कुछ क्षणिकाएँ :
सीख लिया शब्दों ने
जीना और मरना
बिना परिधान बदले
देह का
साथ रहकर
व्योम को
सूक्ष्म से अलंकृत करो
कि स्वप्न भी
कल्पना हैं
अचेतन मन की
कह दिया काँपती लौ ने
दिए से
आज मैं सो जाऊंगी
तुम्हारी गोद में
क्रूर पवन के वेग से आहत होकर
शायद मेरा उजाला
अंधेरों को
नहीं भाया
मिट गई
जीत की आकांक्षा
तिमिर में
इक दूजे से
हारते हुए
हम के…
ContinueAdded by Sushil Sarna on May 17, 2020 at 9:37pm — 6 Comments
बह्र- फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाा
2122 2122 2122 2
ये हंसी ये मुस्कराहट कातिलाना है
हां तभी तुझपर फिदा सारा ज़माना है
लाॅक डाउन तोड़कर घर से निकलकर आ
देख तो मौसम बड़ा ही आशिकाना है
ये गदाईगीर का हो ही नहीं सकता
ये नगर के शाह का ही शामियाना है
बांटते थे ग़म खुशी आपस में पहले दोस्त
अब कहां माहौल वैसा दोस्ताना है
बेसबब हैं कैद घर में लोग हफ्तों से
कब रिहाई होगी इनकी क्या ठिकाना…
Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 17, 2020 at 8:30pm — 4 Comments
२१२२/२१२२/ २१२२/२१२
शासकों को रोज अपनी दुख बयानी लिख रहे
एक चिकने घट को जैसे बूँद पानी लिख रहे।१।
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अधजली दंगों में थी अब अधमरी है रोगवश
पर खबर में खूबसूरत राजधानी लिख रहे।२।
**
दान दाता बन गये कुछ एक मुट्ठी दे चना
खींचकर तस्वीर उसकी नित कहानी लिख रहे।३।
**
आस में अच्छे दिनों की शह्र आये थे मगर
गाँव के वो आज सब को खूब मानी लिख रहे।४।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 17, 2020 at 2:00pm — 6 Comments
तोड़े थे यकीन मैंने मोहल्ले की हर गली में
सुकून हम कैसे पाते इतनी आहे लेकर
मौत हो जाए मेहरबा हमपे नामुमकिन है
ठोकरे ही हमको मिलेंगी उसके दरवाज़े पर
हर परत रंग मेरा यूँ ही उतरता गया
ज़मी थी शख्त मगर मैं बस धस्ता ही गया
गुनाह जो मैंने किये थे बेखयाली में
याद करके उन सबको मैं बस गिनता ही गया
किसी का हाथ छोड़ा किसी का साथ छोड़ दिया
मैंने हर बदनामी को उनकी तरफ मोड़ दिया
सामने जब भी वो आए अपना बनाने के…
ContinueAdded by AMAN SINHA on May 17, 2020 at 12:12pm — 2 Comments
2122 2122 2122
खुश हुआ तू बोलकर,' है जानवर तू'
लग रहा खुद को बताता,बेसबर तू।
सांस बनकर बह रहीं ठंडी हवाएं
आग की लपटें उठा मत बन, कहर तू।
ख्वाब पाले मौन बैठी हैं सदाएं
कानफाड़ू! ला सके तो,ला सहर तू?
तार होती हो नहीं उम्मीद कोई,
हो अगरचे तो बता,कोई पहर तू?
हर्फ हासिल हो गए तो शायरी कर,
क्यूं अंधेरों को बढ़ाता है बशर तू?
