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September 2016 Blog Posts (189)

लोक तंत्र -दोहे

प्रजातंत्र के देश में, परिवारों का राज

वंशवाद की चौकड़ी, बन बैठे अधिराज |

वंशवाद की बेल अब, फैली सारा देश

परदेशी हम देश में, लगता है परदेश  |

लोकतंत्र को हर लिये, मिलकर नेता लोग

हर पद पर बैठा दिये, अपने अपने लोग |

हिला दिया बुनियाद को, आज़ादी के बाद

अंग्रेज भी किये नहीं,  तू सुन अंतर्नाद |

संविधान की आड़ में, करते भ्रष्टाचार

स्वार्थ हेतु नेता सभी, विसरे सब इकरार |

बना कर लोकतंत्र को,…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on September 13, 2016 at 7:30am — 27 Comments

गांव बने तब एक निराला

सौंधी सौंधी मिट्टी महके

चीं-चीं चिड़िया अम्बर चहके ।

बाँह भरे हैं जब धरा गगन

बरगद पीपल जब हुये मगन

गांव बने तब एक निराला

देख जिसे ईश्वर भी बहके ।

ऊँची कोठी एक न दिखते

पगडंडी पर कोल न लिखते

है अमराई ताल तलैया,

गोता खातीं जिसमें अहके ।

शोर शराबा जहां नही है

बतरावनि ही एक सही है

चाचा-चाची भइया-भाभी

केवल नातेदारी गमके ।

सुन-सुन कर यह गाथा

झूका रहे नवाचर माथा

चाहे  कहे…

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Added by रमेश कुमार चौहान on September 12, 2016 at 10:00pm — 4 Comments

लघु कथा

"अपमान "



'जल्दी से आ जा मोनू ,खाना गरम है,खा लें,सबके साथ ।

क्या जल्दी है ,माँ खाना खाना लगा रखा है ?

आते साथ चुपचाप बैठा देख माँ से रहा ना गया।

हाथ धोकर आजा बेटा, फिर खाना खाने बैठ।

जितना तुझे ज़रूरत हो उतना ही लेना,छोड़ना मत ।माँ ने लाड़ले को समझाना चाहा ।

'अब पेट कोई कमरा नही है खाता जाऊँगा ,थोड़ा छूट गया तो क्या फ़र्क़ पड़ता है ?

ये अन्नदेव का अपमान है बेटा ।

वो कैसे ?जिस दिन तुम्है ग़ुस्सा आ जाता है,और उस दिन तुम खाना नही खाते तब ये संतुलन और… Continue

Added by Nita Kasar on September 12, 2016 at 9:30pm — 4 Comments

तुम मुझे मिल जाओगे ...

तुम मुझे मिल जाओगे ...

ये सृष्टि

इतनी बड़ी भी नहीं

कि तुम मेरी दृष्टि की

दृश्यता से

ओझल हो जाओ

असंख्य मकरंदों की महक भी

तुम्हारी महक को

नहीं मिटा सकती

तुम मेरी स्मृति की

गहन कंदरा में

किसी कस्तूरी गन्ध से समाये हो



सच कहती हूँ

तुम मेरे रूहानी अहसासों की

हदों को तोड़ न पाओगे

क्यूँ असंभव को

संभव बनाने का

प्रयास करते हो

अपने अस्तित्व का

मेरे अस्तित्व से

इंकार…

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Added by Sushil Sarna on September 12, 2016 at 4:58pm — 4 Comments

सवेरे सवेरे

सवेरे सवेरे.....

