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क्या सोचते हैं हम — डॉo विजय शंकर

सोचता हूँ ,
अब तो यह भी सोचना पड़ेगा
कि कैसे सोचते हैं हम ?
कितनी सीमाओं में सोचते हैं हम ?
या किस सीमा तक सोचते हैं हम ?
कुछ सोचते भी हैं हम ?
अगर नहीं तो क्यों नहीं सोचते हैं हम ?
सच तो यह है कि ' बिना विचारे जो करे ' .....
भी नहीं सोचते हैं हम।
खुद में गज़ब का विश्वास रखते है हम ?
बस सोचने में क्रियाशील रहते हैं हम ,
जितनी तेजी से आगे जाते हैं
उतनी हे तेजी से लौट आते हैं।
नतीज़तन वहीं के वहीं रह जाते हैं हम।
दावा करते हैं , चलते रहते हम ,
लगातार चलते रहते हैं हम।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on September 28, 2019 at 9:09pm

आभार एवं धन्यवाद , आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी , सादर।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 28, 2019 at 5:51pm

बहुत ही बढ़िया कविता हुई आदरणीय

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 27, 2019 at 7:33am

आदरणीय लक्षमण धामी जी , रचना पर आपकी उपस्थिति एवं बधाई के लिए आभार एवं धन्यवाद , सादर।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 26, 2019 at 11:54am

आ. भाई विजय जी, सुंदर प्रस्तुति हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 25, 2019 at 7:43pm

आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार , आपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साह वर्धक होती है , मुझे सदैव यही लगता है कि हर बात में key word एक या दो ही होते हैं , उसी में सम्पूर्ण दर्शन निहित होता है , वैसा ही प्रयास करता हूँ , मनीषी और विद्वान लोग पकड़ लेते हैं , सौभाग्य है। आपका ह्रदय से आभार , बधाई के लिए धन्यवाद , सादर।

Comment by Samar kabeer on September 25, 2019 at 8:13am

आली जनाब डॉ. विजय शंकर जी आदाब, बहुत उम्द:,एक शब्द को बुनियाद बनाकर बहुत ख़ूब कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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