ज़िम्मेदारियों में उलझी ज़िंदगी,
सरक-सरक कर गुज़रने लगी।
हादसों का सिलसिला ऐसा चला,
उम्र का अहसास गहराता गया।
उड़ने की ख़्वाहिश और सारे ख़्वाब,
कहीं घुप अंधेरे में आंखें मूंदे बैठ गए।
अचानक तेज़ हवा के झोंके ने,
यूँ छू दिया कि नये अरमान उमड़ पड़े।
इस लम्बी रात का सुंदर सवेरा हुआ,
बादल छँट गए, इंद्रधनुष ने रंग बिखेरे।
फिर से जी लूँ, दिल ने तमन्ना की,
ऐ हवा के हसीं झोंके, रूख़ ना बदल लेना…
Added by Usha on September 23, 2019 at 3:22pm — 3 Comments
घोघा रानी, कितना पानी ।
बदला मौसम, बरसा पानी ।।
डूब गई गली और सड़कें ।
नगर निगम का उतरा पानी ।।
सब कुछ अच्छा करते दावा ।
नही बचा आँखों का पानी ।।
गंगा कोशी पुनपुन गंडक ।
सब नदियों में उफना पानी ।।
मैं तो हूँ गंगा का बेटा ।
पितरों को भी देता पानी ।।
नगर हुआ मेरा स्मार्ट सिटी ।
उठा गरीब का दाना पानी ।।
जल दूषित से उनको क्या है ?
वो पीते बोतल का पानी…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2019 at 12:30pm — 7 Comments
सोचता हूँ ,
अब तो यह भी सोचना पड़ेगा
कि कैसे सोचते हैं हम ?
कितनी सीमाओं में सोचते हैं हम ?
या किस सीमा तक सोचते हैं हम ?
कुछ सोचते भी हैं हम ?
अगर नहीं तो क्यों नहीं सोचते हैं हम ?
सच तो यह है कि ' बिना विचारे जो करे ' .....
भी नहीं सोचते हैं हम।
खुद में गज़ब का विश्वास रखते है हम ?
बस सोचने में क्रियाशील रहते हैं हम ,
जितनी तेजी से आगे जाते हैं
उतनी हे तेजी से लौट आते हैं।
नतीज़तन वहीं के वहीं रह जाते हैं हम।…
Added by Dr. Vijai Shanker on September 23, 2019 at 10:01am — 6 Comments
देखा इतना दर्द दिलों का इस बेदर्द ज़माने में
बस थोड़ा सा वक़्त बचा है सैलाबों को आने में
**
अपनापन का जज़्बा खोया और मरासिम भी टूटे
कंजूसी करते हैं सारे थोड़ा प्यार दिखाने में
**
उनकी फ़ितरत कैसी होगी ये अंदाज़ा मुश्किल है
जिनको खूब मज़ा आता है गहरी चोट लगाने में
**
वादा पूरा करना अपना इस सावन में आने का
वरना दिलबर क्या रक्खा है सावन आने जाने में
**
बात…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on September 23, 2019 at 7:30am — 6 Comments
ज़िम्मेदारियों में उलझी ज़िंदगी,
सरक-सरक कर गुज़रने लगी।
हादसों का सिलसिला ऐसा चला,
उम्र का अहसास गहराता गया।
उड़ने की ख़्वाहिश औ सारे ख़्वाब,
कहीं घुप अंधेरे में आंखें मूंदे बैठ गए।
अचानक तेज़ हवा के झोंके ने,
यूँ छू दिया कि नये अरमान उमड़ पड़े।
इस लम्बी रात का सुंदर सवेरा हुआ,
बादल छँट गए, इंद्रधनुष ने रंग बिखेरे।
फिर से जी लूँ, दिल ने तमन्ना की,
ऐ हवा के हसीं झोंके, रूख़ ना बदल लेना ।
मौलिक…
ContinueAdded by Usha on September 22, 2019 at 2:14pm — 2 Comments
1212 1122 1212 22
जो मेरी छत पे कबूतर उदास बैठे हैं
वो तेरी याद में दिलबर उदास बैठे हैं
तुम्हारी याद के लश्कर उदास बैठे हैं
हसीन ख़्वाब के मंज़र उदास बैठे हैं
तमाम गालियाँ हैं ख़ामोश तेरे जाने से
तमाम राह के पत्थर उदास बैठे हैं
बिना पिए तो सुना है उदास रिंदों को
मियाँ जी आप तो पी कर उदास बैठे हैं
ज़रा सी बात पे वो छोड़ कर गया मुझको…
Added by SALIM RAZA REWA on September 20, 2019 at 11:00pm — 4 Comments
1222 1222 122
नहीं अच्छा है यूँ मजबूर होना
दिखो नजदीक लेकिन दूर होना।
कली का कुछ समय को ठीक है, पर
नहीं अच्छा चमन, मगरूर होना।
अँधेरों में उजालों को दे रस्ता
चिरागों का न थकना चूर होना
कोई कहता इसे वरदान है ये
