विदा लेता है कोई मन से इस तरह
कि जैसे
पलक भर झुकी हो
और दृश्य बदल जाए।
रात भर ऑसुओ से भीगा गिलाफ तकिये का
सुबह धुल जाए।सूजी हुई आंखें
पानी के छींटो से ताजा दम हो
काजल और बिखर जाए।बाकी हो बहुत कुछ कहना
और सांस का तार टूट जाए।
सूरज पर रहती हैं निगाह चौकस
चांद का क्या पता, कब निकले कब
ढल जाए।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
अन्विता ।
Added by Anvita on May 7, 2020 at 9:00pm — 5 Comments
सिवाय मंज़िल-ए-मक़्सूद गर क़िफ़ा होगी
मसाफ़त उम्र भर अपनी तो बे-जज़ा होगी
मरीज़-ए-इश्क़ हैं चारागरी भी कीजे जनाब
दवा-ए-क़ुरबत-ए-जानां से ही शिफ़ा होगी
चला हूँ जानिब-ए-कूचा-ए-यार उमीद लिये
सलाम आख़िरी होगा या इब्तिदा होगी
हमारे रिश्ते के उक़्दे खुले नहीं अब तक
लगी जो गिरह-ए-शक़-ओ-शुबह दोख़्ता होगी
हुआ तलत्तुफ़-ए-ख़ैरात -ए-आमिर आज ही क्यों
ज़रूर ख़ूं-ओ-पसीने की इक़्तिज़ा होगी
ज़रूर होंगें फ़साहत पे सामयीं मसहूर…
Added by Om Prakash Agrawal on May 7, 2020 at 8:30pm — 2 Comments
यह हैरत यहाँ ही सम्भव है।
भारत में क्या असम्भव है।
जो लोग यहाँ रोटी को तरसें।
मन उनका भी बोतल से हरषे।
जो राशन फ्री का लाते हैं।
वे दारू पर रकम लुटाते हैं।
कुछ ने तो हद इतनी कर दी।
पूड़ी तक दश में धर दी।
जो कुछ था कमाया रोटी का।
उसको दारू पर लुटा दिया।
क्या खूब है हिम्मत जज़्बा भी
इन अतिशय भूखे प्यासों का।
इन विषम दिनों में भी सबने।
क्या देश हेतु है काम…
Added by Awanish Dhar Dvivedi on May 7, 2020 at 7:00pm — 3 Comments
ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल
(2122 2122 212 )
.
बेकली कुछ बेबसी दीवानगी
हो गई है आज कैसी ज़िंदगी
**
साथ में रहते मगर हैं दूरियाँ
अब घरों में छा गई बेगानगी
**
आरती में भी भटकता ध्यान है
रस्म बन कर रह गई हैं बंदगी
**
आदमी है अब अकेला भीड़ में
ढूंढ़ते हैं रिश्ते ख़ुद बाबस्तगी
**
यूँ तो बिजली से मुनव्वर है जहाँ
फ़िक्र की है बात दिल की तीरगी
**
कट रहे हैं हम…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 7, 2020 at 3:30pm — 6 Comments
करती सूखा बाढ़ बस, हलधर को भयभीत
बाँकी हर दुख पर रही, सदा उसी की जीत।१।
**
नाविक हर तूफान से, पा लेगा नित पार
डर केवल पतवार का, ना निकले गद्दार।२।
**
मजदूरी में दिन कटा, कैसे काटे रात
टपके का भय दे रही, निर्धन को बरसात।३।
**
आते जाते दे हवा, दस्तक जिस भी द्वार
लेकर झट उठ बैठता, हर कोई तलवार।४।
**
शासन बैठा देखता, हर संकट को मूक
निर्धन को भय मौत से, अधिक दे रही भूक।५।
**
मानवता से प्रीत थी, पशुपन से भय मीत
इस…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 7, 2020 at 6:06am — 6 Comments
मन के जतन :
फूल हुए शूल हुए
रास्ते की धूल हुए
अर्थहीन हो गए
अर्द्ध रैन स्वप्न
अवरोध प्रीत के
छंद सजे गीत के
सृष्टि में अट्हास हुआ
प्रीत का उपहास हुआ
सहमे
तन और मन
मेघों के आँचल पर
खुशबू से नाम लिखे
अनुरोधों की देहरी पर
बेमोल बिक गए
अंतर मौन स्वप्न
स्वीकार सभी खो गए
वनपाखी से हो गए
सायों से मिलने के
व्यर्थ हुए जतन
क्यूँ रोये नैना
न वो जाने
न…
Added by Sushil Sarna on May 6, 2020 at 7:14pm — 3 Comments
मापनी 2122 1212 22/112
दोस्त जो आसपास बैठे हैं,
जाने क्यों सब उदास बैठे हैं
सोचते हैं कि कोई आएगा,
ले के खाली गिलास बैठे हैं.
