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October 2017 Blog Posts (156)

दीप दान की थाती

नेह रचित इक बाती रखना

दीप दान की थाती रखना

 

जग के  अंकगणित में उलझे

कुछ सुलझे से कुछ अनसुलझे

गठबंधन कर संबंधों की

स्नेहिल परिमल पाती रखना

 

कुछ सहमी सी कुछ सकुचाई

जिनकी किस्मत थी धुंधलाई

मलिन बस्तियों के होठों पर

कलियाँ कुछ मुस्काती रखना

 

बंद खिडकियों को खुलवाकर

दहलीजों पर रंग सजाकर

जगमग बिजली की लड़ियों से

दीपमाल बतियाती रखना

 

मधुरिम मधुरिम अपनेपन…

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Added by vandana on October 14, 2017 at 9:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल "हाल-ए-दिल अपना कभी मैं कह न पाया"

2122 2122 2122

रोज जीना रोज मरना है सिखाया।
मुफ़लिसी ने पाठ ये अच्छा पढ़ाया।।

दोस्ती का अस्ल मतलब यूँ बताया।
हर कदम उसने सही रस्ता दिखाया।।

बाँटना दुख सुख कभी मुझको न आया।
हाल-ए-दिल अपना कभी मैं कह न पाया।।

ख़ुद ब ख़ुद इक दिन इशारे से बुलाया।
प्यार अपना इस तरह उसने जताया।।

वो भरोसा प्यार में करता कभी तो।
क्यो मुझे हर बार उसने आज़माया।।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by surender insan on October 14, 2017 at 8:30pm — 8 Comments

बीमार कविता

इन दिनों कविता को
थकान और कमज़ोरी है
रागात्मकता पर
हो रहे हैं
लगातार हमलें
काव्य-बोध न होने से
उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं
भाव , कल्पना न होने से
कभी-कभी चक्कर खाकर
औंधे मुँह गिर जाती है
जिव्हा भी लड़खड़ा रही है
अभिव्यक्ति न होने से
उसे बार-बार चक्कर आते हैं
सौंदर्यबोध न होने से
अंदर ही अंदर जैसे
उसे घुन लग गई है
क्या कविता भी
डायबिटीक नहीं हो गई है ?

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on October 14, 2017 at 12:00pm — 11 Comments

ग़ज़ल -कहीं वही तो’ नहीं वो बशर दिल-ओ-दिलदार

काफिया :अर ; रदीफ़ :दिल –ओ- दिलदार

बहर : १२१२  ११२२  १२१२  २२(१ )

कहीं वही तो’ नहीं वो बशर दिल-ओ-दिलदार

जिसे तलाशती’ मेरी नज़र दिल-ओ-दिलदार |

हवा के’ झोंके’ ज्यों’ आते सदा सनम मेरे  

नसीम शोख व महका मुखर दिल-ओ-दिलदार |

सूना उसे कई’ गोष्टी में’, फिर भी’ प्यासा मन

अज़ीज़ है वही आवाज़ हर दिल-ओ-दिलदार |

कभी हुई न समागम, कभी नहीं कुछ बात

हिजाब में सदा रहती मगर दिल-ओ–दिलदार |

गए विदेश को’ महबूब…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on October 14, 2017 at 10:00am — 8 Comments

तू गांधी की लाठी ले ले (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"सभ्यता की तरह तुम भी इतिहास और गांधी जैसे महापुरुषों की लाठियों के सहारे को हमारा सहारा मानने की भूल कर रही हो!" नयी पीढ़ी ने अपने देश की संस्कृति से कहा।

"भूल तो तुम कर रही हो, वैश्वीकरण के दौर में बिक रहे मुल्कों , उनके स्वार्थी नेताओं और बिके हुए बुद्धिजीवियों के बयानों और साजिशों में फंसकर!" संस्कृति ने अपने हाथों में थामी हुई लाठी चूमते हुए कहा - मसलन ये देखो, गांधी जी की लाठी! ये लाठी मेरे लिए उनके अनुभवों, विचारों और दर्शन की सुगठित प्रतीक है। किताबों, काग़ज़ों, चरखों, कलैंडरों से,… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 13, 2017 at 4:57pm — 13 Comments

ग़ज़ल : ज़रा  सोचिए दिल लगाने से पहले : SALIM RAZA REWA

122 122 122 122

....

