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March 2016 Blog Posts (166)

खट्टी डकारें(लघुकथा )राहिला

13-14 साल के कबाड़ी को कबाड़ तुलवा रहे सेठजी!लम्बी-लम्बी डकारों से परेशान हो रहे थे । जब कुछ ना सूझा तो पास ही खड़ी सेठानी पर झुंझला पड़े । "लगता है आजकल तरकारी में खुले हाथ से तेल मसाला उड़ेल रही हो!मार डाला इन खट्टी डकारों ने "

"अरे कैसी बात करते हैं सेठजी! तेल मसाले खाने से थोड़े ना खट्टी डकारें आती हैं!हम तो रोज ढ़ाबे पर ग्राहकों की बची तेल मसाले वाली तरकारी खाते हैं जुगाड़ से ।

चेहरे से चंचल बातूना लड़का!चहक के बोला ।

"अच्छा..!तो तू बहुत बड़ा जानकार है।तुझे बहुत पता है।"वह… Continue

Added by Rahila on March 5, 2016 at 12:41pm — 10 Comments

चले हैं छोड़ घर अपना - ग़ज़ल

1222    1222    1222    1222     1222



हुनर की बात है सबको गमों में यूँ हँसाना तो नहीं आता

सभी के हाथ यारो ये मुहब्बत का खजाना तो नहीं आता



है हसरत तो  हमारी भी  लगाएँ दिल  हसीनों से जमाने में

हमें पर नाज कमसिन का जरा भी यों उठाना तो नहीं आता



हमेशा  लौट आता कारवाँ गर्दिश  का जैसे दोस्तों फिर फिर

कि वैसे लौटकर फिर  से  बुलंदी का जमाना तो नहीं आता



लगेगी जिंदगी कैसे  सजा से हट   किसी ईनाम के जैसी

सभी को यार होठों पर तबस्सुम को सजाना तो नहीं…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 5, 2016 at 10:57am — 15 Comments

सत्य का सम्मान - डॉo विजय शंकर

सत्य का
सम्मान करते हैं ,
दूर से
प्रणाम करते हैं।
उसके पास आने से
डरते हैं।
जानते हैं ,
काट नहीं लेगा
पर झूठ
जो फैला रखा है
अपने चारों ओर
उसे दूर करने से
डरते हैं।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on March 5, 2016 at 9:43am — 7 Comments

ग़ज़ल-पंकज मिश्र

2212 121 1222 212



इतना कमाल हुस्न, दिखाया ही किसलिये।

होनी नही थी बात, बुलाया ही किसलिये।।



मौका नहीं था देना, इबादत का ग़र हमें।

बुत से भला नक़ाब, हटाया ही किस लिये।।



सुननी नहीं थी तुमको, अगर मेरी आरज़ू।

फिर नाम का भजन ये, सिखाया ही किसलिये।।



हम भूल ही गये थे, कि लेनी है साँस भी।

जब मारना ही था तो, जिलाया ही किसलिये।।



अरमान सब थे दफ़्न, सुकूँ में बहुत थे हम।

बर्बाद गुल था करना, खिलाया ही किसलिये।।



मौलिक…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 5, 2016 at 12:00am — 9 Comments

कौन है देख लें रो रहा कौन है

कौन है देख लें रो रहा कौन है

कौन है उस पे हँसता हुआ कौन है

कौन है लूट कर बन गया ज़िन्दगी

ज़िन्दगी ऐ तुझे भा गया कौन है

कौन है जिसका इक बार टूटे न दिल

दिल मुकम्मल जहाँ में बचा कौन है

कौन है ढूंढ़ता इक बशर बेखता

बेखता आज कल दिख रहा कौन है

कौन है आशना जो मिटा डाले ग़म

ग़म से रब के सिवा आशना कौन है

कौन है देखलूँ हू ब हू फूल सा

"फूल सा मुस्कुराता हुआ कौन है"

कौन है जान लें 'राज़' का…

Continue

Added by Vivek Raj on March 4, 2016 at 8:30pm — 5 Comments

मुस्कुरा भर देती हूँ .....