आज आटा गूंधते समय

अचानक उठ आये

छोटी उंगली के दर्द ने

याद दिलाया है मुझे

सुबह गुस्से में जो कांच का

गिलास जमीन पर फेंका था तुमने

उसी काँच के गिलास को

उठाते वक्त चुभा था

काँच के गिलास का वह टुकड़ा,मेरी उँगली में

लाल खून भी अब तो 

झलकने लगा है उंगली में 

सोच रही हूँ

अब कैसे गूंधूंगी आटा

फिर बायें हाथ से ही

समेटने लगी हूँ

उस आधे गुंधे हुये आटे को

तुम्हें क्या मालूम

हर हाल मे ही

सहना…

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Added by Abha saxena Doonwi on September 12, 2016 at 3:10pm — 5 Comments

सोच करनी ही थी मंदार कभी-ग़ज़ल , पंकज

2122 1122 112

तू मेरा कब था अलमदार कभी
आँख कब तेरी थी नमदार कभी

शुक्रिया ज़ख्म नवाज़ी के लिए
और क्या माँगे कलमकार कभी

जिसे ख़ाहिश नशा ताउम्र रहे
उसे भाये न चिलमदार कभी

सोच कर एक शज़र ग़म में हुआ
जिस्म खुद का भी था दमदार कभी

मैं समंदर के ही मंथन को चला
सोच करनी ही थी मंदार कभी

मौलिक-अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 12, 2016 at 12:00am — 14 Comments

ग़ज़ल ( करम की नज़र कहाँ )

ग़ज़ल

---------

(मफऊल -फाइलात -मफ़ाईल -फाइलुन )

सबको पता है तुझको मेरे दिल ख़बर कहाँ ।

वह डालते हैं सब पे करम की नज़र कहाँ ।

जैसे ही सामना हुआ मेरे हबीब से

बदली में छुप गया है न जाने क़मर कहाँ ।

हातिम की बात हर कोई करता तो है मगर

आता है उसके जैसा नज़र अब बशर कहाँ ।

खाते हैं संग कूचे से जाते नहीं कहीं

होता है इश्क़ वालों को दुनिया का डर कहाँ

जो दो क़दम भी साथ मेरे चल नहीं सका

वह दे सकेगा साथ…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on September 11, 2016 at 8:11pm — 12 Comments

बुड्ढा उठता क्यों नहीं ?

 

शिद्दत की प्यास-----

‘बेटा ----‘

वृद्ध-बीमार पिता ने पुकारा

कोई उत्तर नहीं आया  

‘बेटा श्रवण -----‘

पिता ने फिर पुकारा

फिर कोई उत्तर नहीं आया

‘बहू ------ ‘

वृद्ध ने विकल्प तलाशना चाहा

कोई हलचल नहीं हुयी

वृद्ध ने एक और प्रयास करना चाहा

पर खुश्क गले से

नहीं निकल पायी आवाज 

उसने कोशिश की स्वयं उठने की

बूढ़े पांवों में नहीं थी

शरीर का बोझ उठाने की ताकत   

वह लड़खड़ा कर…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 11, 2016 at 3:46pm — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
एक तरही ग़ज़ल

2122 2122 2122 212

शाम के मद्धम उजालो में वो डर का जागना

मेरी किस्मत में लिखा है उम्र भर का जागना



खामुशी से जुल्म का कब हो सका है एहतजाज

देखना बाकी है अब सोए नगर का जागना



जब भी वापस लौटता हूँ देखता हूँ मैं फ़क़त

एक तनहा शाम के साए में घर का जागना



काश देखा होता तुमने मेरे चेहरे पर कभी

राह तकती दूर तक बेबस नज़र का जागना



याद है? वो सर्दियों की नर्म रातें,और फिर

चाय की वो चुस्कियाँ लेकर सहर का जागना



एहतिजाज-… Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on September 11, 2016 at 12:30pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
तरही गज़ल - वो मिरी ताज़ीम में दीवारो दर का जागना “ ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122    2122    212

एक दिन है शादमानी की लहर का जागना

रोज़ ही फिर देखना है चश्मे तर का जागना

 

देख लो तुम भी मुहब्बत के असर का जागना

चन्द लम्हे नींद के फिर रात भर का जागना

 

चाँद जागा आसमाँ पर, खूब देखे हैं मगर

अब फराहम हो ज़मीं पर भी क़मर का जागना

 

बाखबर तो नींद में गाफ़िल मिले हैं चार सू

पर उमीदें दे गया है बेखबर का जागना

 

सो गये वो एक उखड़ी सांस ले कर , छोड़ कर

और हमको दे गये हैं उम्र भर…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 11, 2016 at 10:07am — 4 Comments

ग़ज़ल .........नहीं हैं लफ्ज़ मिलते शायरी के .....

