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October 2017 Blog Posts (156)

दोहद के बारे में संक्षिप्त जानकारी

महाकवि  कालिदास ने  ‘मेघदूत ‘ खंड काव्य में  दोहद’  शब्द का प्रयोग किया है - 

रक्‍ताशोकश्‍चलकिसलय: केसरश्‍चात्र कान्‍त:

     प्रत्‍यासन्‍नौ कुरबकवृतेर्माधवीमण्डपस्‍य।

एक: सख्‍यास्‍तव सह मया वामपादाभिलाषी

     काङ्क्षत्‍वन्‍यो वदनमदिरां दोहदच्‍छद्मनास्‍या:।।

[उस क्रीड़ा-शैल में कुबरक…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 31, 2017 at 9:30pm — 5 Comments

मेरा वो घर मुझे मिला उजड़ा मुझे जो घर बसाना था

बह्र 1222/1222/1222/1222



अकेला ही रहा था मैं मेरा छप्पर उठाना था

हजारों लोग तब आये मेरा जब घर गिराना था



वो बोतल फेंक देते है गरम जब हो गया पानी

तड़पकर मर गया देखो जिसे पानी पिलाना था



तड़पकर और रो कर के बताओ क्या मिला तुमको

मोहब्बत थी तुम्हें हमसे नही तुमको छिपाना था



मुझे तो देखना ये था कि मेरे हीर कितने है

ये मैंने कब कहा था की मुझे रिश्ता निभाना था





तुम्हारी ही दुआओं का असर है माँ बुलंदी पर

जहाँ मैं आज पहुचा हूँ… Continue

Added by maharshi tripathi on October 31, 2017 at 4:00pm — 3 Comments

बेहाल जिन्दगी

बेहाल जिन्दगी



बिखरे सूखे पत्तों के बीच

फूस की झोपड़ी में

बेहाल जिन्दगी

अटकी साँसे

दुहाई दे रही थीं

सिर्फ जीने के लिए

दूर स्थित खेत में

कुछ काले श्वान

दूषित मटमैले

चेहरों पर भौंक रहे थे

बार बार गूँजती आवाज

सहमा डरा चेहरा

बहुत निराश

कम्पित भयावहता के बीच

कुछ टूटे फूटे बर्तन

बिखरे पड़े इधर उधर

बहते अश्रुओं के बीच

कोस रहे थे

अपनी बदनसीबी पर

निरीह आँखे निहार रही थी

ऊँचे मुंडेर… Continue

Added by डॉ छोटेलाल सिंह on October 31, 2017 at 12:23pm — 18 Comments

ग़ज़ल-कभी दुख कभी सुख, दुआ चाहता हूँ (संशोधित )

तरही ग़ज़ल  अल्लामा इकबाल जी का  मिसरा 

“ तेरे इश्क की इम्तिहाँ चाहता हूँ “

काफिया : आ ; रदीफ़ :चाहता हूँ

बहर : १२२  १२२  १२२  १२२

*****************************

कभी दुख कभी सुख, दुआ चाहता हूँ

इनायत तेरी आजमा चाहता हूँ |

'वफ़ाओं के बदले वफ़ा चाहता हूँ

तेरे इश्क की इम्तिहा चाहता हूँ |

जो’ भी कोशिशे की हुई सब विफल अब

हूँ’ बेघर मैं’ अब आसरा चाहता हूँ |

ज़माना हमेशा छकाया मुझे है

अभी…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on October 31, 2017 at 11:00am — 5 Comments

फूलों की लड़ाई ( कविता)

देखी एक दिन फूलों की लडाई 

रहते थे अब तक जो बन भाई - भाई |

काँटों से निकल कर गुलाब बोला 

सूरज ने जब रात का पट खोला 

मेरी खुशबू से खिलता है बाग़

समाज जाते हैं लोग खिल गया गुलाब

सुन रहे थे यह और भी फूल कई 

नहीं हैं हम भी मिटटी या धूल कोई 

बाग में हो रही थी सबकी बहस 

हो रहा था बाग तहस नहस 

कीचड़ से कमल खिल उठा 

देख सबको वह बोल उठा 

देखो खुद को , सोचो तो…

Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 30, 2017 at 10:18pm — 7 Comments