मुस्कुरा भर देती हूँ .....

कुछ तो है

तेरे मेरे मध्य

अव्यक्त सा //

शायद कोई शब्द

जो अभिव्यक्ति के लिए

अधरों पर छटपटा रहा हो //

या कोई पीछे छूटा पल

जो समय की आंधी में

अपने अहसासों को

बिखरने की वज़ह ढूंढ रहा हो //

या हृदय के अवगुंठन में

कोई उनींदी से चेतना

जो किसी के

स्नेह्पाश की प्रतीक्षा में

नयन दहलीज़ पर

अधलेटी सी बैठी हो //

क्या है आखिर

ये अव्यक्त और…

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Added by Sushil Sarna on March 4, 2016 at 3:19pm — 10 Comments

अभिव्यक्ति की आजादी

पढ़ते हुए बच्चे का अनमना मन

टूटती ध्यान मुद्रा

बेचैनी बदहवासी

उलझन अच्छे बुरे की परिभाषा

खोखला करती खाए जा रही थी .......

कर्म ज्ञान गीता महाभारत

रामायण राम-रावण

भय डर आतंक

राम राज्य देव-दानव…

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Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on March 4, 2016 at 11:00am — 6 Comments

अंतिम श्रृंगार (लघुकथा)

उसकी दाढ़ी बनाई गयी, नहलाया गया और नये कपडे पहना कर बेड़ियों में जकड़ लिया गया| जेलर उसके पास आया और पूछा, "तुम्हारी फांसी का वक्त हो गया है, कोई आखिरी इच्छा हो तो बताओ|"

उसका चेहरा तमतमा उठा और वो बोला, "इच्छा तो एक ही है-आज़ादी| शर्म आती है तुम जैसे हिन्दुस्तानियों पर, जिनके दिलों में यह इच्छा नहीं जागी|"

वो क्षण भर को रुका फिर कहा, “मेरी यह इच्छा पूरी कर दे, मैं इशारा करूँ, तभी मुझे फाँसी देना और मरने के ठीक बाद मुझे इस मिट्टी में फैंक देना फिर फंदा…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on March 4, 2016 at 7:30am — 11 Comments

हम भी होली खेलते जो होते अपने देश

हम भी होली खेलते जो होते अपने देश
विधि ने ऐसा वैर निकला भेज दिया परदेश
भेज दिया परदेश लेकिन भेजी न  सोगातें
अपने हिस्से में बस आई भूली बिसरी बातें
 …
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Added by amita tiwari on March 3, 2016 at 11:42pm — 7 Comments

उसी से दिल्लगी......

गज़ल............उसी से दिल्लगी...

बहरे रुक्न.....हज़ज़ मुसम्मन सालिग

दिखा कर रोशनी जिसने किया है सृष्टि को पावन.

सघन तम में बसी जिसने किया है सृष्टि को पावन.

रही चर्चा यही जिसने किया है सृष्टि को पावन.

नहीं मिलती फली जिसने किया है सृष्टि को पावन.

हवाओं में, गुबारों में, समन्दर में वही साया

कहे मुझको परी जिसने किया है सृष्टि को पावन.

