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मौत का भय है न जिनको जुल्म वो सहते नहीं-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122/2122/2122/212



है नहीं क्या स्थान जीवन भर ठहरने के लिए

जो शिखर चढ़ते हैं सब ही यूँ उतरने के लिए।१।

*

स्वप्न के ही साथ जीवन हो सजाना तो सुनो

भावना की  कूचियाँ  हों  रंग  भरने के लिए।२।

*

ये जगत बैठा के खुश हैं लोग यूँ बारूद पर

भेज दी है अक्ल सबने घास चरने के लिए।३।

*

खिल के आयेगी हिना भी सूखने तो दे सनम

रंग लेता  है  समय  कुछ  यूँ  उभरने के लिए।४।

*

मौत का भय है न जिनको जुल्म वो सहते नहीं

जिन्दगी का  लोभ  काफी  यार …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 23, 2021 at 7:18pm — 8 Comments

जो नहीं है यार तू पास में तो न रंग-ए-फ़स्ल-ए-बहार हैं (135 )

ग़ज़ल( 11212 11212 11212 11212 )
जो नहीं है यार तू पास में तो न रंग-ए-फ़स्ल-ए-बहार हैं
न है बर्ग-ए-गुल न शमीम-ए-गुल मेरी ज़ीस्त में बचे ख़ार हैं
**
तेरे हिज्र से जो मिले हैं ग़म वही दौलतें हैं मेरी सनम
मेरी फ़िक्र का है सबब तो बस ये बढे हुए ग़म-ए-यार हैं
**
मेरे वास्ते है तू नाज़नीं बड़ी दिलनशीं लगे महज़बीं
अरे…
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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 22, 2021 at 11:30pm — 3 Comments

जो भी ज़िक्रे ख़ुदा नहीं करते

जो भी ज़िक्रे ख़ुदा नहीं करते

वो किसी के हुआ नहीं करते



नेमतें पा के लोग क्युं आख़िर

शुक्रे ख़ालिक़ अदा नहीं करते



राहे हक़ पर जो गामज़न हैं बशर

वो किसी का बुरा नहीं करते



दिल मेरा ग़मज़दा नहीं होता

वो जो मुझसे दग़ा नहीं करते



जाने क्या हो गया है अब उनको

मुझसे हँस कर मिला नहीं करते



याद आती नहीं अगर उन की

हम कभी रत-जगा नहीं करते



लाख कोशिश करो मिटाने की

नक़्शे उल्फ़त मिटा नहीं करते



ज़ुल्म से 'नाज़'… Continue

Added by Mamta gupta on June 22, 2021 at 1:22pm — 10 Comments

दम नहीं रहा मेरे यार मे.....( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

212. 12. 212. 12.



दम नहीं रहा मेरे यार में

क्या रखा फिर जीत हार में (1)



कह रहा है वो मन को क़ैद कर

जो नहीं मिरे इख़्तियार में (2)



वस्ल की घड़ी ख़्वाब बन गई

उम्र कट गई इंतिज़ार में (3)



सुब्ह आएगा वो यक़ीन है

शब कटी इसी एतिबार में (4)



सामने मिरे भीख बट रही

रह गया खड़ा मैं क़तार में (5)



क्या ख़िज़ाँ ने ही दी है बद्दुआ

फूल मर गए इस बहार में (6)



धूप में सदा पूछते रहे

प्यास क्यों लगी रेगज़ार में… Continue

Added by सालिक गणवीर on June 20, 2021 at 10:54pm — 6 Comments

ग़ज़ल ( हो के पशेमाँ याद करोगे)

2222 - 2222 

हो के  पशेमाँ  याद  करोगे  

रो कर भी  फ़रियाद करोगे

याद करोगे जब भी हमको  

अश्क़ अपने बरबाद करोगे 

ज़ख़्म लगेंगे  जब फूलों से   

तुम हमको तब याद करोगे 

घर तो बसा लोगे यारो पर 

दिल  कैसे आबाद  करोगे 

उतनी दुआएं  दूँगा  तुमको 

जितना मुझे बरबाद करोगे 

बज़्म तुम्हारी हुक्म तुम्हारा

जो  चाहे    इरशाद  करोगे 

मेरी ख़ातिर छोड़ो भी…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on June 20, 2021 at 9:00pm — 4 Comments