खले लेकिन किसी को हूर होना।
अभी सूखा नहीं रख ले तसल्ली
दिखेगा ज़ख्म का नासूर होना।
कदम तो चूम लेगी जीत तेरे
है बाकी बस तुझे मंजूर होना।
मौलिक अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on September 20, 2019 at 2:00pm — 2 Comments
2122 2122 212
इस कदर था इश्क़ में डूबा हुआ।
चढ़ गया सूली पे वो हँसता हुआ।।
अब कहूँ क्या इश्क़ में क्या क्या हुआ।
हर कदम पर इक नया धोखा हुआ।।
जब किसी को इश्क़ में धोखा हुआ।
फिर उसे देखा नहीं हँसता हुआ।।
क्या बताऊँ मैं तुझे क्या क्या हुआ।
है मेरा जीवन बहुत उलझा हुआ।।
और कुछ तेरे सिवा दिखता नहीं।
इस कदर मैं तेरा दीवाना हुआ।।
मानता कब है किसी की बात वो।
वक़्त जिसका हो बुरा आया…
Added by surender insan on September 20, 2019 at 1:00pm — 2 Comments
नज़रिया - लघुकथा ---
अमर अपने सहपाठी के साथ घर से लगे लॉन में क्रिकेट खेल रहा था। उसके मित्र को प्यास लगी तो अमर अंदर पानी लेने चला गया। इसी बीच अमर की विधवा बुआजी तुलसी के पत्ते लेने बाहर आईं।
"ए लड़के कौन हो तुम? यहाँ क्या कर रहे हो?"
"मैं अमर के साथ पढ़ता हूँ। उसने ही बुलाया था।"
"अमर के सभी दोस्तों को जानती हूँ।तुम्हें तो कभी नहीं देखा।"
"हाँ आँटी, मैं पहली बार आपके यहाँ आया हूँ।"
"क्या नाम हैं तुम्हारा?"
"असगर अली।"
"तुम मुसलमान…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on September 19, 2019 at 8:32pm — 2 Comments
मंच को प्रणाम करते हुए ग़ज़ल की कोशिश
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फाइलुन
लालफीताशाही कितनी मिन्नतों को खा गई
ये व्यवस्था ढेर सारे मरहलों को खा गई
ये कहा था साहिबों ने घर नये देंगे बना
साब की दरियादिली भी झोपड़ों को खा गई
अब तरक़्क़ी की बयारें इस क़दर काबिज़ हुईं
पेड़ तो काटे जड़ों से कोपलों को खा गई
कुछ गवाही दे रही है मयक़दे की रहगुज़र
मयकशी हँसते हुये कितने घरों को खा गई
भूख से बेहाल…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 19, 2019 at 2:29pm — 9 Comments
‘सीते ---- ?’
‘कौन --- स्वामी ?’
‘नही मैं अभाग्य हूँ I’
‘ तो मुझसे क्या चाहती हो ?’
‘मैं कुछ चाहती नहीं , मैं तो तुम्हे सावधान करने आयी हूँ I ‘
‘किस बात के लिए ?’
‘तुम्हारा राम से बिछोह होगा I…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 19, 2019 at 2:00pm — 6 Comments
करो कितना विवेचन
शैलियों , पांडित्य का, लेकिन
भावों के धरातल पर ही
गौतम बुद्ध बनते हैं
हुए तर्कों , वितर्कों से परे
वे शुद्ध हो गए
प्रकृति के सब प्रपंचों से
निरुद्ध , प्रबुद्ध हो गए
जो खेलें दूसरों की गरिमा से
उन्मत्त होते हैं
सदा जो प्रेम से भरपूर
वे ही सन्त होते हैं
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on September 18, 2019 at 10:30pm — 1 Comment
२२२२/२२२२/२२२
अश्क पलक से भीतर रखना सीख लिया
गम थे बेढब फिर भी हँसना सीख लिया।१।
जख्म दिए हैं जब से हँसकर फूलों ने
काँटों को भी फूल हैं कहना सीख लिया।२।
कदम- कदम पर खंजर रक्खे अपनों ने
हम भी शातिर जिन पर चलना सीख लिया।३।
दीप बुझा करते है जिसके चलने पर
उस आँधी से हमने जलना सीख लिया।४।
उनकी कोशिश थी पत्थर से अटल रहें
नदिया बनकर हम ने बहना सीख लिया।५।
मौलिक/अप्रकाशित
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 18, 2019 at 7:29pm — 4 Comments
"अब गांव चलें बहुत दिन बिता लिए यहाँ", शोभाराम ने जब पत्नी ललिता से कहा तो जैसे उनके मुंह की बात ही छीन ली.