दिवाकर सांझ से मिलकर सितारे रात से कहते

वही सबसे बली जिसने किया है…

Continue

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 3, 2016 at 10:12pm — 8 Comments

अनुराग

 छंद – वंशस्थ विलं

जगण तगण जगण रगण

121  221  121  212

 

जहाँ मनीषी प्रमुदा रहें सभी

जहां सुभाषी मधुरा प्रमत्त हों

जहां सुधा हो सरसा प्रवाहिता

वहां सदा है अनुराग राजता

 

उदार सारल्य स्वभाव में बसे

रहे मुदा निश्छलता नवीनता

सुकांति में हो कमनीयता घनी

वहां सदा है अनुराग राजता

 

वियोग में भी हिय की समीपता

नितांत तोषी मनसा समर्पिता

जहाँ शुभांगी पुरुषार्थ रक्षिता

वहां सदा है अनुराग…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 3, 2016 at 9:30pm — 2 Comments

बस इतनी सी चाहत(अतुकान्त कविता )

कहीं कुछ टूटता सा महसूस होता है

कहीं कोई डाली चटक सी जाती है

क्यों अस्तित्व खुद ही बिखर रहा है

हर शख्स जीवन से मुकर रहा है

बस एक धारा बनना चाहा

जो समेटे रहती ध्वनि कल-कल

बहती रहती सदा यूँ ही अविरल

सरोकार न होता जिसे सुख से

न दर्द  होता किसी दुःख से

पहचान न होती किसी पाप की  

न चाहत होती किसी पुण्य…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 3, 2016 at 4:30pm — 4 Comments

अभिमन्यु(अतुकांत कविता)

लड़ रहा वह युद्ध कबसे
पर थका कब?
घिर भी जाता अकेला
व्यूह में बेशस्त्र वह
हारता हिम्मत कहाँ?
लड़ता रहा बेखौफ वह
हाथ में पहिया भले टूटा हुआ
तो क्या हुआ?
हुंकारता दहला रहा वह
शूर वीरें को
जो बिके हर काल में
बेजुबां ही मर गये।
कैद मैं रहता कहाँ
फड़फड़ाता तोड़ता
भी वह कड़ी
रहता सदा ही मुक्त वह
जो कि परिंदा है।
लाख मारो मर नहीं सकता
'अभि' हर रोज जिंदा है।
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

Added by Manan Kumar singh on March 3, 2016 at 1:30pm — 4 Comments

दिल के अहसास :

मित्रो , आज दिनांक ०३. ०३. २०१६ को विवाह की ४०वीं वर्षगांठ के

अवसर पर अपने हमसफ़र को समर्पित दिल के अहसास :



मैं नहीं जानता

मेरे अलफ़ाज़

तेरे दिल की गहराईयों में

कब तक गूंजते हैं

मगर जब तेरी नज़र उठती है

मुझे अपने वुज़ूद का

अहसास होता है

जब तेरी पलक की नमी

मेरी पलक को छूती है

मुझे अपनी मुहब्बत का

अहसास होता है

जब तेरे सुर्ख लबों पे

मुस्कुराहट अंगड़ाई लेती है

मेरी धड़कनों को

तेरी करीबी का

अहसास होता है

जब…

Continue

Added by Sushil Sarna on March 3, 2016 at 12:36pm — 10 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
इतनी बड़ी भी ख्वाहिशें अच्छी नहीं होतीं (ग़ज़ल)......डॉ. प्राची

2212,2212,2212,22



अपनों के गम पर आतिशें अच्छी नहीं होतीं।

यूँ पीठ पीछे साजिशें अच्छी नहीं होतीं।



घर-बार रिश्तेदार सब हों दाँव पर, जिसमे

इतनी बड़ी भी ख्वाहिशें अच्छी नहीं होतीं।



कुछ बाँट पाओ बोझ तो साथी को आए चैन

दिन रात बस फरमाइशें अच्छी नहीं होतीं।



गर नीँव ही हो खोखली रिश्ते बचें क्या ख़ाक

मन में सुलगती रंज़िशें अच्छी नहीं होतीं।



सागर पुकारे प्यास रख, तो दौड़ती है वो

बहती नदी पर बंदिशें अच्छी नहीं… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on March 3, 2016 at 12:36pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गज़ल -अगर ग़लत है जहाँ में कोई, तो वो मैं हूँ --- गिरिराज भंडारी