सर पर पिता का हाथ है जिसके बना हुआ - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२



इज्जत हमारी उनसे ही पहचान जग में है

सच है हमारा तात से सम्मान जग में है।१।

*

वंदन उन्हीं के चरणों का करते हैं उठते ही

आशीष उन का ईश का वरदान जग में है।२।

*

मागें भला क्या ईश से मालूम हमको सब

माता पिता के रूप में भगवान जग में है।३।

*

सर पर पिता का हाथ है जिसके बना हुआ

वो सच स्वयं नसीब से धनवान जग में है।४।

*

हमको जहाँ के खेल का अनुभव नहीं कोई

जीना उन्हीं की सीख से आसान जग में है।५।

*

ये खेल ये…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 18, 2021 at 7:04pm — 6 Comments

मुहब्बत की हमारी आख़री मंज़िल तुम्हीं तो थे (134 )

ग़ज़ल ( 1222 1222 1222 1222 )
मुहब्बत की हमारी आख़री मंज़िल तुम्हीं तो थे
सफ़र भी तुम मुसाफ़िर तुम मक़ाम-ए-दिल तुम्हीं तो थे
**
अकेलेपन के साथी हो अभी तक याद में ढलकर
मुसीबत में ख़ुशी में बारहा शामिल तुम्हीं तो थे
**
हथेली की लकीरों को नुज़ूमी को दिखाते क्या
तुम्हीं कल थे हमारा और मुस्तक़्बिल तुम्हीं तो…
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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 17, 2021 at 8:30pm — 5 Comments

सत्तर बरस में बचपना इसका गया नहीं-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

221, 2121, 1221, 212

तैराक खुद को जाँचने पानी में आयेगा

तब ही नया सा मोड़ कहानी में आयेगा।१।

*

तुमको सफर मिला भी तो रस्ता बुहार के

रोड़ा न अब  के  कोई  रवानी  में आयेगा।२।

*

सत्तर बरस में बचपना इसका गया नहीं

कब देश अपना यार  जवानी में आयेगा।३।

*

सोने की चिड़िया फिर से कहायेगा देश ये

जब दौर सुनहरा  सा  किसानी में आयेगा।४।

*

देती…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 17, 2021 at 6:30am — 4 Comments

इस को जरूरी रात में कोई जगा रहे-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२

चाहत नहीं कि सब से ही मिलती दुआ रहे

केवल जगत  में  शौक  से  नेकी  बचा रहे।१।

*

हम को कहो  न  आप  गुनाहों का देवता

पापों की गठरी आप की हम ही जला रहे।२।

*

चाहत सभी को नींद जो आये सुकून की

इस को  जरूरी  रात  में  कोई  जगा रहे।३।

*

माना बुरे हैं  दाग  भी हमको लगे हैं पर

वो ही उठाये उँगली जो केवल भला रहे।४।

*

अपनी ही आखें बन्द हैं मानो ये साथियो

अच्छे दिनों को खूब वो कब से दिखा रहे।५।

*

झगड़ा न…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 16, 2021 at 4:32am — 7 Comments

ग़ज़ल: उठाकर शहंशाह क़लम बोलता है

122 122 122 122

उठाकर शहंशह क़लम बोलता है

चढ़ा दो जो सूली पे ग़म बोलता है

ये फरियाद लेकर चला आया है जो

ये काफ़िर बहुत दम ब दम बोलता है

जुबाँ काट दो उसकी हद को बता दो

बड़ा कर जो कद को ख़दम बोलता है

गँवारों की वस्ती है कहता है ज़ालिम

किसे नीच ढा कर सितम बोलता है

बिठाता है सर पर उठाकर उसी को

जो कर दो हर इक सर क़लम बोलता है

बड़ी बेबसी में है जीता वो ख़ादिम

बड़ाकर जो…

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Added by Aazi Tamaam on June 15, 2021 at 4:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल नूर की -ख़ुद को ऐसे सँवार कर जागा

ख़ुद को ऐसे सँवार कर जागा

यानी उस को पुकार कर जागा.   

