Added by नाथ सोनांचली on February 19, 2017 at 2:53pm — 26 Comments
२१२२, ११२२, ११२२, २२
ये नहीं है कि हमें उन से मुहब्बत न रही,
बस!! मुहब्बत में मुहब्बत भरी लज्ज़त न रही.
.
रब्त टूटा था ज़माने से मेरा पहले-पहल,
रफ़्ता-रफ़्ता ये हुआ ख़ुद से भी निस्बत न रही.
.
ज़ह’न में कोई ख़याल और न दिल में हलचल,
ज़िन्दगी!! मुझ में तेरी कोई अलामत न रही.
.
उन से नज़रें जो मिलीं मुझ पे क़यामत टूटी,
वो क़यामत!! कि क़यामत भी क़यामत न रही.
.
याद गर कीजै मुझे, यूँ न…
Added by Nilesh Shevgaonkar on February 21, 2017 at 12:00pm — 17 Comments
Added by रामबली गुप्ता on February 26, 2017 at 7:00am — 18 Comments
अक्षय गीत ....
मैं हार कहूँ या जीत कहूँ ,या टूटे मन की प्रीत कहूँ
तुम ही बताओ कैसे प्रिय ,मैं कोई अक्षय गीत कहूँ
मैं पग पग आगे बढ़ता हूँ
कुछ भी कहने से डरता हूँ
पीर हृदय की कह न सकूं
बन दीप शलभ मैं जलता हूँ
शशांक का विरह गीत कहूँ,या रैन की निर्दयी रीत कहूँ
तुम ही बताओ कैसे प्रिय , मैं कोई अक्षय गीत कहूँ
अतृप्त तृषा है. घूंघट में
अधरों की हाला प्यासी है
स्वप्न नीड़ पर नयनों के…
Added by Sushil Sarna on December 22, 2016 at 6:00pm — 19 Comments
Added by Samar kabeer on December 25, 2016 at 11:00pm — 36 Comments
2122 – 1122 – 1122 - 22
केश विन्यास की मुखड़े पे घटा उतरी है
या कि आकाश से व्याकुल सी निशा उतरी है
इस तरह आज वो आई मेरे आलिंगन में
जैसे सपनों से कोई प्रेम-कथा उतरी है
ऐसे उतरो मेरे कोमल से हृदय में प्रियतम
जैसे कविता की सुहानी सी कला उतरी है
मेरे विश्वास के हर घाव की संबल जैसे
तेरे नयनों से जो पीड़ा की दवा उतरी है
पीर ने बुद्धि को कुंदन-सा तपाया होगा
तब कहीं जाके हृदय में भी…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 26, 2016 at 8:30pm — 40 Comments
"हे परवरदिगार! ये तूने मुझे आज कैसे इम्तिहां में डाल दिया ?" उसने पीछे लेटे लगभग बेहोश, युवक को एक नजर देखते हुए हाथ इबादत के लिए उठा दिए।
...... रात का दूसरा पहर ही हुआ था जब वह सोने की कोशिश में था कि 'कोठरी' के बाहर किसी के गिरने की आवाज सुनकर उसने बाहर देखा, घुप्प अँधेरे में दीवार के सहारे बेसुध पड़ा था वह अजनबी। देखने में उसकी हालत निस्संदेह ऐसी थी कि यदि उसे कुछ क्षणों में कोई सहायता नहीं मिलती तो उसका बचना मुश्किल था। युवक की हालत देख वह उसके कपडे ढीले कर उसे कुछ आराम की स्थिति…
Added by VIRENDER VEER MEHTA on December 20, 2016 at 10:30pm — 23 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 4, 2016 at 6:30am — 15 Comments
तुम्हारे स्नेह की रंगीन रश्मि
मैं उद्दीप्त
गंभीर-तन्मय ध्यानमग्न
कहीं ऊँचा खड़ा था
और तुम
मुझसे भी ऊँची ...
