गजल
221/2121/1221/212
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लेखन का खूब गुण जो सिखाता है ओबीओ
कारण यही है सब को लुभाता है ओबीओ।।
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जुड़कर हुआ हूँ धन्य निखर लेखनी गयी
परिवार जैसा धर्म निभाता है ओबीओ।।
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कमियों बता के दूर करें कैसे यह सिखा
लेखक सुगढ़ हमें यूँ बनाता है ओबीओ।।
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अच्छा स्वयं तो लिखना है औरों को भी सिखा
चाहत ये सब के मन में जगाता है ओबीओ।।
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वर्धन हमारा हौसला करने को साथ साथ
बढ़चढ़ के आगे नित्य जो आता है ओबीओ।।
ई*
कब से जुड़े हो प्रश्न अगर पूछ ले कोई
कहता हूँ तुझसे जन्मों का नाता है ओबीओ।।
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रखते हैं याद जन्म दिवस हम भी इसलिए
माता का धर्म जब यूँ निभाता है ओबीओ।।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई शीलकराम जी, आभार।
सत्य वचन
आ. भाई अवनीश जी, हार्दिख धन्यवाद।
बिल्कुल सत्य वचन है सर बहुत सुन्दर।
आ. भाई। चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति एवं उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदाब, सम्बोधन विधा में अच्छी ग़ज़ल हुई है, भाई लक्ष्मण सिंह मुसाफिर 'धामी' जी ! एकाधिक स्थलों पर सुधार की गुंजाइश महसूस हुई, यथा " वर्धन हमारा होंसला करने को साथ साथ" को विन्यास सम्मत ढंग से यूँ कहा जा सकता है, 'वो होंसला भी बढ़ सके बहतर कहें ग़ज़ल' , विचार कीजिएगा ! सादर
आ. भाई मिथिलेश जी , सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद
आ. भाई समर जी , सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार।
"आ. प्राची बहन , सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।"
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