लेकिन बेटे और बहू से क्या कहेंगे, गांव पर तो कोई रहता नहीं था,पट्टीदारों के अलावा. वैसे वहां पर अपने हिसाब से जीने की आज़ादी थी लेकिन यहाँ भी तो है ही, कोई बंधन नहीं है. उनके दिमाग में कई दिनों से यह सब घूम रहा था.
"अच्छा यह बताओ, आखिर क्या कह कर गांव जाओगे. बेटा तो यही कहकर शहर लाया था कि गांव में अकेले रहते हैं, कौन है जो आपका अकेलापन बाँटने के लिए", ललिता के सवाल पर लाजवाब हो…
Added by विनय कुमार on September 17, 2019 at 7:36pm — 6 Comments
एक नेता ने दूसरे को धोया ,
बदले में उसने उसे धो दिया।
छवि दोनों की साफ़ हो गई।।.......1.
मातृ-भाषा हिंदी दिवस ,
एक उत्सव हम ऐसा मनाते हैं ,
जिसमें हम हिंदी बोलने वालों से
उनकीं माँ का परिचय कराते हैं।। .......2 .
अपनों से हट के कभी
दूर के लोगों से भी मिला करो ,
वो कुछ देगा नहीं ... ,
हाँ ,धोखा भी नहीं देगा।l ....... 3 .
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on September 17, 2019 at 10:30am — 8 Comments
हिंदी...... कुछ क्षणिकाएं :
फल फूल रही है
हिंदी के लिबास में
आज भी
अंग्रेज़ी
वर्णमाला का
ज्ञान नहीं
शब्दों की
पहचान नहीं
क्या
ये हिंदी का
अपमान नहीं
शोर है
ऐ बी सी का
आज भी
क ख ग के
मोहल्ले में
शेक्सपियर
बहुत मिल जायेंगे
मगर
हिंदी को संवारने वाले
प्रेमचंद हम
कहाँ पाएँगे
हम आज़ाद
फिर हिंदी क्यूँ
हिंग्लिश की…
Added by Sushil Sarna on September 16, 2019 at 4:07pm — 10 Comments
भीतर तुम्हारे
है एक बहुत बड़ा कमरा
मानो वहीं है संसार तुम्हारा
वेदना, अतृप्ति, विरह और विषमता
काले-काले मेघ और दुखद ठहराव
इन सब से भरा यह कमरा बुलाता है तुमको
जानती हूँ यह भी कि इस कमरे से तुम्हारा
रहा है बहुत पुराना गहरा गोपनीय रिश्ता
इस आभासी दुनिया के मिथ्यात्व से दूर होने को
तुम कभी भी किसी भी पल धीरे हलके-हलके
अपराध-भाव-ग्रस्त मानों फांसी के फंदे पर झूलते
बिना कुछ बोले उस कमरे में जब भी…
ContinueAdded by vijay nikore on September 16, 2019 at 9:39am — 6 Comments
जुबां से फूल झड़ते हैं मगर पत्थर उछालें वे
गजब दिलदार हैं, महबूब हैं बस खार पालें वे।1
लगाते आग पानी में, हमेशा ही लगे रहते
बुझे क्यूँ रार की बाती, नई तीली निकालें वे।2
दिलों की आग जब उठकर दिलों को यूँ बुलाती है
करेंगे और क्या बस शीत जल हर बार डालें वे।3
समझना हो गया मुश्किल चलन अब के रफ़ीकों का
सियाही लिख नहीं सकती है' कितना रोज सालें वे।4
हकीकत फासलों में कैद होकर छटपटाती है
सुनेंगे तो नहीं कुछ गाल जितना भी बजालें वे।5
"मौलिक व…
Added by Manan Kumar singh on September 16, 2019 at 8:10am — 6 Comments
ये ज़ीस्त रोज़ सूरत-ए-गुलरेज़ हो जनाब
राह-ए-गुनाह से सदा परहेज़ हो जनाब
**
मंज़िल कहाँ से आपके चूमें क़दम कभी
कोशिश ही जब तलक न जुनूँ-ख़ेज़ हो जनाब
**
क्या लुत्फ़ ज़िंदगी का लिया आपने अगर
मक़सद ही ज़िंदगी का न तबरेज़ हो जनाब
**
मुमकिन कहाँ कि ज़िंदगी की पीठ पर कभी
लगती किसी के ग़म की न महमेज़ हो जनाब
**
उस जा पे फ़स्ल बोने की ज़हमत न कीजिये
जिस जा अगर ज़मीं ही न ज़रखेज़ हो…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on September 15, 2019 at 4:00pm — 2 Comments
Added by डॉ छोटेलाल सिंह on September 14, 2019 at 8:15pm — 4 Comments
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