बह्र ~ 1222-1222-122

मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन 

मतला ...

नहीं ये आँख में आंसू ख़ुशी के

ये आंसू हैं किसी मुफलिस दुखी के 



ग़ज़ल कैसे लिखूं मैं लिख न पाती, 

नहीं है लफ्ज़ मिलते शायरी के.

 

नहीं आदत है हमको तीरगी की ,

जियें कैसे बता बिन रौशनी के.

 

बहुत ग़मगीन हैं दिल की फिज़ायें,

किसे किस्से सुनाएँ बेबसी के.

 

कहे हमने नहीं अल्फाज दिल के,

गुजर ही जायेंगे दिन जिन्दगी के.

 

अगर “आभा…

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Added by Abha saxena Doonwi on September 11, 2016 at 8:30am — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अलसाई पलकों पे चुम्बन धर जाऊँगी (नवगीत 'राज ')

खोलो दिल के वातायन प्रिय मैं आऊँगी

अलसाई पलकों पे चुम्बन धर जाऊँगी

अलकन में नम शीत मलय की    

बाँध पंखुरी 

पंकज की पाती से भरकर  

मेह अंजुरी

ऊषा की लाली से लाल

हथेली रचकर

कंचन के पर्वत से पीली 

धूप  खुरच कर

कोना कोना मैं ऊर्जा से भर जाऊँगी

अलसाई पलकों पे चुम्बन धर जाऊँगी

सुरभित कुसुमो के सौरभ को

भींच परों में

चार दिशाओं के गुंजन को

सप्तसुरों  में

बन…

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Added by rajesh kumari on September 11, 2016 at 8:30am — 14 Comments

जिन्दगी की अलगनी पर शाइरी को साधना (ग़ज़ल)

बह्र : 2122 2122 2122 212

 

कुछ पलों में नष्ट हो जाती युगों की सूचना

चन्द पल में सैकड़ों युग दूर जाती कल्पना

 

स्वप्न है फिर सत्य है फिर है निरर्थकता यहाँ

और ये जीवन उसी में अर्थ कोई ढूँढ़ना

 

हुस्न क्या है एक बारिश जो कभी होती नहीं

इश्क़ उस बरसात में तन और मन का भीगना

 

ग़म ज़ुदाई का है क्या सुलगी हुई सिगरेट है

याद के कड़वे धुँएँ में दिल स्वयं का फूँकना

 

प्रेम और कर्तव्य की दो खूँटियों के बीच…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 10, 2016 at 10:30pm — 8 Comments

आदमी गुम हो गया है ख्वाहिशों के दरमियाँ (ग़ज़ल)

2122 2122 2122 212



रास्ते कुछ और भी थे रास्तों के दरमियाँ

मंज़िलें कुछ और भी थीं मंज़िलों के दरमियाँ



बेख़याली में हुई थी गुफ़्तगू नज़रों के बीच

हो गया इक़रार लेकिन धड़कनों के दरमियाँ



क्यों रहे इंसानियत से वास्ता इंसान का

जब है दीवार-ए-सियासत मज़हबों के दरमियाँ



रिश्ते-नातों को निभाने का कहाँ है वक़्त अब

आदमी गुम हो गया है ख्वाहिशों के दरमियाँ



ये हमारी दिल की दुनिया इस क़दर वीरान है

धूल उड़ती है यहाँ पर बारिशों के… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on September 10, 2016 at 8:15pm — 3 Comments

ग़ज़ल - कब तक खिंजां का साथ निभाया करेंगे आप।

2212 121 122 121 21

चिलमन तमाम वक्त हटाया करेंगे आप ।

तश्वीर महफ़िलों में दिखाया करेंगे आप ।।



चुप चाप आसुओं को छुपाया करेंगे आप ।

कुछ बात मशबरे में बताया करेंगे आप।।



मुझको मेरे नसीब पे यूं छोड़िये जनाब ।

कब तक खिंजां का साथ निभाया करेंगे आप।।



तहज़ीब मिट चुकी है जमाने के आस पास ।

बुझते मसाल को न जलाया करेंगे आप।।



यह बात सच लगी कि मुकद्दर नही है साथ ।

मेरे ज़ख़म पे ईद मनाया करेंगे आप ।।



आजाद आसमा के परिंदे हैं बदजुबान… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on September 10, 2016 at 3:44pm — 2 Comments

रंग बिरंगे हाइकू

रंग बिरंगे हाइकु

*************

1.

