाला

काला टीका नज़र उतारे

काला धागा पाँव सँवारे

काली रैना चंदा ढूंढें

अपना शिवाला

काले में हैं सत्य के साये

हर उजास के पाप समाए

रैन कुटीर सृष्टि की शाला

रंग सपनों को

भाए काला

काले से तो भय व्यर्थ है

इसमें जीवन का अर्थ है

आदि अंत का ये…

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Added by Sushil Sarna on May 22, 2020 at 7:48pm — 6 Comments

किसी का दिल से जो ख़ुश-आमदीद होता है (१०३ )

( 1212 1122 1212 22 /112 )

किसी का दिल से जो ख़ुश-आमदीद होता है

तो आँखों आँखों में गुफ़्त-ओ-शुनीद होता है

**

किसी के रू ब रू मुमकिन कहाँ है इश्क़ कभी

गवाह प्यार का कब चश्म-दीद होता है

**

नसीब में कहाँ मिलते हैं जश्न के मौक़े

कभी कभी कोई मौक़ा सईद होता है

**

जो पैरहन से ही दिखता जदीद है अक्सर

वो सिर्फ़ कहने की ख़ातिर जदीद होता है

**

चले जो शख़्स हमेशा रह-ए-सदाक़त पर

वही बशर तो जहाँ में मजीद होता है

**

उसी…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 22, 2020 at 7:00pm — 4 Comments

गुरूर- लघुकथा

लगभग दो महीने होने को आये थे इस भयानक त्रासदी को और राकेश इस पूरे समय में लोगों की मदद के लिए हर समय तैयार था. दिन हो या रात, सुबह हो या शाम, बस किसी भूखे या परेशान के बारे में पता चलते ही वह अपनी टीम या कभी कभी अकेले ही निकल पड़ता था.

"भाई, तुम तो हर तरफ छा गए हो, समाचार पात्र हो या लोकल टी वी, जिसे देखो वही तुम्हारी बात कर रहा है", दोस्त का फोन आया तो वह मुस्कुरा पड़ा.

"देखो यार, ऐसा मौका जीवन में जब भी आये, अपनी तरफ से सब कुछ झोंक देना चाहिए. आखिर हम कुछ लोगों की तो मदद करने में…

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Added by विनय कुमार on May 21, 2020 at 6:08pm — 6 Comments

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