Added by Saurabh Pandey on June 6, 2011 at 1:20am — 6 Comments
भ्रष्टाचार के विरोध में हम भी खड़े हैं इस छोटी सी कविता के साथ
विरोध कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
कि कायम रहे
अणुओं का कंपन
अणुओं का कंपन कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
विद्रोह का तापमान
वरना ठंढा होते होते
हर पदार्थ
अंततः विरोध करना बंद कर देता है
और बन जाता है अतिचालक
उसके बाद
मनमर्जी से बहती है बिजली
बिना कोई नुकसान झेले
अनंत काल तक
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 5, 2011 at 10:19pm — 4 Comments
मंज़र खींचातानी का
अनशन है बाबा जी का
राहुल बाबा गायब हैं
लगता सब फीका फीका
गायब है चालीस खरब
सवा अरब की कंट्री का
काला धन आये वापस
मुंह काला हो दोषी का
दस मारो और एक गिनो
नशा हिरन हो लोभी का
Added by वीनस केसरी on June 4, 2011 at 3:30pm — 2 Comments
गजल-
सोच समझकर कदम उठाना।
कहीं ऐसा न हो पडे पछताना।।
यह दुनियां इतनी गोल है दोस्तों।
कोई न यहां अटल ठहराना।।
जिसने गम को खा लिया।
उसे क्या खाना औ खिलाना।।
जिनको कोई समझ नहीं हैं।
मुश्किल हैं उनको समझाना।।
हुक्म देना आसाँ होता हैं लेकिन।
मुश्किल हैं करना औ करवाना।।
अभी आज कल या बरसो बाद।
आखिर इक दिन सबको जाना।।
नसीब में लिखा ही मिलता हैं।
सबको यहां पे आबो-दाना।।
हम तो तेरे हो…
Added by nemichandpuniyachandan on June 4, 2011 at 12:30pm — No Comments
Added by योगराज प्रभाकर on June 4, 2011 at 8:30am — 5 Comments
गाँधीवादी गुण्डों ने ही लूट लिया गाँधी का देश
जात पात मजहब पंथों में फूट लिया गाँधी का देश॥
रघुपति राघव राजाराम मंदिर के कारण बदनाम,
ईश्वर या अल्लाह का नाम अब करवाता कत्ले-आम।
सत्य प्रेम की पगडंडी से छूट लिया गाँधी का देश॥
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई बन बैठे हैं आज कसाई,
चंगुल में हैवानों के मानवता बकरी सी आयी।
कर हलाल हैं रहे हाय! अब टूट लिया गाँधी का देश ।।
गाँधी जी का धर्म अहिंसा, इनका है…
ContinueAdded by आचार्य संदीप कुमार त्यागी on June 3, 2011 at 8:28am — 2 Comments
गजल
आंखों में उल्फत का अंजन लगाईए।
टूटते हुए रिश्तों पे बंधन लगाईए।।
गर जज्बातो में नफरत की बू आये तो।
ऐसे सवालातों पे मंजन लगाईए।।
जब कभी जुल्मो-सितम हद से गुजर जाये।
तब अम्न के लिये जानो-तन लगाईए।।
लेने के बदले कुछ देना भी सिखिये।
हर जगह मुफ्त का ना चंदन लगाईए।।
जब रंजों-गम से दिल चंदन बेकरार हो जाये।
तब अंतस में धुन अलख निरंजन लगाईए।।
Added by nemichandpuniyachandan on June 2, 2011 at 12:00pm — 3 Comments
Added by neeraj tripathi on June 2, 2011 at 11:48am — 5 Comments
Added by Pallav Pancholi on June 2, 2011 at 12:30am — 2 Comments
Added by Neet Giri on June 1, 2011 at 6:30pm — 4 Comments
जीवन क्रम
संगत-असंगत
जड़ चेतन
नदी की धारा
काँपती पतवार
मन भँवर
चढ़ती धूप
लम्बी परछाइयाँ
ढलती धूप
धुप्प अंधेरा
दिए की हिलती लौ
आखरी आस
सूना आंगन
चाँदनी चुप-चाप
व्यथित मन
मन के रिश्ते
छितरे तार-तार
ऐसे बेगाने
बासी हो जातीं
दिल में बसी यादें
टूटें सपने
Added by Neelam Upadhyaya on June 1, 2011 at 5:00pm — 5 Comments
