एक बे-रदीफ़ ग़ज़ल
( 221 1221 1221 122 )
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उनको न मेरी फ़िक्र न रुसवाई का है डर
पत्थर का जिगर रखते हैं सब यार सितमगर
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बर्बाद हुआ देख के भी दिल न भरा था
साहिल को रहा देखता गुस्से में समंदर
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सब लोग हों यक जा नहीं मुमकिन है जहाँ में
हाथों की लकीरें भी न होतीं हैं बराबर
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आईने जहाँ भी हों वहाँ जाता नहीं मैं
वो नुक़्स मेरे जग को बता देते हैं अक्सर
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इन्सान को हालात बना देते कभी संग
पर क्यों है सनमख़ाने में भगवान भी पत्थर
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बिन प्यार किसी दिल का है खिलना बड़ा मुश्किल
जैसे कि बिना आब न रहता है गुल-ए-तर
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गर आपने भगवान को देखा तो बताएँ
मुझको न अभी तक है मिला उसका कोई दर
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क्यों आज नई नस्ल नहीं सुनती किसी की
आबाद किये जाती है मयख़ाने जुआघर
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अल्लाह 'तुरंत' आजा तू इन्सां को बचाने
बे-ख़ौफ़ वबा ने किये हालात हैं बदतर
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Ram Awadh VIshwakarma जी, खाकसार का कलाम पसन्द करने और हौसला आफजाई का बेहद शुक्रिया
आदरणीय भाई गिरधारी सिंह जी नमस्कार
ग़ज़ल बहुत खूबसूरत हुई है जितनी तारीफ की जाये कम होगी। बहुत बहुत बधाई
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' साहेब आदाब | खाकसार का कलाम पसन्द करने और हौसला आफजाई का बेहद शुक्रिया
आ. भाई गिरधारी सिंह जी, सादर अभिवादन । उम्दा गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब अमीरुद्दीन खा़न "अमीर " साहेब आदाब | खाकसार का कलाम पसन्द करने और हौसला आफजाई का बेहद शुक्रिया | जी ,आपने सही फ़रमाया ये टंकण त्रुटि हो गई है | ध्यान दिलाने के लिए बहुत बहुत आभार |
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत जी 'तुरंत' आदाब । बहुत ही अच्छी ग़ज़ल कही है आपने । सभी अशआ़र क़ाबिल ए दाद हैं। बधाई स्वीकार करें। आईने जहाँ भी "हो" वहाँ जाता नहीं मैं - "यहांँ अं की " टंकण त्रुटि है शायद। सादर।
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