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चले बराती मेघ के ,गरज तरज के साथ |

ओलों ने नर्तन किये ले हाथों में हाथ |1|

 

आँखों में जब आ गए अश्रु की तरह  मेघ |

रोके से भी न रुके तीव्र है इनका वेग |2|

 

सूर्य किरण हैं कर रहीं नदिया में किल्लोल |

चमक दमक से हो रहा जीवन भी अनमोल |3|

 

 

आभा  

अप्रकाशित एवं मौलिक

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on September 13, 2016 at 2:24pm

आदरणीया आभा सक्सेना जी सादर सुंदर दोहे रचे हैं आपने. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ने तुक पर ध्यान दिलाया ही है. प्रथम दोहे के तीसरे चरण को भी  देख  लें ....... ओलों ने नर्तन किये/ किया. सादर.

Comment by Abha saxena Doonwi on September 12, 2016 at 9:23am

आदरणीय समर कबीर जी नमस्कार ,

आपने  मेरे सृजन को पढ़ा सराहा उसके लिए हार्दिक अभिनन्दन आपका ...

Comment by Abha saxena Doonwi on September 12, 2016 at 9:22am

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी नमस्कार ,

आपने मेरे दोहों को पढ़ा सराहा उसके लिए मैं आपका हार्दिक अभिनन्दन करती हूँ ...आपने जिस ओर ध्यान दिलाया है उसका मैं आगे से जरूर ख्याल रखूंगी ..आभार आपका ..


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2016 at 3:55pm

आदरनीया आभा जी , अच्छे दोहे हुये हैं , हार्दिक बधाई । दूसरा दोहा --

आँखों में जब आ गए अश्रु की तरह  मेघ |

रोके से भी न रुके तीव्र है इनका वेग |           मेध और  वेग की तुकांतता सही नही है  -

Comment by Samar kabeer on September 11, 2016 at 3:21pm
मोहतरमा आभा सक्सेना जी आदाब,बढ़िया दोहे रचे आपने,बधाई स्वीकार करें ।

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