(1222 1222 122)
नहीं था इतना भी सस्ता कभी मैं
बशर हूँ ,था बहुत मंहगा कभी मैं
अभी जिसने रखा है घर से बाहर
उसी के दिल में रहता था कभी मैं
जिसे कहते हो तुम भी झोपड़ी अब
मिरा घर है वहीं पर था कभी मैं
वहाँ पर क़ैद कर रक्खा है उसने
जहाँ देता रहा पहरा कभी मैं
सड़क पर क़ाफिला है साथ मेरे
नहीं इतना रहा तन्हा कभी मैं
मुझे भी तुम अगर तिनका बनाते
हवा के साथ उड़ जाता कभी मैं
बनाया है मुझे सागर उसीने
हुआ करता था इक सहरा कभी मैं
मैं जैसा हूँ सदा वैसा रहूँगा
न बन पाया तिरे जैसा कभी मैं
*मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब भाई सालिक गणवीर जी, आदाब। वाह क्या ख़ूब ग़ज़ल कही है। दिल में उतरने और इन्सानी जज़्बात बयां करने वााली रचना के लिये तहे-दिल से मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
मतले के दोनों मिसरे अलग अलग हैं उनमें रब्त पैदा नहीं हो सका, देखियेगा ।
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी.
ग़ज़ल पर उपस्थिति एवं सराहना के लिए हृदय से आभार.
आदरणीय भाई डा.छोटे लाल सिंह जी.
ग़ज़ल पर उपस्थिति एवं सराहना के लिए हृदय से आभार.
आदरणीय सालिक गणवीर साहब कमाल की गजल प्रस्तुत की आपने,न बन पाया तेरे जैसा कभी मैं ,बहुत सुंदर मन मगन हो गया बधाई कुबूल कीजिए
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । उम्दा गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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