मत बिठा मेरी गजल को हाशिए पर
छटपटाती है बहर,देखे अगर तू।
रुक्न रोते, बुदबुदाते शब्द सारे,
नज़्म कहकर…
Added by Manan Kumar singh on May 17, 2020 at 11:30am — 11 Comments
Added by Anvita on May 16, 2020 at 8:54pm — 6 Comments
( 121 22 121 22 121 22 121 22 )
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हमें न चाहत ही चाँद की है न तारों से है लगाव अपना
हमें फ़लक की भी क्या ज़रूरत ज़मीन से है जुड़ाव अपना
**
जहाँ में अपनी किसी से यारो न दुश्मनी और न दोस्ती है
न कोई दिल में किसी से नफ़रत न है किसी से दुराव अपना |
**
फ़रोख्त होगी कभी हमारी ख़याल कोई न लाये दिल में
अमोल हैं हम कोई जहाँ में करेगा क्या मोलभाव अपना
**
कभी किसी से जुदा हुए तब मिला था ज़ख़्मों का एक…
ContinueAdded by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 16, 2020 at 3:00pm — 10 Comments
जाग जाता हूँ सुबह ही आँख अब लगती नहीं
दिन गुजरता है नहीं और रात कटती ही नहीं
ऐसा लगता है मैं कोई व्यर्थ सा सामान हूँ
है कदर न जिसकी कोई खोया वो सम्मान हूँ
प्यार बीवी के नजर में वैसी अब दिखती नहीं
है खफा वो खूब लेकिन मुँह से कुछ कहती नहीं
पहले सी चहरे पे उसके अब हसी दिखती नहीं
मेरी ये उदास आँखे झूठ कह सकती नहीं
चिढ़चिढ़ा सा हो गया हूँ बस यु हीं लड़ जाता हूँ
छोटी-छोटी बातों पे मैं बच्चों पे चिल्लाता हूँ
मेरे…
ContinueAdded by AMAN SINHA on May 16, 2020 at 6:30am — 5 Comments
Added by pratibha pande on May 15, 2020 at 11:00pm — 8 Comments
( 2122 2122 2122 )
हम सुनाते दास्ताँ फिर ज़िन्दगी की
काश हम भी काटते फसलें ख़ुशी की
अब चुरा लो शम्स की भी धूप सारी
कोई तो बदलो ये सूरत तीरगी की
जानवर अब हैं ज़ियादा जंगलों में
नस्ल घटती जा रही है आदमी की
हैं अंधेरे घर में अपने क़ैद सारे
कौन खींचेगा लकीरें रौशनी की
जो भी हो सागर मिलेगा तिश्नगी को
बाढ़ ले जाये हमें अब तो नदी की
आंखेंं फट जाएँगी हैरत से…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on May 15, 2020 at 7:00pm — 10 Comments
भेद :
समझा दिया मैंने
अपने बच्चों को
सत्य और असत्य में क्या है भेद
समझा दिया
मैंने अपने बच्चों को
भानु से फैला उजास
कितने रंगों को होता है
समझा दिया मैंने
यह भी अपने बच्चों को
कि रंगीली गिरगिट का
कौन सा रंग असली और कौन सा नकली होता है
मगर
मुझे ये समझाने में
बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा
कि इंसान का कौन सा रंग असली है
और कौन सा नकली
शायद वक्त के साथ
वो इस…
Added by Sushil Sarna on May 15, 2020 at 6:19pm — 3 Comments
Added by Om Prakash Agrawal on May 15, 2020 at 12:06pm — 6 Comments
जाने कितनी दूर थी, जाने कितनी पास।
जाने किसकी जोह में, रुकी हुई थी श्वास।।
जाने किसकी जोह में, तरल हो गई आस।
एक श्वास थी ज़िंदगी, एक श्वास संत्रास।।
जीवन के विश्राम तक, मिटी न मन की जोह।
करते करते सो गया, जीव सत्य की टोह।।
बड़ा अजब है जीव का, जीवन के प्रति मोह।
जीत न पाया अंत से, खूब किया विद्रोह।।
मृत्यु देह की है सखा, जीवन गहरी खोह।
फिर भी इस संसार से, मिटे न मन का मोह।।
सुशील सरना…
Added by Sushil Sarna on May 14, 2020 at 10:30pm — 2 Comments
वर्षों हुए
एक बार देखे उसको
तब वो पुरे श्रृंगार में होती थी
बात बहुत
करती थी अपनी गहरी आँखों से
शब्द कहने से उसे उलझने तमाम होती थी
इमली चटनी
आम की क्यारी
चटपट खाना बहुत पसंद था
सैर सपाटे
चकमक कपडे रंगों का खेल
गाना बजाना हरदम था
खेलना कूदना
पढ़ना लिखना सपने सजाना
सब उसके फेहरिस्त का हिस्सा थे
सावन, झूले
नहरों में नहाना, पसंद का खाना
कई तरह के किस्से…
ContinueAdded by AMAN SINHA on May 14, 2020 at 3:19pm — 6 Comments
बदलाव !
