कौवा तब सफेद था।बगुलों के साथ आहार के लिए मरी हुई मछलियां, कीड़े वगैरह ढूंढ़ता फिरता। फिर बगुलों ने जीवित मछलियों का स्वाद चखा।वह उन्हें भा गया। अब वे जीवित मछलियां ही उड़ाने लगे।सोचते कि भला कौन मुर्दों की खिंचाई करे।उन्हें भी तो चैन नसीब हो।जिंदगी भर हुआ कि नहीं,किसे पता।अहले सुबह वे कुछ मरी हुई छोटी छोटी मछलियां और कीड़े मकोड़े लिए तालाब के ऊपर मंडराने लगते।उनके टुकड़े कर पानी में फेंकते...मछलियां अपने आहार की खातिर झुंड के झुंड पानी की सतह पर आतीं....फिर बगुले झपट्टा मारते.....चोंचभर दाना चुग लेते। उड़ जाते। बची हुई मछलियां समझतीं कि जिधर बगुले भगवान बनकर उतरे थे,उधर की मछलियां उन्हें ज्यादा प्रिय हैं। वे उनका आलिंगन करने आए थे।फिर मछलियों ने तालाब को इलाकों में तब्दील कर लिया।अब देखा जाने लगा कि कौन इलाके की मछलियां सबसे पहले अपने आकाओं के स्वागत में हाजिर मिलती हैं।रतजगे तक हुए। तालाब खाली हो चला।अब उसमें केवल पानी था।जिंदगी नहीं थी।कौवा मर्माहत हुआ।सोचता कि जल में मछलियां न हों,तो जल ही क्या।पर क्या करे?साथ लगा रहा।बोल तो सकता नहीं था।पहचान लिए जाने का भय था उसे।
अब बगुलों का दल नदी की तरफ बढ़ा।वहां लोग पहले से मछलियों को दाना डाल रहे थे।बगुलों ने भी दाने डाले।छोटी छोटी मछलियां पानी पर छितराईं।चुग ली गईं।बड़ी मछलियां तो धरा धर लोगों की वंशियां चूम रही थीं जिनमें थोड़ा ज्यादा मांसल चुग्गे फंसे थे।
' इस तरह तो सारी नदियां,सरोवर ही जीवन हीन हो जाएंगे।' व्यथित कौवे ने सोचा। अब, जब बगुले जल की सतह पर झपट्टा मारने चलते,वह ' पकड़ो पकड़ो ' चिल्लाने लगता।मछलियां जल में छिप जातीं।लोगों की वंशियों के चुग्गे भी धरे के धरे रह जाते। फिर कौए की आवाज पहचान कर बगुलों ने उसे रगेदना शुरू किया।लोग भी पीछे लग गए। ' पकड़ो .. मारो..यह कौवा है।द्रोही है, भेदिया भी ' की आवाज वातावरण में गूंजने लगी।यूथ भ्रष्ट काक बस्ती की ओर भागा।भेदिया और द्रोही जैसे सभ्यता सूचक शब्द उसे कलंकित घोषित कर रहे थे।उसका शरीर काला पड़ता जा रहा था।उधर बगुलों का दल समंदर की तरफ उड़ चला।लोग भी उधर ही बढ़ गए।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
सादर आभार आदरणीय लक्ष्मण भाई जी।
सादर आभार आदरणीय समर जी।
आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन । अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब, अच्छी लघुकथा हुई, बधाई स्वीकार करें ।
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