काव्य-रुपी शब्दों का विनम्र समर्पण कविवर सुमित्रानंदन प॔त जी की कविता "कहो, तुम रूपसी कौन?" से प्रेरित हो मेरे द्वारा उनके सम्मान में किया गया एक प्रयास।
कहो, तुम पुरुष कौन?
निशक्त बतलाओ तो, क्या नाम दूँ तुम्हें ?
जान लो, पहचान लो, स्मरण कर लो,
प्रभावशाली, विराट, अखंडित,
अजेय एवं समृद्ध तुम।
हर क्षण रहे सुदृढ़, मजबूत और कर्मठ,
कुछ नहीं नामुमकिन, कठिन, दुष्कर।
प्रत्येक क्षण, रहे करनी सुदृढ़ व मजबूत,
कुछ नहीं नामुमकिन, कठिन, दुष्कर सा।
नारी से हो पल्लवित, बने उसी का लौह-कवच,
तुम बलवान, साहसी, संयमी एवं पालनहार।
समय परिवर्तन-चक्र में पड़, कदापि भ्रमित न हो,
नहीं तुम निर्बल, निशक्त, विचल व शक्तिहीन,
कर बैठो खुद को विमुख, अपने पौरष से ।
प्रतिभू, निश्चितता से प्रयास कर, जुट जाओ पुनः।
सॄजन करो नवीन, ऐसा मनमोहक, दिव्य संसार,
नारी की प्रबलता, बने तुम्हारा हथियार।
साथ चलो, कि पुकारता अब युग ये नवीन है,
रूपसी और पौरुष का संगम अद्धभुत, सृजित हो।
मौलिक व् अप्रकाशित।
Comment
आदरणीय डा० उषा जी सुंदर रचना क लिए हार्दिक बधाई!
मुहतरमा ऊषा जी आदाब,अच्छी रचना हुई,बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय सुश्री उषा जी , उत्कृष्ट , बधाई , सादर।
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