जिन्दगी की डाँट खाकर भी सँभल पाये न हम
चाह कर भी यूँ पुराना पथ बदल पाये न हम।१।
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एक संकट क्या उठा के साथ छूटा सबका ही
हाथ था सबने बढ़ाया किन्तु चल पाये न हम।२।
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फर्क था इस जिन्दगी को जीने के अन्दाज में
आप सा छोटी खुशी पर यूँ उछल पाये न हम।३।
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भूख तक तो ठीक था मुँह फेरकर सब चल दिये
लुट रही इन इज्जतों पर क्यों उबल पाये न हम।४।
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दूसरों के हित में जलना सोच में पनपा नहीं
पर स्वयं के हित भी बनकर दीप जल पाये न हम।५।
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आप ने पूछा मुखौटे क्यों बदलते रोज हो
है वजह इसकी किसी साँचे में ढल पाये न हम।६।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति से मान व उत्साहवर्धन के लिए आभार।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।बेहतरीन गज़ल।
भूख तक तो ठीक था मुँह फेरकर सब चल दिये
लुट रही इन इज्जतों पर क्यों उबल पाये न हम।४।
आप ने पूछा मुखौटे क्यों बदलते रोज हो
है वजह इसकी किसी साँचे में ढल पाये न हम।६।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन व मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
बदलते रोज हो
'है वजह इसकी किसी साँचे में ढल पाये न हम'
इस मिसरे में 'वजह' शब्द ग़लत है, सहीह शब्द है "वज्ह"21,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'है सबब इसका किसी साँचे में ढल पाये न हम'
आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति से मान व उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी। आदाब, मन को कचोटती सुन्दर रचना के लिए आपको बहुत बधाईयाँ।
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