फिर से दरबार सज गया उनका,
लोग सब ख़ास ख़ास बैठे…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on May 5, 2020 at 8:28pm — 7 Comments
(121 22 121 22 121 22 121 22)
नया ज़माना कभी न आया , पुरानी दुनिया बदल रही है
ज़मीन पैरों तले थी कल तक ,न जाने कैसे फिसल रही है
बुझा न पायेंगी आंधियाँ भी ,हवाओं से जिस की दोस्ती है
अभी तो शम्अ जवां हुई है ,अभी धड़ल्ले से जल रही है
किसी के अरमां मचल रहे हैं , हुई किसी की मुराद पूरी
यहाँ उठी है किसी की डोली, वहाँ से अरथी निकल रही है
निकल रहा है किसी का सूरज,अभी हुई दोपहर किसी की
हमारे दिन तो गुज़र चुके हैं , हमारी अब…
Added by सालिक गणवीर on May 5, 2020 at 7:00am — 5 Comments
आखिर खुल गया ताला
होगा अब देश मतवाला
पुराने जमाने की बात थी
धंधा कहते थे, उसे काला
गरीब रोटी को रोता था
किसने ये गलत कह डाला
हस्पताल खोलना क्यूँ है
जब हाथ हो सबके प्याला
किसे पढ़ना है बताओ तो
जब विषय ही बदल डाला
दूरी की चिंता कौन करे
धज्जी उसकी उड़ा डाला
अब इकोनॉमी चमकेगी
कोरोना तेरा मुंह काला !!
Added by विनय कुमार on May 4, 2020 at 5:53pm — 8 Comments
(221 2121 1221 212 )
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मयख़ाने आ गया हूँ ज़माने को छोड़कर
मत बैठ साक़ी आज यूँ रुख़ अपना मोड़कर
**
आँखों से अब पिला कि दे जाम-ए-शराब तू
साक़ी सुबू में डाल दे ग़म को निचोड़कर
**
वक़्ते-क़ज़ा अगर यहीं रहने हैं ज़र-ज़मीँ
पी लूँ ज़रा सी क्या करूँ दौलत को जोड़ कर
**
कोई कभी शिकस्त मुझे दे न पाएगा
बादा-कशी में यार तू मुझसे न होड़ कर
**
पीकर ज़रा कहासुनी मामूली बात है
मय के लिए न…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 4, 2020 at 3:30pm — 6 Comments
चेतना का द्वार
उठते ही सवेरे-सवेरे
चिड़ियों की चहचहाट नहीं
आकुल क्रन्दन... चंय-चंय-चंय
शायद किसी चिड़िया का बीमार बच्चा
साँसे गिनता घोंसले से नीचे गिरा था
वह तड़पा, काँपा…
ContinueAdded by vijay nikore on May 4, 2020 at 1:00pm — 7 Comments
२२१/२१२१/२२२/१२१२
भटकन को पाँव की भला कैसे सफर कहें
समझो इसे अगर तो हम लटके अधर कहें।१।
**
गैरों से जख्म खायें तो अपनों से बोलते
अपनों के दुख दिये को यूँ बोलो किधर कहें।२।
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बातें सुधार से अधिक भाती हैं टूट की
दीमक हैं देश धर्म को उन को अगर कहें।३।
**
टूटन दरो - दीवार की करते रफू मगर
जाते नहीं हैं छोड़ कर घर को जो घर कहें।४।
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जाने हुआ है क्या कि सब लगती हैं रात सी
दिखती नहीं है एक भी जिसको सहर…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 4, 2020 at 7:41am — 7 Comments
एक तन्हा ग़ज़ल रहा हूँ मैं
उसकी यादों में चल रहा हूँ मैं (1)
तेरी यादों में ज़िन्दगी जी कर,
ज़िन्दगी को मसल रहा हूँ मैं (2)
कैसी हो ज़िन्दगी बताओ तुम?
