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कहते भरे हुए हैं अब भण्डार तो बहुत
लेकिन गरीब भूख से लाचार तो बहुत।१।
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फिरता है आज देखिए कैसे वो दरबदर
जिसने बनाये खूब यूँ सन्सार तो बहुत।२।
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मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ
रेलों बसों को कर रहे तैयार तो बहुत।३।
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बनता दिखा न आजतक हमको भवन कोई
रखते गये हैं आप भी आधार तो बहुत।४।
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सारे अदीब चुप हुए संकट के दौर में
सुनते थे यार उनका है बाजार तो बहुत।५।
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मजदूर सह किसान से जाने क्या दुश्मनी
शासन धनिक पे कर रहा आभार तो बहुत।६।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. तेजवीर जी, सादरअभिवादन । रचना पर उपस्थिति और सराहना के लिए आभार ।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।बेहतरीन गज़ल।
मजदूर सह किसान से जाने क्या दुश्मनी
शासन धनिक पे कर रहा आभार तो बहुत।६।
आ. भाई समर जी, सादर आभार ।
//जानकारी के लिए पूछना चाहूँगा कि कोई नई बह्र की गजल नहीं लिखी जा सकती है तकती'अ हो जाती हो ?//
ये उस समय सम्भव हो सकता है जब हमें अरूज़ पर उबूर हासिल हो,इससे पहले ऐसे प्रयोग करना उचित नहीं,हमें चाहिए कि प्रचलित बहूर पर ही प्रयास करें ।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति, प्रशंसा और मार्गदर्शन के लिए आभार । बह्र का संदर्भ मुझे याद नहीं रहा । अब ध्यान में रहेगा ।
फिर भी जानकारी के लिए पूछना चाहूँगा कि कोई नई बह्र की गजल नहीं लिखी जा सकती है तकती'अ हो जाती हो ? सादर..
आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार ।
आ. भाई रवि भसीन जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
बह्र के विषय में आपके परामर्श पर ध्यान दूँगा । सादर..
//लक्ष्मण भाई, जो अरकान आपने लिखे हैं, ये बह्र मैंने कभी नहीं देखी//
लक्ष्मण भाई हमेशा इस बह्र के अरकान ऐसे ही लिखते आये हैं,बहुत समय पहले मैंने भी टोका था,फिर इसलिए कहना छोड़ दिया कि उनके दिए गए अरकान से ग़ज़ल की तक़ती'अ हो जाती है ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ'
इस मिसरे को और चुस्त कीजिये ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी आदाब। यथार्थ पर आधारित समसामयिक सुन्दर रचना हुई है बधाई स्वीकार करें। सादर।
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