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वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है(मुक्तछंद) -"सागर"

वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है,

कहीं है चैन-ओ-सुकून,तो कहीं मुसीबत है,

वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है । 

क्या था ख्याल तेरा,

बनाया किसी को गूंगा,किसी को बहरा,

बनाया तूने किसी को सबल-सुअंग,

क्यों बनाया किसी को अपाहिज-अपंग?

बता तो क्या तेरी चाहत है, 

वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है ।

तू किसी से ज़ुबान छीने,

किसी से हाथ,पैर,कान छीने ।

क्यों तूने ऐसी सजा दी,

किसी के नैनों की बत्ती बुझा दी ।

या नहीं मिली तुझे,यह बनाने की फुर्सत है,

वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है ।

क्यों किसी के हाथ लगी निराशा, 

बोलनी पड़ी उसे हाथों की भाषा ।

किसी ने क्या ऐसा क़सूर किया,

बैसाखी के सहारे चलने को मजबूर किया ।

कुछ भूल हुई तुझसे,या ऐसी ही तेरी फितरत है, 

वह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है

जो छीने सारी दुनिया का चैन हैं,

न जाने ऐसे कितने लादेन हैं । 

जिन्होंने कितनों के किए छलनी सीने,

क्यों नहीं उनके हाथ,पैर,आँख,कान छीने ।

ना हो अब कोई और ऐसा, 

हम करते तेरी इबादत हैं ।

वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है ।।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by प्रशांत दीक्षित 'प्रशांत' on October 29, 2019 at 3:30pm

आदरणीय समर कबीर जी, आपके प्रेरणादायक वचनों के लिए हृदय तल से आभारी हूँ। प्रस्तुति आपको पसंद आयी तो रचना सफ़ल हुई ।
बहुत-बहुत धन्यवाद ।

Comment by Samar kabeer on October 29, 2019 at 12:05pm

जनाब प्रशांत दीक्षित 'सागर' जी आदाब, सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।

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