कविता...​​ बदले हुये इंसान की बातें -बृजेश कुमार 'ब्रज'

सुबह से लेकर सांझ की बातें

इक खत में कैसे लिख दूँ

सूरज से लेकर चांद की बातें

इक खत में कैसे लिख दूँ



कैसे लिख दूँ मैं भँवरे का

कलियों से हुआ जो प्रेम मिलन

कैसे लिख दूँ कि बेलों ने

पेड़ों को बाँधा था आलिंगन

प्रीत पतिंगा दिए से करे

पगले के बलिदान की बातें

इक खत में कैसे लिख दूँ

जीवन और शमशान की बातें

इक खत में कैसे लिख दूँ



कैसे लिख दूँ की तुम बिन

उदास आँखों का दरपन

रूठी ​​हुई बहारें हैं

उजड़ा हुआ है… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 30, 2017 at 8:39pm — 7 Comments

मुझे संसार में आने दो .....

मुझे संसार में आने दो .....

ठहरो !

पहले मैं अपनी बेनामी को नाम दे दूँ

गर्भ के रिश्ते को

दुनियावी अंजाम दे दूँ

जानती हूँ

जब

तुम मुझे जान जाओगे

बिना समय नष्ट किये

मुझे गर्भ से ही

कहीं दूर ले जाओगे

कूड़ेदान

कंटीली झाड़ियों

या फिर किसी नदी,कुऍं में

या किसी बड़े से पत्थर के नीचे

दूर रेगिस्तान में

फेंक आओगे

जहां से तुम्हें

मेरी चीख भी सुनायी न देगी

इसके बाद

तुम चैन की नींद सो…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 30, 2017 at 6:49pm — 6 Comments

जुलाहा ....

जुलाहा ....

मैं
एक जुलाहा बन
साँसों के धागों से
सपनों को बुनता रहा
मगर

मेरी चादर
किसी के स्वप्न की
ओढ़नी न बन सकी
जीवन का कैनवास
अभिशप्त सा  बीत गया
पथ की गर्द में
निज अस्तित्व
विलीन हुआ
श्वासों का सफर
महीन हुआ
मैं जुलाहा
फिर भी
सपनों की चादर
बुनता रहा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 30, 2017 at 12:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल - करते हैं चोरी पर चोरी क्या कहने

फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फा
22 22 22 22 22 2
करते हो चोरी पर चोरी क्या कहने।
ऊपर से ये सीनाजोरी क्या कहनै।

बातें तो करते हो बढ़चढ़कर लेकिन,
बातें हैं कोरी की कोरी क्या कहने।

लाँघ न पाई अपने घर की जो देहरी,
दौड़ रही वो गाँव की गोरी क्या कहने।

कार्टून फिल्में क्या आईं टीवी में,
बच्चे भूले माँ की लोरी क्या कहने।

कल जो साधू सन्त दिखाई देते थे,
वे सब निकले आज अघोरी क्या कहने।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 29, 2017 at 10:00pm — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
तन पत्थर है मन पत्थर (एक छोटी बह्र की ग़ज़ल 'राज')

२२ २२ २२ २

खुद ही काटे अपने  पर

क्या धरती अब क्या अम्बर

 

कोई खिड़की न कोई दर

कितना उम्दा अपना  घर

 

दुनिया तेरी धरती पर  

अपनी हद बस ये गज भर

 

बंद कफ़स हो चाहे खुला

तुझको अब कैसा है डर

 

सारा आलम  रख ले तू

मेरी अब परवाह  न कर

 