महब्बत  की राहों  में जाने से पहले.

ज़रा  सोचिए  दिल  लगाने से पहले.

.

बहारों का इक शामियाना  बना  दो.

ख़िज़ाओं को गुलशन में आने से पहले.

.

गिरेबान में  झांक  कर अपने देखो.

किसी पर भी उंगली उठाने से पहले.

.

ग़रीबों की आहों से बचना है मुश्क़िल.

ये तुम सोच लो दिल दुखाने से पहले.

.

कभी चल के शोलों पे देखो रज़ा तुम.

महब्बत  की  बस्ती  जलाने से पहले.…

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Added by SALIM RAZA REWA on October 13, 2017 at 3:00pm — 17 Comments

सत्यमेव् जयते - डॉo विजय शंकर

सत्य के प्रति उनका समर्पण
झुठलाया नहीं जा सकता ,
सफलता उन्होंने चाहे कैसे ,
कितने ही झूठों से पायी हो ,
श्रेय सदैव सत्य को ही दिया।
अपनी हर जीत को सदैव
सत्य की जीत ही बताया।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on October 12, 2017 at 6:48pm — 10 Comments

तब सिवा परमेश्वर के औ'र जला है कौन-----गज़ल, पंकज मिश्र

2122 2122 2122 2122



धीरे धीरे दूर दुनिया से हुआ है कौन आख़िर

हौले हौले तेरी यादों में घुला है कौन आख़िर



आग के शोले जले जब भी हुआ उत्पात तब तब

इक सिवा परमेश्वर के औ'र जला है कौन आख़िर



ग्रन्थ लाखों और पढ़ने वाले अरबों लोग तो हैं

पर मुझे मिलता नहीं पढ़ कर जगा है कौन आख़िर



माँ पिता गुरु के चरण रज से रहा जो दूर है वो

पत्थरों के घर में प्रभु से मिल सका है कौन आख़िर



इक मधुर अहसास खश्बू से भरी है साँस 'पंकज'

धड़कनों से रागिनी बन कर… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 12, 2017 at 5:30pm — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
वक़्त ऐसी किताब माँगेगा (ग़ज़ल 'राज')

२१२२ १२१२  २२

जिन्दगी से जबाब माँगेगा

लम्हा लम्हा हिसाब माँगेगा

 

जिसमे लिक्खा हुआ गणित तेरा

वक़्त ऐसी किताब माँगेगा

 

देख तेरा खुला हुआ वो सबू

खाली प्याला शराब माँगेगा

 

रंग बदले भले कई मौसम

फूल अपना शबाब माँगेगा

 

कैद जिसके लिए किया जुगनू

कल वही माहताब माँगेगा

 

पाक नीयत से देखना उसको 

चाँद वरना निकाब माँगेगा

 

कैद तेरी किताब में अबतक

अपनी खुशबू गुलाब…

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Added by rajesh kumari on October 12, 2017 at 9:11am — 34 Comments

तरही गजल

1222 1222 122

कभी जिसमें कहीं अड़चन नहीं है
हो कुछ भी वो मग़र जीवन नहीं है

तराशा जाए तो पत्थर भी चमके
तपाए बिन कोई कुंदन नहीं है

बिना उलझे नहीं आता सुलझना
मज़ा ही क्या अगर उलझन नहीं है

अगर हैं जीतने की ख़्वाहिशें तो
न सोचो हारने का मन नहीं है

बहारें हर तरफ़ आने लगी हैं
खिला इक बस मेरा गुलशन नहीं है

नहीं अनबन, नहीं शिकवा ही कोई
*बस इतना है कि अब वो मन नहीं है*

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 11, 2017 at 11:30pm — 10 Comments

