वर्षों हुए
एक बार देखे उसको
तब वो पुरे श्रृंगार में होती थी
बात बहुत
करती थी अपनी गहरी आँखों से
शब्द कहने से उसे उलझने तमाम होती थी
इमली चटनी
आम की क्यारी
चटपट खाना बहुत पसंद था
सैर सपाटे
चकमक कपडे रंगों का खेल
गाना बजाना हरदम था
खेलना कूदना
पढ़ना लिखना सपने सजाना
सब उसके फेहरिस्त का हिस्सा थे
सावन, झूले
नहरों में नहाना, पसंद का खाना
कई तरह के किस्से थे
आज दिखी थी
नुक्कड़ के बाजार में अकेली
सादा सा लिवास ओढे हुए
चाल धीमी थी
कंधे पर कटे बाल झूलते
चेहरा बिल्कुल ही उदास था
काले पड़े थे
होंठ उनमे लाली न थी
कई दिनों से जैसे वो नहाई न थी
मैं ढूंढ रह था
उसकी गहरी आँखों को
वो सुख चुकी थी उसमे अब नमी ना थी
मैंने लोगों से पूछा
ये यहां कब से खड़ी है
वो बोले जबसे उसके पति का शव उठाया गया
लगा एक बार
बुलाऊँ लेकर मैं नाम उसका
मुझे नाम याद था पर मुझसे बुलाया ना गया
"मौलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा
Comment
आद0 अमन सिंह जी सादर अभिवादन। बढ़िया भावपुरक रचना लिखी है आपने। बधाई स्वीकार कीजिये
श्री गणवीर साहब एवं मुसाफिर साहब,
टहे दिल से आपका आभार। इसी तरह मेरा हौंसला बढ़ाते रहेंगे तो मैं और भी लिखता रहूँगा।
आ . भाई अमन जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
श्रीमान कबीर साहब,
हौंसला बढ़ाने के लिए धन्यवाद।
जनाब अमन सिन्हा जी आदाब, अच्छी रचना हुई, बधाई स्वीकार करें ।
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