.

एक अरसा गुज़ार कर जागा

ख्व़ाब में ख़ुद से हार कर जागा.

.

तेरी दुनिया बहुत नशीली थी

जिस्म को अपने पार कर जागा.

.

आंखें तस्वीर की बिगाड़ी थीं   

उनका काजल सुधार कर जागा.

.

ख़ुद-परस्ती में मैं उनींदा था  

फिर अना अपनी मार कर जागा.

.

शम्स ने तीरगी पहन ली थी

सुब’ह चोला उतार कर जागा.

.

रात भर आईने की आँखों में

दर्द अपने उभार कर जागा. …

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Added by Nilesh Shevgaonkar on June 15, 2021 at 9:30am — 8 Comments

ज़ुबान कुछ शिकायती भी कीजिए कभी कभी (133 )

ज़ुबान कुछ शिकायती भी कीजिए कभी कभी
निज़ाम से तनातनी भी कीजिए कभी कभी
**
हयात के लिए हैं दोस्त ख़ुश्क़ अश्क पुरख़तर
फुगाँ की रस्म अदायगी भी कीजिए कभी कभी
**
विसाल और हिज्र के मज़े भी हैं जुदा जुदा
सुपुर्द-ए-हिज्र ज़िंदगी भी कीजिए कभी कभी
**
कशीदगी गमों से हम निभा…
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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 14, 2021 at 4:00am — 4 Comments

रूंद गया बचपन...

गुमनाम अंधेरे में देखो भारत का भविष्य पल रहा

दो जून रोटी की खातिर कोमल बचपन सुबक रहा

कलम चलाने वाले नन्हे हाथ झूठन साफ कर रहे

बस्ते उठाने वाले कंधे परिवार का बोझ उठा रहे

माँ के आंचल का फूल दरबदर की गाली खा रहा

भूखे पेट अपमान का घूंट पीकर जीवन गुजार रहा

हंसने-खेलने-पढ़ने की उम्र में मजदूर बन गये

बचपन की किलकारी खो गई मांझते-धोते

निरीह तरस्ती ऑखें उठ रही कुछ आस में...

इंसानियत के ठेकेदारों नियमों को मान लो

मंझवाने से अच्छा कल का भविष्य मांझ…

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Added by babitagupta on June 10, 2021 at 3:30pm — No Comments

नग़मा: दिल

1222 1222 1222 1222

अज़ीब इस दिल की बातें हैं अज़ीब इसके तराने हैं

अज़ीब ही दर्द है इसका अज़ीब ही दास्तानें हैं

अज़ीब अंज़ाम है इसका अज़ीब आग़ाज़ करता है

अगर जो टूट भी जाये तो ना आवाज़ करता है

कभी सुरख़ाब करता है कभी बेताब करता है

दिल ए नादाँ............. दिल ए नादाँ...........

दिल ए नादाँ हर इक ख़्वाहिश को ही आदाब करता है

ये करतब कितनी आसानी से यारो दिल ये करता है

कभी ये ज़ख़्म देता है,…

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Added by Aazi Tamaam on June 10, 2021 at 10:23am — 2 Comments

ग़ज़ल नूर की - दिल लगाएँ, दिल जलाएँ, दिल को रुसवा हम करें

दिल लगाएँ, दिल जलाएँ, दिल को रुसवा हम करें

चार दिन की ज़िन्दगी में और क्या क्या हम करें?

.

एक दिन बौनों की बस्ती से गुज़रना क्या हुआ

चाहने वो यह लगे क़द अपना छोटा हम करें.

.

हाथ बेचे ज़ह’न बेचा और फिर ईमाँ बिका  

पेट की ख़ातिर भला अब और कितना हम करें?

.

