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ग़ज़ल नूर की -ख़ुद को ऐसे सँवार कर जागा

ख़ुद को ऐसे सँवार कर जागा
यानी उस को पुकार कर जागा.   
.
एक अरसा गुज़ार कर जागा
ख्व़ाब में ख़ुद से हार कर जागा.
.
तेरी दुनिया बहुत नशीली थी
जिस्म को अपने पार कर जागा.
.
आंखें तस्वीर की बिगाड़ी थीं   
उनका काजल सुधार कर जागा.
.
ख़ुद-परस्ती में मैं उनींदा था  
फिर अना अपनी मार कर जागा.
.
शम्स ने तीरगी पहन ली थी
सुब’ह चोला उतार कर जागा.
.
रात भर आईने की आँखों में
दर्द अपने उभार कर जागा.
.
रात यादों की जेल टूट गयी
सारे मुजरिम फ़रार कर जागा..
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 23, 2021 at 10:28am

धन्यवाद आ. ममता जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 23, 2021 at 10:28am

धन्यवाद आ. समर सर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 23, 2021 at 10:28am

धन्यवाद आ. आज़ी तमाम भाई 

Comment by Mamta gupta on June 22, 2021 at 10:47am
बेहतरीन ग़ज़ल की बधाई
Comment by Samar kabeer on June 21, 2021 at 2:34pm

जनाब निलेश 'नूर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Aazi Tamaam on June 16, 2021 at 10:24am

सादर प्रणाम नीलेश सर

बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है

सहृदय बधाई

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 16, 2021 at 9:32am

धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 16, 2021 at 7:00am

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। खूबसूरत गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

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