ओबीओ पर आप दोस्तों ने मेरा कलाम पढ़कर हमेशा मेरी हौसला-अफ़्ज़ाई की है । आप क़द्रदानों के लिये मैं अपनी ताज़ा ग़ज़ल को, जोकि "OBO लाइव तरही मुशायरा" अंक ११ में शामिल हुई थी, अपनी ख़ुद की आवाज़ में पेश कर रहा हूं । इसे सुनने के लिये नीचे दिये बॉक्स के प्ले बटन को क्लिक करें :…
Added by moin shamsi on June 1, 2011 at 2:30pm — 14 Comments
Added by Rash Bihari Ravi on June 1, 2011 at 1:00pm — 2 Comments
आदरणीय साथियों,
आप सभी का ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के प्रति समर्पण और विश्वास अब मिडिया की नज़रों में भी आने लगा है, लखनऊ से प्रकाशित प्रसिद्ध हिंदी समाचार पत्र जन सन्देश टाइम्स ने ओ बी ओ के बारे में एक बड़ा सा Article छापा है | आप सभी को बधाई |…
ContinueAdded by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 1, 2011 at 12:00am — 20 Comments
यह रचना मेरे छोटे से (उम्र से तो २८ साल का है पर लगता मेरे बेटे जैसा ही है), बहुत प्यारे से भाई के लिए लिखी है, वो दिल्ली में रहता है और उससे मिले करीब ढाई साल हो गए हैं... मेरे दो भाई हैं एक बड़ा और एक छोटा, इश्वर करे सब को ऐसे भाई मिलें
शानू के हाथों में तेरे हाथ नज़र आते हैं,
मगर तेरे हाथों को हाथ में लिए बड़ा वक़्त हो गया
स्काइप पे तुझे देख-सुन लेती हूँ,
पर तुझे गले से लगाए बड़ा वक़्त हो गया
कोई ख़ास बात होती है तो ही…
ContinueAdded by Anjana Dayal de Prewitt on May 31, 2011 at 9:00pm — No Comments
निम्नांकित पद्यों में घनाक्षरी छंद है, ‘कवित्त’ और ‘मनहरण’ भी इसी छन्द के अन्य नाम हैं। इसमें चार पंक्तियाँ होती है और प्रत्येक पंक्ति में ३१, ३१ वर्ण होते हैं। क्रमशः ८, ८, ८, ७ पर यति और विराम का विधान है, परन्तु सिद्धहस्त कतिपय कवि प्रवाह की परिपक्वता के कारण यति-नियम की परवाह नहीं भी करते हैं। यह छन्द यों तो सभी रसों के लिए उपयुक्त है, परन्तु वीर और शृंगार रस का परिपाक उसमें पूर्णतया होता है। इसीलिए हिन्दी साहित्य के इतिहास के चारों कालों में इसका बोलबाला रहा है। मैं इस छन्द को छन्दों का…
ContinueAdded by आचार्य संदीप कुमार त्यागी on May 31, 2011 at 8:19am — 9 Comments
मुझसे तन्हाई मेरी ये पूछती है,
बेवफ़ाओं से तेरी क्यूं दोस्ती है।
चल पड़ा हूं मुहब्बत के सफ़र में,
पैरों पर छाले रगों में बेखुदी है।
पानी के व्यापार में पैसा बहुत है,
अब तराजू की गिरह में हर नदी है।
एक तारा टूटा है आसमां पर,
शौक़ की धरती सुकूं से सो रही है।
बिल्डरों के द्वारा संवरेगा नगर अब,
सुन ये, पेड़ों के मुहल्ले में ग़मी है।
हां अंधेरों का मुसाफ़िर चांद भी है,
चांदनी के…
ContinueAdded by Dr. Sanjay dani on May 31, 2011 at 7:08am — 2 Comments
Added by Veerendra Jain on May 31, 2011 at 12:27am — No Comments
मुक्तिका :
भंग हुआ हर सपना
संजीव 'सलिल'
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.
माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..
तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?
पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..
बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
************
Added by sanjiv verma 'salil' on May 31, 2011 at 12:02am — No Comments
Added by Anjana Dayal de Prewitt on May 30, 2011 at 9:30pm — 2 Comments
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