मेरी अपनी मंजिल है

तेरी अपनी राह गुज़र   

 

बेजा  अब हैं तीर तेरे  

तन पत्थर है मन पत्थर 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by rajesh kumari on October 29, 2017 at 8:44pm — 17 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
तरही ग़ज़ल - " पहले ये बतला दो उस ने छुप कर तीर चलाए तो '‘ ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22 22  22 2

वो जितना गिरता है उतना ही कोई गिर जाये तो

उसकी ही भाषा में उसको सच कोई समझाये तो

 

सूरज से कहना, मत निकले या बदली में छिप जाये

जुगनू जल के अर्थ उजाले का सबको समझाये तो

 

मैं मानूँगा ईद, दीवाली, और मना लूँ होली भी   

ग़लती करके यार मेरा इक दिन ख़ुद पे शरमाये तो

 

तेरी ख़ातिर ख़ामोशी की मैं तो क़समें खा लूँ, पर  

कोई सियासी ओछी बातों से मुझको उकसाये तो

 

कहा तुम्हारा मैनें माना,…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on October 29, 2017 at 6:11pm — 25 Comments

बातों ही बातों में उनसे प्यार हुआ - सलीम रज़ा रीवा

22 22 22 22 22 2 ..

बातों ही बातों में उनसे प्यार  हुआ.

ये मत  पूछो  कैसे कब इक़रार हुआ

.      

जब से आँखें उनसे मेरी चार हुईं.

तब से मेरा जीना भी दुश्वार हुआ

.

वो शरमाएँ जैसे  शरमाएँ…

Continue

Added by SALIM RAZA REWA on October 29, 2017 at 8:30am — 21 Comments

ग़ज़ल -- दूर कर बद-गुमानी मेरी // दिनेश कुमार

212---212---212



दूर कर बदगुमानी मेरी

ख़त्म हो सरगरानी मेरी



मेरे जीवन से तुम क्या गए

खो गई शादमानी मेरी



अब न आएगी ये लौटकर

जा रही है जवानी मेरी



बीती बातों पे ये बारहा

व्यर्थ की नोहा ख़्वानी मेरी



ग़म के दरिया में रक्खा है क्या

भूल जाओ कहानी मेरी



गुल खिलाएगी कोई नया

एक दिन हक़-बयानी मेरी



ऐ मेरे जिस्म ! ऊबा हूँ मैं

अब न कर मेज़बानी मेरी



मौलिक व… Continue

Added by दिनेश कुमार on October 29, 2017 at 7:14am — 11 Comments

कारसाज - लघुकथा

'कारसाज'



           "जनाब, गर आप को ऐतराज न हो तो एक बात कहना चाहता हूँ।" खान साहब के केबिन से बाहर जाते ही उनके एडिटर ने अपना रुख मेरी ओर किया था।

"अनवर मियाँ, आप यहां वर्षों से काम कर रहे है और खान साहब की तरह मैं भी आपको बहुत मान देता हूँ। आप बेहिचक अपनी बात मुझसे कह सकते है।" मैं मुस्करा दिया।

"जनाब बात ही कुछ ऐसी है कि कहने में हिचक हो रही है।" अनवर मियां कुछ पशोपश में थे। "दरअसल अभी हाल ही में जो किस्से-कहानी के मद्देनजर हमारे पब्लिकेशन ने…

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Added by VIRENDER VEER MEHTA on October 28, 2017 at 12:54pm — 1 Comment

कविता- जी एस टी

कविता- जी एस टी
 
मैं सो रही थी मुझे उठाया गया,
नींद में ही गाडी में बैठाया गया !
होश में आती उससे पहले ही बताया गया, 
व्यापारियों का खून चूसने जीएसटी लगाया गया !
 
