ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल
(2122 2122 212 )
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बेकली कुछ बेबसी दीवानगी
हो गई है आज कैसी ज़िंदगी
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साथ में रहते मगर हैं दूरियाँ
अब घरों में छा गई बेगानगी
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आरती में भी भटकता ध्यान है
रस्म बन कर रह गई हैं बंदगी
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आदमी है अब अकेला भीड़ में
ढूंढ़ते हैं रिश्ते ख़ुद बाबस्तगी
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यूँ तो बिजली से मुनव्वर है जहाँ
फ़िक्र की है बात दिल की तीरगी
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कट रहे हैं हम जड़ों से रात दिन
गाँव को भी भा रही है खीरगी
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लीपकर खड़िया से चेहरा चाँद सा
हुस्न भी अब खो रहा है सादगी
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रब भले दिखता नहीं है आपको
दर्ज़ करवा दी है पर मौजूदगी
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क़ह्र क़ुदरत का अभी बाक़ी 'तुरंत'
है ये कोविड तो फ़क़त इक बानगी
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Samar kabeer साहेब ,
आपकी पुरखुलूस हौसला अफ़ज़ाई का दिल से शुक्रग़ुज़ार हूँ . नवाज़िश जनाब!
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी , आपकी हौसला आफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया | आपको कथ्य प्रभावित नहीं कर रहे हैं ,यह मेरे कथ्य की विफलता मानूंगा ,प्रयास करूँगा आगे और अच्छा लिखने का | मेरा लेखन बहुत ज्यादा होता है इसलिए संभव है कभी कभी गुणवत्ता आपके मानदंड के अनुरूप न हो | सादर नमन |
आद0 गिरधर सिंह गहलोत जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही हैं आपने। पर मुझे आज कथ्य उतना प्रभावित नहीं कर रहे हैं। हो सकता है यह मेरा भ्रम हो। सादर बधाई स्वीकार कीजिये।
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी ,
इस स्नेहिल और उत्साह बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार
हार्दिक बधाई आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी जी ।बहुत बढ़िया गज़ल।|
साथ में रहते मगर हैं दूरियाँ
अब घरों में छा गई बेगानगी
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