तड़के प्रात:
स्वच्छ धूप की नरम दूब से
मिलने की उत्सुक्ता ...
कुछ इसी तरह कोई लोग
कितनी उत्सुक्ता से अपने बनते
निज को समर्पित…
ContinueAdded by vijay nikore on May 14, 2020 at 5:00am — 6 Comments
2122 2122 2122 212
एक ताज़ा ग़ज़ल
तेरी चौखट तक पहुँचने के हैं अब आसार कम.
फासला लंबा बहुत है या मेरी रफ्तार कम.
कौन से रस्ते पे चलके मैं चला जाऊं कहाँ,
डर बहकने का है दिलबर हौसला इस बार कम.
हद से ज्यादा बेबसी है पर इरादे बेहिसाब,
हमसफर तो मिल गए हैं मिलते हैं गमख़ार कम.
घर पहुँचने की तड़प में इस सफर में जाने जां,
रोटिया दिलकश अधिक है और तेरे रुखसार कम.
जोड़ कर रखा था नाता…
ContinueAdded by मनोज अहसास on May 14, 2020 at 12:22am — 5 Comments
( 221 1221 1221 122 )
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मानन्द-ए-ज़माना अभी शातिर नहीं हैं हम
लोगों की तरह झूठ के नासिर नहीं हैं हम
**
नफ़रत के अलमदार ये अच्छे से समझ लें
ये मुल्क हमारा है मुहाज़िर नहीं हैं हम
**
हम सिर्फ़ मुहब्बत को समझते हैं इबादत
बस यार ख़ुदा अपना है काफ़िर नहीं हैं हम
**
जो दिल में रहे अपने वही रहता लबों पे
पोशीदगी-ए-राज़ में माहिर नहीं हैं हम
**
दिखते हैं अगर रुख़ पे तबस्सुम के मनाज़िर
ग़ायब करें ग़म…
ContinueAdded by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 13, 2020 at 3:30pm — No Comments
तृप्ति
चहुँ ओर उलझा कटा-पिटा सत्य
कितना आसान है हर किसी का
स्वयं को क्षमा कर देना
हो चाहे जीवन की डूबती संध्या
आन्तरिक द्वंद्व और आंदोलन
मानसिक सरहदें लाँघते अशक्ति, विरोध
स्वयं से टकराहट
व्यक्तित्व .. यंत्रबद्ध खंड-खंड
जब देखो जहाँ देखो हर किसी में
पलायन की ही प्रवृत्ति
एक रिश्ते से दूसरे ...
एक कदम इस नाव
एक ... उस…
ContinueAdded by vijay nikore on May 13, 2020 at 5:30am — 4 Comments
Added by amita tiwari on May 13, 2020 at 3:00am — 2 Comments
घर :
अच्छा है या बुरा है
जैसा भी है
मगर
ये घर मेरा है
इस घर का हर सवेरा
सिर्फ और सिर्फ
मेरा है
मैं
दिन रात
इसकी दीवारों से बातें करता हूँ
मेरे हर दर्द को
ये पहचानती हैं
मैं
कौन हूँ
ये अच्छी तरह जानती हैं
धूप
हर रोज
इन दीवारों को धो देती है
दीवारों पर टंगे अतीतों पर
रो देती है
कल भी कहते थे
ये आज भी कहते हैं
ये घर उनका का है
दीवारों पर उनकी यादों…
Added by Sushil Sarna on May 12, 2020 at 8:59pm — 2 Comments
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