वह कहकहे
प्रदीप्त स्फुलिंगों-से
हमारी वार्ताएँ मीठी
चमकती दमकती
आँखों में रोशनी की लहर-सी
तुम्हारी बेकाबू दुरंत आसमानी मजबूरी
बरसों पहले की बात
अचानक चाँटे-सी पड़ी
ताज़ी है आज भी
गुंथी तुमसे
उतनी ही मुझसे
बिंध-बिंध जाती है
वेदना की छाती को…
ContinueAdded by vijay nikore on January 2, 2017 at 8:40pm — 22 Comments
Added by Mahendra Kumar on December 6, 2016 at 3:52pm — 18 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on December 7, 2016 at 5:08pm — 8 Comments
झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”
कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”
झील बोली,…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2016 at 10:04am — 22 Comments
221 2121 1221 212*
अनमोल पल थे हाथ से सारे फिसल गये
अपनों ने मुंह को फेर लिया दिन बदल गये।।
कुछ ख्वाब छूटे कुछ हुए पूरे, हुआ सफर
यादो के साथ साल महीने निकल गये।।
शरमा के मुस्कुरा के जो उनकी नजर झुकी
मदहोश हुस्न ने किया बस दिल मचल गये।।
बचपन के मस्त दिन भी हुआ करते थे कभी
बस्तो के बोझ आज वो बचपन कुचल गये।।
ओढे लिबास सादगी का भ्रष्ट तंत्र में
नेता गरीब के भी निवाले निगल गये।।
करते है बेजुबान को वो क़त्ल…
Added by नाथ सोनांचली on October 10, 2016 at 5:30am — 22 Comments
बहरे हज़ज़ मुसम्मन मक्बुज.....
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
सरे निगाह शाम से ये क्या नया ठहर गया
ये कौन सीं हैं मंजिलें ये क्या गज़ब है आरजू
जिसे सँभाल कर रखा वही समा बिखर गया
अभी है वक़्त बेवफा अभी हवा भी तेज है
अभी यहीं जो साथ था वो हमनवा किधर गया
ये वादियाँ ये बस्तियाँ ये महफ़िलें ये रहगुजर
हज़ार गम गले पड़े…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 12, 2016 at 9:53pm — 8 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 12, 2016 at 10:00pm — 5 Comments
भीतर पुराने धूल-सने मकबरे में
धुआँते, भूलभुलियों-से कमरे
अनुभूत भीषण एकान्त
विद्रोही भाव
जब सूझ नहीं कुछ पड़ता है
कुछ है जो घूमघाम कर बार-बार
नव-आविष्कृत बहाने लिए
अमुक स्थिति को ठेल…
ContinueAdded by vijay nikore on October 19, 2016 at 11:00pm — 14 Comments
नये सरकारी आदेश की प्रति बाबूराम के कार्यालय में पहुँच गयी थी. इस आदेश के अनुसार किसी भी विकलांग को लूला-लंगड़ा, भैंगा-काणा या गूंगा-बहरा आदि कहना दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया था. सरकार ने यह व्यवस्था दी है कि यदि आवश्यक हुआ तो विकलांग के लिए दिव्यांग शब्द का प्रयोग किया जाए. बड़े साहब ने मीटिंग बुला कर उस सरकारी आदेश को न केवल पढ़कर सुनाया था बल्कि सभी को सख्ती से इसे पालन करने की हिदायत भी दी थी. आज कार्यालय जाते समय बाबूराम यह सोचकर…
ContinueAdded by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 13, 2016 at 3:00pm — 14 Comments
Added by दिनेश कुमार on October 9, 2016 at 8:50am — 7 Comments
1222 1222 1222 1222
मुख़ालिफ इन हवाओं में ठहरना जब ज़रूरी है
चरागों को जलाने का कोई तो ढब ज़रूरी है
रुला देना, रुलाकर फिर हँसाने की जुगत करना
सियासत है , सियासत में यही करतब ज़रूरी है
उन्हें चाकू, छुरी, बारूद, बम, पत्थर ही दें यारो
तुम्हें किसने कहा बे इल्म को मक़तब ज़रूरी है
तगाफुल भी ,वफा भी और थोड़ी बेवफाई भी
फसाना है मुहब्बत का, तो इसमें सब ज़रूरी है
पतंगे आसमाँनी हों या रिश्ते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 26, 2016 at 8:30am — 24 Comments
Added by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on September 26, 2016 at 9:21am — 18 Comments
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