चाहते हैं हम को पाना और झिझकते भी हैं वो  

मसअला यानी है उनका ख़ुद को सस्ता हम करें.

.

इक सितम से रू-ब-रु हैं पर ज़ुबां ख़ुलती नहीं

ये ज़माना चाहता है उस का चर्चा हम करें.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on June 8, 2021 at 12:00pm — 8 Comments

आश्वासन

एक आयु के उपरान्त

प्रेम मुदित तुम्हारा लौट आना

गुज़रती साँसों को मानो

संजीवनी की बूटी से

साँस नई दे देना

स्नेह का यह फल मीठा

और अति आनन्ददायक था…

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Added by vijay nikore on June 7, 2021 at 1:00pm — 8 Comments

कहता था हम से देश को आया सँभालने-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२



करता है जग में धर्म के लोगो न काम वो

लेकिन बताता नाम है सब को ही राम वो।१।

**

कहता था हम से देश को आया सँभालने

पर उजली भोर कर रहा देखो तो शाम वो।२।

**

महँगा हुआ है थाली में निर्धन का कौर भी

सेठों को  मुफ्त  बाँटता  हर दम ईनाम वो।३।

**

केवल उड़ायी  नींद  हो  ऐसा नहीं हुआ

सपने भी लूट ले गया सब के तमाम वो।४।

**

समझा न मन के दर्द को लोगो भले कभी

करता है मन की  बात  बहुत बेलगाम…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 7, 2021 at 7:08am — 5 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
पर्यावरण-दिवस के अवसर पर छ: दोहे // --सौरभ

आपाधापी, व्यस्तता, लस्त-पस्त दिन-रात

छोड़ इन्हें, आ चल सुनें, कली-फूल की बात ।



मन मारे चुप आज मैं.. सोचूँ अपना कौन..

बालकनी के फूल खिल, ढाँढस देते मौन !!



सांत्वना वाले हुए.. हाथ जभी से दूर ..

लगीं बोलने डालियाँ, 'मत होना मज़बूर' !!



जाने आये कौन कब, मन की थामे डोर

तुलसी मइया पोंछना, नम आँखों की कोर



फिर आया सूरज लिये, नई भोर का रूप

उठ ले अब अँगड़ाइयाँ, निकल काम पर धूप ! 

 

मन-जंगल उद्भ्रांत है, इसे चाहिए त्राण…

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Added by Saurabh Pandey on June 5, 2021 at 5:30pm — 10 Comments

थी अस्ल में सियाह वो रंगीन हम ने की.....( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

221 2121 1221 212

थी अस्ल में सियाह वो रंगीन हम ने की

कुछ इस तरह से रात की तज़ईन हम ने की (1)

उनकी नज़र के सामने गिरने से बच गए

कल आइने में अपनी ही तौहीन हम ने की (2)

अपने गिरोह में हमें शामिल तो कीजिए

लोगों ने दी हैं गालियाँ तहसीन हम ने की (3)

उस ने तो चीर फाड़ के क्या कर दिया इसे

पहलू में दिल नहीं था ये तस्कीन हम ने की (4)

सौ काम ठीक ठाक कीये आज तक मगर

ग़लती भी एक बारहा संगीन हम ने की…

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Added by सालिक गणवीर on June 5, 2021 at 9:00am — 10 Comments

कम है-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर" (गजल)

२१२२/२१२२/२१२२

गीत में सद् भावना का ज्वार कम है

सर्वहित की कामना का ज्वार कम है।१।

**

दे रहे  सब  सान्त्वना  पर  जानता हूँ

शुद्ध मन की प्रार्थना का ज्वार कम है।२।

**

सिद्ध कैसे  झट  से  होगी  योग  माया

आज साधक साधना का ज्वार कम है।३।

**

सत्य मर्यादा टिकेगी किस तरह अब

हर किसी में वर्जना का ज्वार कम है।४।

**

हर नगर श्मसान जैसा आज दिखता

किस नयन में वेदना का ज्वार कम है।५।

**…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 4, 2021 at 1:20pm — 11 Comments

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