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"ओबीओ परिवार के सभी सदस्यों को ओबीओ की 14वीं सालगिरह मुबारक हो"
ग़ज़ल
212 212 212
इल्म की रौशनी ओबीओ
रूह की ताज़गी ओबीओ (1)
तुझ से मंसूब करता हूँ मैं
अपनी ये शाइरी ओबीओ (2)
तेरे बिन है अधूरी बहुत
ये मेरी ज़िंदगी ओबीओ (3)
मेरा दिल मेरी चाहत है तू
जानते हैं सभी ओबीओ (4)
चाहने वाले तेरे मिले
हर नगर हर गली ओबीओ …
ContinuePosted on April 1, 2024 at 1:51pm — 12 Comments
ग़ज़ल
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
उजाला इसलिए कमरे में पहले सा नहीं रहता
हमारे साथ अब वो चाँद सा चहरा नहीं रहता
ग़िलाज़त ही ग़िलाज़त है सियासत तेरी बस्ती में
यहाँ आकर कोई भी शख़्स पाकीज़ा नहीं रहता
जूनूँ के दश्त में जिस दिन से दाख़िल हो गया हूँ मैं
मेरी दीवानगी पे दोस्तो पहरा नहीं रहता
उसी को मंज़िल-ए-मक़सूद मिलती है ज़माने में
जो सर पर हाथ रख कर दोस्तो बैठा नहीं…
ContinuePosted on January 6, 2023 at 3:41pm — 18 Comments
ग़ज़ल
212 212 212
तू है इक आइना ओबीओ
सबने मिल कर कहा ओबीओ
जो भी तुझ से मिला ओबीओ
तेरा आशिक़ हुआ ओबीओ
तुझसे बहतर अदब का नहीं
कोई भी रहनुमा ओबीओ
जन्म दिन हो मुबारक तुझे
मेरे प्यारे सखा ओबीओ
यार बरसों से रूठे हैं जो
उनको वापस बुला ओबीओ
हम तेरा नाम ऊँचा करें
है यही कामना ओबीओ
जो नहीं सीखना चाहते
उनसे पीछा छुड़ा ओबीओ
और जो सीखते हैं उन्हें
अपने…
Posted on April 2, 2022 at 9:00pm — 37 Comments
ग़ज़ल
1212 1122 1212 22 / 112
यही समाज की उलझन है क्या किया जाए
कि भाई भाई का दुश्मन है क्या किया जाए
हर एक शख़्स गरानी के दौर में देखो
ख़ुद अपने आप से बदज़न है क्या किया जाए
सभी ये कहते हैं यारो हम आशिक़ों के लिये
ये शब अज़ल ही से बैरन है क्या किया जाए
सफ़र प जाने से पहले ये सोचना है हमें
हर एक गाम प रहज़न है क्या किया जाए
जो तू नहीं है तो…
ContinuePosted on August 2, 2021 at 3:59pm — 23 Comments
वाह वाह वाह बहुत खूब।
ओ बी ओ
प्रिय मित्र समीर साहिब जी गज़ब लिखा ख़ास कर ये पंक्तियाँ मुझे बेहद सुकून दे गई
आग तो सर्द हो चुकी कब की
क्यों अबस राखदान फूँकता है
हुक्म से रब के ल'अल मरयम का
देखो मुर्दे में जान फूँकता है
डॉ अरुण कुमार शास्त्री // एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त
आदरणीय, मोहतरम समीर कबीर साहब प्रत्युत्तर के लिए आपका आभारी हूँ। रू का शाब्दिक
अर्थ आपने चहरा, (उक्त मिसरे में ) बता या , लेकिन मैंने मूल प्रति में रूह लिखा था। लेकिन कुछ लोग वहाँ ह की गणना कर ले ते हैं, सो मैंने रू चुना। एक और बात रू , वहाँ आत्मा की प्रतिच्छाया है न कि चहरा।आदरणीय, बिम्ब की दृष्टिसे रू का प्रयोग सर्वथा उचित है। माननीय, कवि का संसार ( काव्य ) बिम्ब के माध्यम से अभिव्यक्त होता है, जो लक्षणा और
व्य्ंजना से ही बोध गम्य है। शब्द ही ब्रह्म है, इसी हेतु मनीषियों ने कहा है। और, दूसरे मिसरे की बह्र से खारिज...बतायाआपने, मेहरबानी होगी, आपकी, तक्तीअ कर मार्ग- दर्शन करें!
आदरणीय समर कबीर साहब
अपने ब्लाग पर एक ग़ज़ल पोस्ट की है, प्रतिक्रिया एवं सुझाव अपेक्षित है. समय निकाल कर मुझे भी पढ़कर आवश्यक सुझाव देंं.
shri maan aapki hosla afjayI k liye aabhar
शुक्रिया जनाब.
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