( 2122 2122 2122 )
हम सुनाते दास्ताँ फिर ज़िन्दगी की
काश हम भी काटते फसलें ख़ुशी की
अब चुरा लो शम्स की भी धूप सारी
कोई तो बदलो ये सूरत तीरगी की
जानवर अब हैं ज़ियादा जंगलों में
नस्ल घटती जा रही है आदमी की
हैं अंधेरे घर में अपने क़ैद सारे
कौन खींचेगा लकीरें रौशनी की
जो भी हो सागर मिलेगा तिश्नगी को
बाढ़ ले जाये हमें अब तो नदी की
आंखेंं फट जाएँगी हैरत से तुम्हारी
हद अभी देखी नहीं दीवानगी की
*मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सालिक गणवीर जी अच्छी गज़ल कही आपने, हमेशा की तरह समर साहब ने खूब इस्लाह की ... बधाई
आद0 सालिक गणवीर जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकारिये। यह शेर खास पसन्द आया
जानवर अब हैं ज़ियादा जंगलों में
नस्ल घटती जा रही है आदमी की
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
सादर प्रणाम
सराहना के लिए हृदय से आभार.
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत जी
सादर प्रणाम
सराहना के लिए आपका हृदय से आभारी हूँँ.
खूबसूरत ग़ज़ल ,बधाई स्वीकारें साहेब
आ. भाई सालिक गणवीर जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'धूप थोड़ी सी चुराओ शम्स की भी
अब तो बदलो कोई सूरत तीरगी की'
इस शैर में कसावट नहीं है,ऊला और चुस्त करने की कोशिश करें ।
'जानवर जंगल में ज़्यादा हो गए हैं'
आपकी जानकारी के लिए बता रहा हूँ कि उर्दू के लिहाज़ से सहीह शब्द "ज़ियादा" 122 है,और ग़ज़लों में इसी वज़्न को लेना उचित होता है,जैसे:-
'चलके तेरी आँखों से शराब और ज़ियादा'
'हैं अंधेरे घर में अपने क़ैद अब भी'
इस मिसरे में 'अब भी' की जगह "सारे" या "सब ही" शब्द उचित होगा ।
'आंख बाहर आ गई हैरत से कल भी
हद अभी देखी नहीं दीवानगी की'
सानी में जब ' देखी नहीं' तो ऊला में 'आ गई' शब्द कैसे ले सकते हैं,ऊला इस तरह का होना चाहिए:-
'आँखें फट जाएँगी हैरत से तुम्हारी'
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