ग्रीष्म की रुत

सांकल सी खटकी

पीली लू आयी

२. 

लिखती रही

रंगीन सा हाइकू

रात भर मैं

३. 

सफ़ेद छोने

बर्फ के सिरहाने

फाये रुई के

...आभा  

 

 

Added by Abha saxena Doonwi on September 10, 2016 at 12:32pm — 3 Comments

कुछ दोहे मेरे

चले बराती मेघ के ,गरज तरज के साथ |

ओलों ने नर्तन किये ले हाथों में हाथ |1|

 

आँखों में जब आ गए अश्रु की तरह  मेघ |

रोके से भी न रुके तीव्र है इनका वेग |2|

 

सूर्य किरण हैं कर रहीं नदिया में किल्लोल |

चमक दमक से हो रहा जीवन भी अनमोल |3|

 

 

आभा  

अप्रकाशित एवं मौलिक

Added by Abha saxena Doonwi on September 10, 2016 at 8:00am — 5 Comments

ग़ज़ल

बहर २१२२ २१२२ २१२२ २१२

दोस्तों के वेश में देखो यहाँ दुश्मन मिले

चाह गुल की थी मगर बस खार के दंशन मिले |

यारों का अब क्या भरोसा, यारी के काबिल नहीं

जग में केवल रब ही है, जिन से ही सबके मन मिले|

गुन गुनाते थे कभी फूलों में भौरों की तरह

सुख कर गुल झड़ गए तो भाग्य में क्रंदन मिले  |

कोशिशें हों ऐसी हर इंसान का होवे भला

उद्यमी नेकी को शासक से भी अभिनन्दन मिले |

देश भक्तों ने है त्यागे प्राण औरों…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on September 10, 2016 at 7:30am — 5 Comments

दोहे

बलात्कार पर कर रहे मोदी बिल को पेश ।

दलित नही महिला अगर होगा हल्का केस ।।



ब्लात्कार में भेद कर तोड़ा है विश्वास ।

अच्छे दिन अब लद गए टूटी सबकी आस ।।



कितना सस्ता ढूढ़ता कुर्सी का वह मन्त्र ।

मोबाइल के दाम में बिक जाता जनतन्त्र ।।



सड़को पर इज्जत लुटे मथुरा भी हैरान ।

न्याय बदायूं मांगता सब उनके शैतान ।।



नए सुशासन दौर में जनता है गमगीन ।

सौगातों में ला रहे वही सहाबुद्दीन ।।



छूटा गुंडा जेल से जिसका था अनुमान ।

जंगल… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on September 10, 2016 at 12:28am — 6 Comments

ग़ज़ल- वो कहे लाख चाहे ये सरकार है

212 212 212 212



वो कहें लाख चाहे ये सरकार है।

मैं कहूँ चापलूसों का दरबार है।।

मेरी लानत मिले रहनुमाओं को उन।

देश ही बेचना जिनका व्यापार है।।

कौम की खाद है वोट की फ़स्ल में।

और कहते उन्हें मुल्क़ से प्यार है।।

सब चुनावी गणित नोट से हल किये।

जीत तो वो गये देश की हार है।।

चट्टे बट्टे सभी एक ही थाल के।

बस सियासत ही है झूठी तकरार है।।

अब बयां क्या करे इस चमन को पवन।

शाख़ पर उल्लुओं की तो…

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Added by डॉ पवन मिश्र on September 9, 2016 at 9:02pm — 6 Comments

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