सवालों का पंछी सताता बहुत है-गीत

मुझे रात भर ये भगाता बहुत है।

सवालों का पंछी सताता बहुत है।।

कभी भूख से बिलबिलाता ये आए

कभी आँख पानी भरी ले के आए

कभी खूँ से लथपथ लुटी आबरू बन

तो आये कभी मेनका खूबरू बन

ये धड़कन को मेरी थकाता बहुत है

सवालों का पंछी सताता बहुत है।।1।।

कभी युद्ध की खुद वकालत करे ये

अचानक शहीदों की बेवा बने ये

कभी गर्भ अनचाहा कचरे में बनकर

मिले है कभी भ्रूण कन्या का बनकर

निगाहों को मेरी रुलाता बहुत…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 11, 2017 at 9:30pm — 4 Comments

है कौन....”संतोष”

अरकान:-फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़्इलातुन फेलुन



है कहाँ, कौन है,कैसा वो नज़र आता है

ख़ुद में कम मुझ में ज़ियादा वो नज़र आता है



क्या तअल्लुक़ है मेरा उससे बताऊँ कैसे

हर दुआ में मुझे चहरा वो नज़र आता है



तिश्नगी जब मुझे दीदार की तड़पाये तो

ऐसे हालात में दरया वो नज़र आता है



घेर लेते हैं मुझे जब भी अँधेरे ग़म के

मेरा हमदर्द अकेला वो नज़र आता है



तुमने पूछा कभी'संतोष'से जाकर यारो

किसलिये भीड़ में तन्हा वो नज़र आता है

#संतोष

(मौलिक… Continue

Added by santosh khirwadkar on October 11, 2017 at 8:53pm — 8 Comments

ग़ज़ल: बलराम धाकड़

1222-1222-1222-1222

जनम होगा तो क्या होगा मरण होगा तो क्या होगा

तिमिर से जब भरा अंतःकरण होगा तो क्या होगा



हरिक घर से यूँ सीता का हरण होगा तो क्या होगा

फिर उसपे राम का वो आचरण होगा तो क्या होगा



मेरे अहले वतन सोचो जो रण होगा तो क्या होगा

महामारी का फिर जब संक्रमण होगा तो क्या होगा



वो ही ख़ैरात बांटेंगे वो ही एहसां जताएंगे

विमानों से निज़ामों का भ्रमण होगा तो क्या होगा



जमा साहस है सदियों से हमारी देह में अबतक

नसों…

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Added by Balram Dhakar on October 11, 2017 at 6:00pm — 16 Comments

ग़ज़ल: फूंकने को इसे बिजलियाँ आगईं

212/212/212/212



याद तुमने किया हिचकियाँ आगईं

दिल की तस्कीन को बदलियाँ आगईं।



ज़ेर ए तामीर था ये नशेमन मेंरा

फू़ंकने को इसे बिजलियाँ आगईं।



तू नहीं आसका हाल तेरा मगर

लेके अख़बार की सुर्ख़ियाँ आगईं।



जब तड़प कर गुलों ने पुकारा उन्हें

लब हसीं चूमने तितलियाँ आ गईं।



गर्म साँसों की औढ़ा दो मुझको रिदा

लौट कर फिर वो ही सर्दियाँ आ गईं।



चाह दिल में तेरे वस्ल की जब जगी

लम्स तेरा लिये चिट्ठियाँ आ गईं।…



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Added by Afroz 'sahr' on October 11, 2017 at 5:30pm — 7 Comments

ग़ज़ल- हिंदी तुकांत के साथ एक प्रयोग (..अण ,, क़ाफ़िये पर संभवत: पहली ग़ज़ल है इस मंच पर)

२२/२२/२२/२२/



कर्म अगर साधारण होगा

कैसे नर...नारायण होगा.

.

सच्चाई की राह चुनी है

पग पग दोषारोपण होगा.

.

जिस के भीतर विष का घट है  

उस पर छद्म-आवरण होगा.

.

कठिनाई भी बहुत ढीठ है  

इस से जीवन भर रण होगा.

.

बस्ती बाद में सुलगाएँगे  

पहले प्रेम पे भाषण होगा.   

.