1212  1122  1212  22/112

छिपा के बाहों में रक्खा था तीरगी ने मुझे

नज़र उठा के भी देखा न रोशनी ने मुझे

 

थका थका सा बदन है झुके झुके शाने

परीशाँ कर दिया इस दौरे ज़िन्दगी ने मुझे

 

गली से उनकी जो निकला तभी जहाँ का हुआ  

उसी गली में ही रक्खा था आशिक़ी ने मुझे

नज़र में रूह की सच्चाइयाँ पढ़ूँ कैसे

सिखा दिया है वही इल्म, बेबसी ने मुझें

 

रही तो चाह मेरी भी, तेरे क़रीब आता

तुझी से कर दिया है…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on March 3, 2016 at 10:00am — 15 Comments

ग़ज़ल (पास है वह कहाँ दूर है )

ग़ज़ल (पास है वह कहाँ दूर है )

--------------------------------------

212 -------212 --------212

जो तसव्वुर में मामूर है |

पास है वह कहाँ दूर  है |

आइने पर न तुहमत रखो

वह तो पहले से मग़रूर है |

मुस्करा उनके हर ज़ुल्म पर

यह ही उल्फ़त का दस्तूर है |

उनके दीदार का है असर

मेरे रुख पे न यूँ नूर है |

बे वफ़ाई है वह हुस्न की

जो ज़माने में मशहूर है |

छोड़ जाये गली किस…

Continue

Added by Tasdiq Ahmed Khan on March 1, 2016 at 9:04pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मार डालेगा तेरा गैर जबाबी होना (ग़ज़ल 'राज')

2122  1122   1122   22

शाम को झील के रुख़सार गुलाबी होना

 मिलके खुर्शीद से जज्बात रूहानी होना

 

उन्स की  मय से लबालब है ग़ज़ल का सागर

, डूबकर उसमे सुखनवर का शराबी होना 

 

बिन कहे छोड़ के जाना यूँ अकेले लिल्लाह

मार डालेगा तेरा गैर जबाबी होना

 

पाक उल्फत या मुहब्बत या इबादत समझो

कृष्ण की चाह में मीरा का दिवानी होना

 

वो मुहब्बत है कहाँ आज वो दिलदार कहाँ

चुन के दीवार में चुपचाप कहानी होना…

Continue

Added by rajesh kumari on March 1, 2016 at 8:40pm — 26 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
ऐसे हालात का इल्ज़ाम मुझे मत देना। (ग़ज़ल)....डॉ. प्राची

2122.1122.1122.22



तुम सजा सा कोई ईनाम मुझे मत देना।

प्यार का रुसवा सा अंजाम मुझे मत देना।



तुम पुकारो भी नहीं, और न कभी मैं आऊँ

ऐसे हालात का इल्ज़ाम मुझे मत देना।



अपना साया ही डराए मुझे तन्हाई में

इतनी सूनी भी कोई शाम मुझे मत देना।



तुम अगर ज़ह्र भी दो, हँस के उसे पी लूँ, पर

बेवफाई का गम-ए-जाम मुझे मत देना।



तेरी साँसों से जुड़ी हैं मेरी साँसे हमदम

रुखसती का कभी पैगाम मुझे मत देना।



मेरी पहचान बना दी है तमाशा… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on March 1, 2016 at 6:02pm — 7 Comments

वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का

जागो साथी समय नहीं है ये सोने का

 

बेहद मेहनतकश है पूँजी का सेवक अब

जागो वरना वक्त न पाओगे रोने का

 

मज़लूमों की ख़ातिर लड़े न सत्ता से यदि

अर्थ क्या रहा हम सब के इंसाँ होने का

 

अपने पापों का प्रायश्चित करते हम सब

ठेका अगर न देते गंगा को धोने का

 

‘सज्जन’ की मत मानो पढ़ लो भगत सिंह को

वक्त आ गया फिर से बंदूकें बोने…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2016 at 6:00pm — 14 Comments

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