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अहसास की ग़ज़ल

2×15

कोई दरिंदा घात लगाकर जब घर में ही बैठा हो,

सहमी हुई मासूम कली का कितना बड़ा दुपट्टा हो.

अपनी बीवी के अश्कों की वो भी कद्र नहीं करता,

जिसने मम्मी को बचपन में रोज सिसकते देखा हो.

वक्त जरूरत पर ये दुनिया बेपर्दा हो जाती है,

दुनिया वाले तू भी मुझ पर थोड़ा सा बेपर्दा हो.

मेरे बच्चों में इक बच्चा ऐसा भी हो मेरे ख़ुदा,

मेरे जैसा दिल हो उसका ,उसके जैसा दिखता हो.

हमने कल्पना ऐसी बगिया की जाने क्योंकर कर ली,…

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Added by मनोज अहसास on November 6, 2019 at 12:13am — 2 Comments

कुछ हाइकु :

कुछ हाइकु :

लोचन नीर
विरहन की पीर
घाव गंभीर

कागज़ी फूल
क्षण भर की भूल
शूल ही शूल

देह की माया
संग देह के सोया
देह का साया

झील का अंक
लहरों पर नाचे
नन्हा मयंक

यादों के डेरे
ख़ुशनुमा अँधेरे
भूले सवेरे

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on November 4, 2019 at 7:27pm — 10 Comments

धूल का परदा

ठण्डी गहरी चाँदनी

चिंताओं की पहचानी

काल-पीड़ित

अफ़सोस-भरी आवाज़ें ...

पेड़ों से उलझी रोशनी को

पत्तों की धब्बों-सी परछाई से 

प्रथक करते

अब महसूस यह होता है

सपनों में

सपनों की सपनों से बातें ही तो थीं

हमारा प्यार

या उभरता-काँपता

धूल का परदा था क्या

विश्वासों में पला हमारा प्यार

आईं

व्यथाओं की ज़रा-सी हवाएँ

धूल के परदे में झोल न पड़ी

वह तो यहाँ वहाँ

कण-कण जानें…

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Added by vijay nikore on November 4, 2019 at 5:15pm — 12 Comments

अकेलापन —डॉo विजय शंकर

जिंदगी जीने का मौक़ा ,

भीड़ से निकल कर मिलता है ,

माहौल कुछ इस कदर

असर करता है।

अकेले हों तो ख़ुद से बात

करने का मौक़ा मिलता है l

भीड़ में तो आदमी बस

दूसरों की सुनता है।

हर आदमी कोई न कोई

सवाल लिए मिलता है ,

आपको अपनी सुनाता है ,

फिर भी आपके जवाब

को कौन सुनता है ?

शायद इसीलिये अकेलापन

आपको बहुत कुछ सीखने

समझने का मौक़ा देता है।

जिंदगी जीने का मौक़ा तो

भीड़ से निकल कर ही मिलता है।

मौलिक…

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Added by Dr. Vijai Shanker on November 4, 2019 at 4:57pm — 14 Comments

काम

काम(लघुकथा)

***

"हम तुम्हें मुफ्त में सबकुछ देंगे", नेताजी ने एलान किया।

"मुफ्त में सबकुछ?" भीड़ से आवाज आई।

"हां। क्यों भरोसा नहीं तुमलोगों को?"

"अरे दे सको,तो काम दो सबको।"भीड़ से आवाज आई।

"हां, हां। काम चाहिए,काम।जैसे तुम्हे रोजगार मिले,औरों को भी दोगे,ऐसा बोलो।"भीड़ फिर से चिल्लाई।

"हम भी तो कुछ देने ही आए हैं।"

"जब सब कुछ देना ही है,तो फिर कुछ क्यों?हम बाद में ही मांगेंगे।तुम्हारा इस्तीफा भी,ज़रूरी हुआ तो।"

"ऐं?"नेताजी बगलें झांकने  लगे।

 "…

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Added by Manan Kumar singh on November 3, 2019 at 7:50pm — 5 Comments

मजदूर पर दोहे

कहने को मजदूर पर, नहीं आज मजबूर।

अपनी ताकत से सदा, करे दुखों को दूर।।

काम करे डटकर सदा, नहीं कभी आराम।

इसके श्रम से ही बने, महल अटारी धाम

जंगल या तालाब हो, रुके न फिर भी पाँव।

करता श्रम दिन-रात वो, देखे धूप न छाँव।।

कंकड़ पत्थर जोड़कर, देता उसको रूप।

निज तन चिंता छोड़कर, खाता दिन भर धूप।।

राह बनाता वो यहाँ, दुष्कर गिरि को काट।

अपने भुजबल से करे, सुंदर सरल ये बाट।।

मन निर्मल है तन कड़ा, लौह बना है…

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Added by Vivek Pandey Dwij on November 3, 2019 at 4:11pm — 7 Comments

कुण्डलिया (लोक पर्व "छठ पूजा")

