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मुहतरमा ममता गुप्ता 'नाज़' जी, आदाब, ये ओ बी ओ के मंच की परिपाटी और भारतीय तहज़ीब नहीं है कि आपकी रचना पर आई समस्त टिप्पणीकारों की टिप्पणियों का जवाब न देकर कुछेक की टिप्पणियों का ही जवाब दे दिया जाए और शेष को नज़र-अंदाज़ कर दिया जाए। ये अत्यंत आपत्तिजनक व्यवस्था है। ये सीखने सिखाने का मंच है, सभी सम्मानित टिप्पणीकार / सदस्य आपके शुभाकांक्षी हैं, आपको स्वयं भी अपने लिए आम जीवन में भी यह व्यवस्था/ व्यवहार स्वीकार नहीं होगा। आशा है कि आप इसे अन्यथा नहीं लेंगी। सादर।
आ. ममताजी, गजल केप्रयास व ओबीओ परिवार में सम्मिलित होने होने के लिए हार्दिक बधाई।
मुहतरमा ममता गुप्ता 'नाज़' जी आदाब,ओबीओ पटल पर आपका स्वागत है ।
ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'जो भी ज़िक्रे ख़ुदा नहीं करते
वो किसी के हुआ नहीं करते'
मतले के ऊला में 'ज़िक्र-ए-ख़ुदा' ऐसे लिखें,और सानी उचित लगे तो यों कहें:-
'वो किसी से वफ़ा नहीं करते'
'नेमतें पा के लोग क्युं आख़िर
शुक्रे ख़ालिक़ अदा नहीं करते'
इस शैर के ऊला में 'क्युं' को "क्यों" कर लें,और सानी उचित लगे तो यों कहें:-
'शुक्र रब का अदा नहीं करते'
'ज़ुल्म से 'नाज़' हक़परस्त कभी
कोई शिकवा गिला नहीं करते'
आपका मक़्ते तार्किकता की दृष्टि से ग़लत है, हक़ परस्त तो सबसे पहले ज़ुल्म के ख़िलाफ़ होते हैं ,इस बिंदु पर ग़ौर करें ।
सादर प्रणाम आ ममता जी
अच्छी ग़ज़ल है
बाकी गुणीजनों की राय का अनुसरण करें और निखर जायेगी
मुहतरमा ममता गुप्ता 'नाज़' जी आदाब, बहतरीन रवानी के साथ अच्छी ग़ज़ल कही है, आपने उर्दू लफ़्ज़ों के इस्तेमाल का अच्छा मुज़ाहिरा किया है मुबारकबाद पेश करता हूँ। चन्द मशविरे पेश करने की जसारत कर रहा हूँ।
2122 - 1212 - 22
जो भी ज़िक्रे ख़ुदा नहीं करते
वो किसी के हुआ नहीं करते इस शे'र के मिसरों में रब्त नहीं है, मिसरा ए सानी बदलने की कोशिश करें।
दूसरे शे'र के ऊला मिसरे में 'क्युं' को 'क्यूँ' कर लें, सानी में 'शुक्रे ख़ालिक़' को 'शुक्र-ए-ख़ालिक़' लिखें।
तीसरे शे'र में 'राहे हक़' को 'राह-ए-हक़' लिखें
याद आती नहीं अगर उन की
हम कभी रत-जगा नहीं करते इस शे'र के शिल्प पर नज़र्-ए-सानी फ़रमाएँ। सादर।
अच्छी साफ-सुथरी ग़ज़ल है, आदरेया, बधाई !
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