सिवाय मंज़िल-ए-मक़्सूद गर क़िफ़ा होगी
मसाफ़त उम्र भर अपनी तो बे-जज़ा होगी
मरीज़-ए-इश्क़ हैं चारागरी भी कीजे जनाब
दवा-ए-क़ुरबत-ए-जानां से ही शिफ़ा होगी
चला हूँ जानिब-ए-कूचा-ए-यार उमीद लिये
सलाम आख़िरी होगा या इब्तिदा होगी
हमारे रिश्ते के उक़्दे खुले नहीं अब तक
लगी जो गिरह-ए-शक़-ओ-शुबह दोख़्ता होगी
हुआ तलत्तुफ़-ए-ख़ैरात -ए-आमिर आज ही क्यों
ज़रूर ख़ूं-ओ-पसीने की इक़्तिज़ा होगी
ज़रूर होंगें फ़साहत पे सामयीं मसहूर
नक़ाब ओढ़े हसीं जब ग़ज़लसरा होगी
ख़बर न ख़ुद की न दुनिया की मुझको तेरे सिवा
मेरी तरह तू तसव्वुर में मुब्तिला होगी
बदलती फितरत-ए-इंसान मौसमों की तरह
मक़ाम हो वहीं माइल जिधर हवा होगी
जो ख़ुदपरस्ती ही बुनियाद -ए-दोस्ती हो क़दम
सिलाई आस्तीं की कुछ बढ़ा चढ़ा होगी
ओमप्रकाश अग्रवाल
(क़दम जयपुरी)
जयपुर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. भाई ओमप्रकाश जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आद0 क़दम जयपुरी जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। लगता है पोस्ट करते समय आपने इसका फॉर्मेट नहीं देखा क्योकि सभी शेर एक साथ हो गए हैं। खैर इस उम्दा ग़ज़ल पर बधाई स्वीकारें। सादर
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