अर्चन करने सूर्य का, चले व्रती सब घाट

छठ माँ के वरदान से, दमके खूब ललाट

दमके खूब ललाट, प्रकृति से ऊर्जा मिलती

हो निर्जल उपवास, मगर मुख आभा खिलती

शाम सुबह देें अर्घ्य, करें यश बल का अर्जन

चार दिनों का पर्व, करें सब मन से अर्चन।।

पूजा दीनानाथ की, डाला छठ के नाम

अस्त-उदय जब सूर्य हों, करते सभी प्रणाम

करते सभी प्रणाम, पहुँच कर नदी किनारे

भरकर दउरा सूप, अर्घ्य दें हर्षित सारे

प्रकृति प्रेम का पर्व, नहीं है जग में दूजा

अन्न…

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Added by नाथ सोनांचली on November 2, 2019 at 10:00pm — 6 Comments

पंक की कर मन्च  से आलोचना - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२



याद बीते कल का वो सुख क्यों करें

ऐसे दूना  अपना  ही  दुख  क्यों करें।१।



पंक की कर मन्च  से आलोचना

और गँदला बोलिए मुख क्यों करें।२।



छोड़  दुत्कारों  से  आये  तब  भला

उनके घर की ओर आमुख क्यों करें।३।



एक भी छाता  न  हो जिस शह्र में

बारिशें उस शह्र का रूख क्यों करें।४।



इसकी उनके  पास  में  जब  ना दवा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 2, 2019 at 5:07pm — 2 Comments

कहो, तुम पुरुष कौन?

काव्य-रुपी शब्दों का विनम्र समर्पण कविवर सुमित्रानंदन प॔त जी की कविता "कहो, तुम रूपसी कौन?" से प्रेरित हो मेरे द्वारा उनके सम्मान में किया गया एक प्रयास।

कहो, तुम पुरुष कौन?

निशक्त बतलाओ तो, क्या नाम दूँ तुम्हें ?

जान लो, पहचान लो, स्मरण कर लो,

प्रभावशाली, विराट, अखंडित,

अजेय एवं समृद्ध तुम।

हर क्षण रहे सुदृढ़, मजबूत और कर्मठ,

कुछ नहीं नामुमकिन, कठिन, दुष्कर।

प्रत्येक क्षण, रहे करनी सुदृढ़ व मजबूत,

कुछ नहीं नामुमकिन, कठिन, दुष्कर…

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Added by Usha on November 2, 2019 at 11:16am — 7 Comments

तेरा होना मेरा सर्जन है

मैं बीज पड़ा तेरे आँगन में

तेरी आर्द्रता से अंकुरण है

ये तन पौध बना फिर देख बढ़ा

तेरा होना मेरा सर्जन है।

कल-कल बहती हैं नदियाँ तुझ पर

मीठे-मीठे गीत सुनातीं हैं

जीवन को सींच रही हैं पल-पल

हरियाली को लेकर आतीं हैं

नित चलती पथ पर ये बिना रुके

आगे को ही बढ़ती जातीं हैं

बाधाओं को पार करें कैसे

ऐसा सबको पाठ पढ़ातीं हैं।

फिर मीत सिंधु के जा साथ मिलें

दिख जाता क्या प्रेम समर्पण है?

ये तन पौध बना फिर देख बढ़ा…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 2, 2019 at 11:00am — 2 Comments

कविता: स्मृति शेष

स्मृति शेष, बनी विशेष। 

कभी शूल सी चुभती हैं, 

कभी बन प्रसून महकती हैं। 

कभी अश्रु बन छलकती हैं, 

कभी शब्दों में ढलती हैं। 

स्मृति शेष, बनी विशेष। 

अशेष, अन्नत प्रवाह पीड़ा का, 

बिसराये ना बिसरती हैं। 

सब छूट गया सब टूट गया, 

शेष स्मृति का अटूट बंधेज। 



स्मृति शेष, बनी विशेष। 

कुछ…

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Added by Dr. Geeta Chaudhary on November 2, 2019 at 7:30am — 4 Comments

कुण्डलिया (रख आश्रम माँ बाप को)

आता है जब न्यूज़ में, होता कष्ट अपार

रख आश्रम माँ बाप को, बेटा हुआ फरार

बेटा हुआ फरार, तनिक भी क्षोभ न जिसका

होगा वह भी वृद्ध, कभी पर भान न इसका

रिश्तों का इतिहास, स्वयम् को दुहराता है

ख़ुद पे गिरती गाज़, समझ में तब आता है।।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by नाथ सोनांचली on November 1, 2019 at 11:11am — 9 Comments

तेरा हाथ हिलाना (नवगीत)

ट्रेन समय की 

छुकछुक दौड़ी

मज़बूरी थी जाना

भूल गया सब

याद रहा बस 

तेरा हाथ हिलाना

तेरे हाथों की मेंहदी में

मेरा नाम नहीं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 31, 2019 at 8:07pm — 11 Comments

बारिश की एक बूंद

 

घने-काले बादलों से निकल बूंद, जब

सपनों में, अनगिनत खो जाती है

कहाँ गिरूंगी कैसे गिरूंगी

सोच-सोच घबराती है ||

 