तेरे ग़म में उबल रहा हूँ मैं (3)
प्यार में इक महीन सा काग़ज़,
भीग आँसू से गल रहा हूँ मैं (4)
तुम मुझे देख मुस्कुराते हो,
सारी दुनिया को खल रहा हूँ मैं (5)
वो मेरी राह में खड़ी होगी ,
इसलिए तेज चल रहा हूँ…
Added by सूबे सिंह सुजान on May 3, 2020 at 8:00pm — 4 Comments
ग़ज़ल:
आग कैसी जल रही है आजकल
क्या वबा ये पल रही है आजकल
हर ख़बर अब क़हर ही बरपा रही
पाँव बिन जो चल रही है आजकल
धैर्य का कब ख़त्म होगा इम्तिहाँ
हर चमक तो ढल रही है आजकल
हो रही है बेअसर हर घोषणा
योजना हर टल रही है आजकल
नफ़रतों की लहलहाती फ़स्ल ही
ज़ह्र बनकर फल रही है आजकल
हाल अपना मैं कभी कहता नहीं
ख़ामुशी पर खल रही है आजकल
फिर 'अमर' गहरा अँधेरा जायेगा
जोर…
Added by Amar Pankaj (Dr Amar Nath Jha) on May 3, 2020 at 3:00pm — 3 Comments
एक गीत
===========
संकट दूर कभी होता है
संकट संकट कहने से क्या ?
त्राण मिलेगा तभी आप यदि
समाधान ढूंढें संकट का |
**
जीवन में खुशियाँ यदि हैं तो, संकट का भी तय है आना |
गिरगिट जैसे रंग बदलकर ,रूप दिखाता है यह नाना |
धीरज रखकर हिम्मत रखकर , इससे मानव लड़ सकता है
ख़ुद पर संयम रखने से ही , तय होगा संकट का जाना |
पूरा जोर लगा दें अपना , हम भारत के लोग अगर…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 3, 2020 at 1:00pm — 7 Comments
Added by Dr. Geeta Chaudhary on May 3, 2020 at 2:00am — 4 Comments
पास उसके शक्ति श्रम की, पास उसके नूर है
वह जगत निर्माण करता अलहदा मजदूर है।।
घर खुला आकाश उसका औ शयन को है धरा
अस्थि पंजर शेष काया देख लगता अधमरा।।
भूख पीड़ित वो, नहीं कुछ और बातें सोचता
क्लेश चिन्ता दीनता तन रुग्ण यौवन नोचता।।
पास उसके पेट, भोजन चाहिए हर हाल में
ढूंढता जिसको फिरे वो ज़िन्दगी जंजाल में।।
वो बनाया ताज लेकिन नृप हुआ मशहूर है
जात क्या औ धर्म क्या मजदूर तो मजदूर है।।
पाँव…
ContinueAdded by नाथ सोनांचली on May 2, 2020 at 7:30pm — 16 Comments
ग़ज़ल
1222 1222 1222 122
करेगा दम्भ का यह काल भी अवसान किंचित ।
करें मत आप सत्ता का कहीं अभिमान किंचित ।।
क्षुधा की अग्नि से जलते उदर की वेदना का ।
कदाचित ले रहा होता कोई संज्ञान किंचित ।।
जलधि के उर में देखो अनगिनत ज्वाला मुखी हैं।
असम्भव है अभी से ज्वार का अनुमान किंचित।।
प्रत्यञ्चा पर है घातक तीर शायद मृत्यु का अब ।
मनुजता पर महामारी का ये संधान किंचित ।।
चयन…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on May 2, 2020 at 4:23pm — 9 Comments
उन गलियों को छोड़ दिया
उन राहों से मुँह मोड़ लिया
अपनी यारी के किस्से जहां
आज भी गूंजा कराती है
अब बची रही कुछ खास नहीं
उन उम्मीदों की प्यास नहीं
तेरे घर के चौबारे पर अब भी
आवाज़ जो गूंजा करती है
वो जुते में चिरकुट रखना
पीछे से यूँ पेपर तकना
हिंदी वाली मिस हमेशा
याद अभी भी करती है
वो रातों को पढ़ने जाना
एक दूजे के घर चढ़ आना
किताबे पिली पन्नी के अब भी
हर रात वही पर…
ContinueAdded by AMAN SINHA on May 2, 2020 at 2:37pm — 5 Comments
"क्या बहन, कल से बंदी ख़तम हो जायेगी?, एक बाई ने अपने दरवाजे से सामने वाले घर की बाई से पूछा.
"पता नहीं रे, हो सकता हैं ख़तम हो जाए", उसने अपनी अनभिज्ञता जाहिर की.
"अच्छा तो ये बताओ कि क्या बंदी ख़त्म होते ही दारू की दुकान भी खुल जायेगी?, पहली ने फिर पूछा.
दूसरी ने लगभग घबराते हुए कहा "ख़तम नहीं होता तो अच्छा था".
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 2, 2020 at 12:52pm — 6 Comments
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