करती सूखा बाढ़ बस, हलधर को भयभीत
बाँकी हर दुख पर रही, सदा उसी की जीत।१।
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नाविक हर तूफान से, पा लेगा नित पार
डर केवल पतवार का, ना निकले गद्दार।२।
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मजदूरी में दिन कटा, कैसे काटे रात
टपके का भय दे रही, निर्धन को बरसात।३।
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आते जाते दे हवा, दस्तक जिस भी द्वार
लेकर झट उठ बैठता, हर कोई तलवार।४।
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शासन बैठा देखता, हर संकट को मूक
निर्धन को भय मौत से, अधिक दे रही भूक।५।
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मानवता से प्रीत थी, पशुपन से भय मीत
इस युग में पर देखिए, उलट गयी यह रीत।६।
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मधुशाला से सच रही, अद्भुत जिनकी प्रीत
कोरोना का भय मिटा, चले निभाने रीत।७।
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हर सत्ता को भय रहा, कुर्सी का अवसान
जिस कारण जनता विवश, करने को विषपान।८।
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मौलिक अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई समर कबीर जी, सादर अभिवादन । दोहों पर उपस्थिति व मार्गदर्शन के लिए आभार ।
आ. भाई सुरेंद्रनाथ जी, सादर अभिवादन । दोहों पर उपस्थिति, प्रशंसा व कमियों को इंगित करने के लिए आभार ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, अच्छे दोहे लिखे आपने, बधाई स्वीकार करें ।
'करती सूखा बाढ़ बस, हलधर को भयभीत'
इस पंक्ति में 'करती' की जगह "करते" शब्द उचित होगा,देखियेगा ।
आद0 लक्ष्मण धामी जी सादर अभिवादन। बढ़िया दोहों का प्रयास हुआ है।
आप अगर दूसरे दोहे को यूं करें तो
नाविक हर तूफान से, पा लेता है पार
डरता पर पतवार से, ना निकले गद्दार।।
इसी तरह कुछ और दोहों में भी मुझे कुछ लग रहा है। देखियेगा। सादर
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । दोहों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी ।बहुत बढ़िया गज़ल।
शासन बैठा देखता, हर संकट को मूक
निर्धन को भय मौत से, अधिक दे रही भूक।५।
हर सत्ता को भय रहा, कुर्सी का अवसान
जिस कारण जनता विवश, करने को विषपान।८।
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