मन में दृढ़ विश्वास न हो फिर  

कैसे कष्ट निवारण होगा.

.

दसों दिशाओं में शासन है

शासक .. शायद रावण होगा.

.

उजड़ेगा…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 11, 2017 at 3:52pm — 29 Comments

मेघदूत (पूर्व मेघ खंड के 6 से 8 टेक छंदों का काव्यानुवाद)

विरहाकुल था दीन यक्ष उसको कुछ समझ नहीं आया

वारिवाह से गुह्य याचना ही करना उसको भाया

 

लोक-ख्यात पुष्कर-आवर्तक जलधर बड़े नाम वाले

उनके प्रिय वंशज हो तुम हे वारिवाह ! काले-काले

 

प्रकृति पुरुष तुम कामरूप तुम इन्द्रसखा तुमको जानूं

विधिवश प्रिय से हुआ दूर हूँ तुम्हे मीत हितकर मानूं

 

तुम यथार्थ परिजन्य मूर्त्त हो मैं…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 11, 2017 at 11:00am — 4 Comments

ग़ज़ल

2122 1212 22

उस से मिलकर तुझे हुआ क्या है ।

पूछते लोग माजरा क्या है ।।



सच बताने पे आप क्यूँ रोये ।

आइने से हुई ख़ता क्या है ।।



है तबस्सुम का राज क्या उनके ।

आंख में गौर से पढा क्या है ।।



अश्क़ हैं बेहिसाब हिस्से में ।

ज़श्न के वास्ते बचा क्या है ।।



इस तरह रोकिये नहीं मुझको ।

पूछिये मत मेरा पता क्या है ।।



आप मतलब की बात करते हैं ।

आपके साथ फायदा क्या है ।।



छोड़िये बात आप भी उसकी ।

उसकी बातों में… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on October 11, 2017 at 9:00am — 13 Comments

समय का चक्कर (कटाक्षिकाएँ)

(1) समय के
मोबाइल फोन पर
सिकुड़ती हुई
संवेदना के वायब्रेशन है ।
(2) समय के
जल की शिराओं में
भविष्य का दौड़ता
जल संकट है ।
(3) समय के
दाम्पत्य पर
अलगाव की
लकीरें है ।
(4) समय की कॉकटेल में
महानगर के
बीयर-बार में
नियॉन रोशनी में
तनाव मुक्ति की
शराब उडेली
जा रही है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on October 10, 2017 at 11:32pm — 16 Comments

जागे हिंदुस्तान/ गीत

जीवन डगर बहुत पथरीली

संभलो मनुज सुजान,

जागे हिंदुस्तान हमारा जागे हिंदुस्तान।



हिन्दू मुस्लिम भाई भाई प्रेम का धागा टूट गया।

न जाने कितनी माँगो का फिर से ईंगुर रूठ गया।

मानवता जब दानवता की चरण पादुका धोती है,

तभी मालदा वाली घटना तभी पूर्णिया रोती है।



धर्म के पहरेदारों बोलो,

कब लोगे संज्ञान।।

जागे--------



संस्कार की नींव हिल गयी बिका हुस्न बाजरों में।

कर्णधार जो बनकर आये लिप्त हुए व्यभिचारों में।

जाति पांति के भेदभाव…

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Added by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on October 10, 2017 at 9:30pm — 8 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
अम्बर के विस्तार सरीखे मेरे पापा // डॉ० प्राची

शुचित यज्ञ सी

मन प्राणों में घोल सुगन्धि,

आँगन में त्यौहार सरीखे मेरे पापा...



थाम अँगुलियाँ जिनकी

हर उलझी पगडण्डी लगी सरल सी,

ज़मी किरचियाँ व्यवहारों की

पिघल हृदय से बहीं तरल सी,



सबकी ख़ातिर बोए पग-पग

गुलमोहर और छाँटे कीकर,

सौंपी सबको ख़ुशियों की प्याली

ख़ुद पी हर व्यथा गरल सी,



फिर भी…

Continue

Added by Dr.Prachi Singh on October 10, 2017 at 9:30pm — 7 Comments

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