अधिकारी के दफ़्तर संग लाया गया,
टेक्स का सारा…
Continue

Added by जयति जैन "नूतन" on October 27, 2017 at 11:39pm — 1 Comment

स्त्री सी मिस्ट्री (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

कुछ तो नया मिल जाए, अपना कुछ रूप-रंग बदल जाये, किसी तरह तो पागल-दीवानों को संतुष्ट किया जाये। इसी सोच के साथ वे सब आज फिर इंतज़ार में थीं, किसी नये अवतार में ढलने के लिए। एक-दूसरे के हालात का जायज़ा लेते हुए उनके बीच विचार विमर्श चल रहा था।

"इन लोगों को तो बस भाषण देना या राग अलापना आता है, बस!"

"करते वही हैं, जो फ़ैशन में है और जो विज्ञापनों में दिखाया, सिखाया जाता है!"

समूह में से दो क़लमों के संवाद सुनकर तीसरी ने कहा -"देशी तन में हमें विदेशी तकनीक के चोले पहनने पड़ते हैं। नई…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 27, 2017 at 1:00am — No Comments

खेल दिल का अजीब होता है.....संतोष

फ़ाइलातून मफ़ाइलुन फेलुन

खेल दिल का अजीब होता है
कौन किसके क़रीब होता है

प्यार मिलता,किसी को रुसवाई
अपना अपना नसीब होता है

काम आए बुरे समय में जो
वो ही सच्चा हबीब होता है

प्यार है जिसके पास वो इंसां
इस जहाँ में ग़रीब होता है

राज़ जिसको बता दिया दिल का
वो ही मेरा रक़ीब होता है
#संतोष
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by santosh khirwadkar on October 26, 2017 at 4:59pm — 12 Comments

लघुकथा - क़लम की ताक़त –

लघुकथा - क़लम की ताक़त –

 देश के मशहूर लेखक श्रीधर को सरकार की ओर से कुछ विशेष लेखन कार्य हेतु निमंत्रण पत्र आया। चूँकि सरकारी मामला था अतः श्रीधर उसकी अवहेलना नहीं कर सके और दरबार में हाज़िर हो गये।

सरकार के प्रधान ने श्रीधर से एकांत में चर्चा की,

"श्रीधर जी, हम चाहते हैं कि देश के समस्त नामचींन समाचार पत्र और  पत्रिकाओं में आप हमारे बारे में लिखें। हमारी उपलब्धियों का बखान करें"।

"सर जी, यह तो बहुत मामूली कार्य है। इसे तो कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा पत्रकार कर…

Continue

Added by TEJ VEER SINGH on October 26, 2017 at 12:00pm — 17 Comments

ग़ज़ल - इश्क में जार जार रोते हैं

फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

2122 1212 22



रात दिन बार बार रोते हैं।

इश्क में जार जार रोते हैं।



जब नशे में थे हम मज़े में थे,

जब से उतरा खुमार रोते हैं।



प्यार की अब पतंग नहीं उड़ती,

ठप्प है कारोबार रोते हैं।



आप से क्या मियाँ बताये हम

दिल हो जब बेकरार रोते हैं।



जब मैं रोता हूँ साथ में मेरे

सबके सब दोस्त यार रोते हैं।



वक्त बेवक्त उसके हाथों से,

जब भी पड़ती है मार रोते हैं।



अपने अपने सुभाव के… Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 26, 2017 at 5:50am — 17 Comments

कटाक्षिकाएँ

(1) घपला !
घोटाला !
सुर्खियाँ !
मीडिया !
जाँच आयोग !
पुन: जाँच आयोग !
परिणाम -
शून्य ! शून्य ! शून्य !!
(2) इन दिनों मैं
एक अजीबों गरीब
बीमारी का शिकार हूँ
लक्षण यह है कि -
समाजों में रहने और
इंसानों से डरने लगा हूँ ।
(3) हत्या ! लूट !!
बलात्कार ! बलवा !!
मुक़द्दमा !
तारीख़ें !
सज़ा !
जेलों में सुविधा ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on October 25, 2017 at 11:40pm — 12 Comments

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