क्या गिरूंगी, फूल पराग में

या धुल संग मिल जाऊँगी

कहीं बनूँगी, ओस का मोती

और मनमोहकबन जाऊँगी ||

 

कहीं बनूँ, जीवन आधार मैं

जीव की प्यास बुझाऊंगी

या जा गिरूंगी धधकती ज्वाला

क्षणभर में ही जल जाऊँगी…

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Added by PHOOL SINGH on October 31, 2019 at 4:55pm — 6 Comments

चंद क्षणिकाएँ :जीवन

चंद क्षणिकाएँ :जीवन 

बदल गया

जीवन

अवशेषों में

सुलझाते सुलझाते

गुत्थियाँ

जीवन की

आदि द्वार पर

अंत की दस्तक

अनचाहे शून्य का

अबोला गुंजन

अवसान

आदि पल की

अंतिम पायदान

प्रेम

अंतःकरण की

अव्याखित

अनिमेष

सुषमा रशिम



ज़माने को

लग गई

नई नेम प्लेट

बदल गई

घर की पहचान

शायद चली गई

थककर

दीवार पर टंगे टंगे

पुरानी

नेम…

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Added by Sushil Sarna on October 30, 2019 at 5:14pm — 10 Comments

कुण्डलिया छंद-

1-

जितना जब भी जो बचा, खाया सबके बाद।

फिर भी उसने की नहीं, जीवनभर फरियाद।।

जीवनभर फरियाद, नहीं करती यह नारी।

किंतु वृद्ध असहाय, वही अपनों से हारी।।

कहते कवि हरिओम,ध्यान रखना बस इतना।

माँ का प्रेम अनंत, गहन सागर के जितना।।

2-

जिनके जीवन में करे, माँ खुशियाँ अपलोड।

वृद्धावस्था में वही, बदल रहे हैं मोड।।

बदल रहे हैं मोड, मगर माँ तो माँ होती।

करके उनको याद, बैठ आश्रम में रोती।।

कोई कर दे क्लीन, वायरस अब तो इनके।

माँ ने कर अपडेट,…

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Added by Hariom Shrivastava on October 29, 2019 at 10:51pm — 3 Comments

क्षणिकाएँ।

काश ! ऐसा हो जाये कि,

ज़िंदगी एक पूरा नशा बन जाये,

नशे में सब कुछ माफ हो, और,

ज़िंदगी जीने का मज़ा आ जाये ।

जी लूँ कुछ,

इस तरह कि,

अगले जनम की भी,

चाह न रह जाए।

ऐ दुनियावालों !

क्यों है ये बेइन्तहा मुश्किल?

कि कह सकें-कर सकें वो,

जो दिल करना चाहता हो।

कभी हमें भी था,

भरोसा अपने सपनों पर,

अब अहसास हो गया है कि,

सपने दूसरो के ही र॔ग लाते हैं।

न सोचूँ, न मैं चाहूँ,

न ही…

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Added by Usha on October 29, 2019 at 12:30pm — 6 Comments

मेरा तुम्हारा भाग्य

इस बार फिर दीवाली की साफ- सफाई के बाद तुम्हें निकाला है,

शायद इस बार भी तुम्हें वापस ऐसे ही रख दूंगी

जैसे हर बार तुम्हें ऊपरी चमकाहट के बाद रख देती हूं,

कि इस बार तुम्हें जरूर फ्रेम करवाऊंगी

पर शायद इस बार भी इस भ्रम का तिलिस्म रहेगा,

इस तिलिस्म में तुम भी जिओ और मै भी जियूं,

क्योंकि तुम्हें तो मैने बनाया है

कहीं न कहीं अपने भाग्य से जोड़ जो लिया है,

तुम मेरी जिम्मेदारी हो ये एहसास तुम मुझे हर बार करवाती हो,

क्योंकि तुम किसी और के साथ…

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Added by Arpita Singh on October 29, 2019 at 9:30am — 3 Comments

वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है(मुक्तछंद) -"सागर"

वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है,

कहीं है चैन-ओ-सुकून,तो कहीं मुसीबत है,

वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है । 

क्या था ख्याल तेरा,

बनाया किसी को गूंगा,किसी को बहरा,

बनाया तूने किसी को सबल-सुअंग,…

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Added by प्रशांत दीक्षित 'प्रशांत' on October 28, 2019 at 12:00pm — 2 Comments

नकारात्मकता का प्रतीक और हम

इंसा नहीं उसकी छाया है

बिन शरीर की काया है

सृष्टि का संतुलन बनाने हेतु

ईश्वर ने ही उसे बनाया है||

 

सृष्टि में नकारात्मकता और सकारात्मक्तका समन्वय करके

अच्छाई बुराई में भेद बनाया है

सही गलत का मार्ग बता

प्रभु ने जीवन को समझाया है||

 

अंधेरा का मालिक बना

भयानक रूप उसको दे कर

जग जीवन को डराया है

जीवन का भेद बताया है||

 

प्रबल इच्छा संग मर, जो जाते

सपने पूरे जो, ना कर…

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Added by PHOOL SINGH on October 28, 2019 at 11:37am — 3 Comments

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