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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १४

तुमको चाहा हमने तो मायूसी मिली

और न पाया तुझे तो जिन्दगी मिली

 

गले मिल के साथ साथ दोनों रोते थे

कल रात मेरे दुखोंसे जब खुशी मिली

 

आह तेरा दीद अश्कसे सूखी आँखोंको

समा न पाए जो इतनी रौशनी मिली

 

दामानेयार की सबा से मरनेवालों को

साअतेमर्ग दो पल की जिन्दगी मिली

 

कलशब कोई आधीरात कहके रोताथा

वफ़ा नीमशबहै मिली पे अधूरी मिली  

 

नसीब देताहै पर क्या ये बात दीगरहै

दिल की लगी चाही पे…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:58pm — 1 Comment

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १३

ज़िंदगी गुज़र न जाए कहीं सवालों में

कि ज़रा शराबभी ढालो रखे प्यालों में

 

तमन्ना है कि अवाम का कहलाऊं मैं

नाम लिया न जाए फक़त मिसालों में

 

कहींतो कोई बात कुछ गलत लगतीहै

तफरका क्यूँ हुआ है तेरेमेरे हवालों में

 

भूख मिटाए ये ताकत नहीं निवालोंमें

आह ये बच्चे गड्ढे हैं जिनके गालोंमें

 

गुबारेख्वाब फूट जाता है ऊँचा हो कर

मंसूबे हमनेभी बाँधे थे कई ख्यालों में  

 

सुनाहै दमेमर्ग नाबीनाभी देख…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:21pm — 1 Comment

औरत की क़ुरबानी

औरत वही जो औरों के हित देती अपनी क़ुरबानी 
नारी जीवन शीतल सा पानी और चंदा सी चांदनी ||
 
औरों के हित रत, खुद का तन तपता रेगिस्तानी 
आदमी का भ्रूण सहर्ष सैहती दे अपनी बच्चेदानी ||
 
औरत  त्याग की मूरत, ढक घूँघट में अपनी…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 27, 2012 at 9:30am — 6 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १२

सबों से दिल की मुश्किलों का सबब क्या कहिए 

मगर जब अपनेही पूछें येसवाल तब क्या कहिए



वक्त क्यूँ ढाता है मासूमों पर गजब क्या कहिए

कहाँ जाती है नेकी -ए-कायनात अब क्या कहिए 



रूठकर खो गई जो अज्दाहामे फिक्रेदौराँ में कभी 

होती है अबभी उन निगाहोंकी तलब क्या कहिए 



बहुत एहतियात से हुस्न की नजाकत संभालिए

रहिए फिक्रमंद कि तबक्या और अबक्या…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:11am — 5 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ११

दो घूँट पिला दे साकी तो कोई बात बने 

तेरे गेसुओं से बुन के आज की रात बने



दो किनारे हैं समंदरके कहाँ मिल पाते हैं

कोई सूरत कमरओमेहरकी मुलाक़ात बने 



आओ कर लें दुआ इन्केलाबे तगय्युर की 

अज़- सरे- नौ अब आईन्दा कायनात बने



गर तेरी निगाह है बादा तो दुआ करता हूँ

देखने वालों के सीने में एक खराबात बने



ख़्वाब कामिलहो, मनचाही…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:07am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १०

अब और जी के जहाँमें क्या कर लेंगे 

चलो हम आलमेबालामें नया घर लेंगे



ये कहाँ आ गए, किस मोड़पे हो तुम 

मंजिल नहीं हो तो क्यूँ राहगुज़र लेंगे 



न जाओ तुम मेरी बेफ़िक्रीओमस्ती पे 

होश खो दोगे कभू हम जो संवर लेंगे 



इन परीरूओं के दामसे बच कर रहना 

इक हंसी देंगे तो बदले में जिगर लेंगे 



सब्र करिए कि सब्र का फल मीठा है 

लेंगे…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:04am — 1 Comment

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ९

मकते का शेर दरअसल इस बात के पसेमंज़र कहा गया है कि मेरे ख्यालों की उड़ान, मेरे मिजाजोतबीयत की रुझान और मेरी मआशी (आजीविका से जुडी) ज़िंदगी में कोई मेल नहीं है और मैं अक्सरहा खुद को गलत जगह पाता हूँ. 



खुदा के बंदे हैं खुदा के बन्दों से क्यूँ डरें

आओ प्यारसे एक दूसरेको बाहोंमें भरलें 



अगर तुम मिल जाओ किसी साअत मुझे 

सुबहें भी बस थमी रहें, शामें भी ना ढलें 



ज़मानेको कहाँ नसीब मेरे ख्यालोंकी…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:03am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८

कोई हसीन नज़ारा नज़र को चाहिए 

बसएक दरीचा दीवारोदर को चाहिए 



लो फ़ैल गई किसी जंगलकी आगसी

अफवाहों की तेज़ी खबर को चाहिए 



थोड़ी ज़मीन और थोड़ा आबो रौशनी

बस यही दौलत बेखेशज़र को चाहिए



दो जामा एक चारपाई माथे पर छत

और दो जूनकी रोटी बशरको चाहिए 



क्यूँ दिल को तेरा ख़याल हर साअत

और तेरे मूका दीदार नज़रको चाहिए



तेरी…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:00am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७

ना करो कोई तफरका लड़के और लड़की में 

तुख्मेखल्क बराबर है औरत और आदमी में 



जो तुम मार डालोगे अपनीही कोखका जना

तोफिर क्या फर्क रहेगा इंसान और वहशीमें



बेटियाँ तो गुलपाश हैं गुलिस्ताने कुनबा की

फैलतीहैं ये बनके मुश्केबू हज़ार ज़िन्दगी में



ए ज़हालतमें भटकेहुए बिरादर संभल जाओ

तारीकीएतआस्सुबसे निकल आओ रौशनी में 



बेटेतो बड़े होके बसा लेते हैं अपना घोंसला 

बेटियाँ पोछतीहैं आपके आंसूं खुशीओगमीमें 



न होती मरियम तो कहाँ होते…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:57pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६

ज़माने भर की सताइश भी बहुत कम है 

जोतेरे दहनपे मेरी तारीफ़का एक ख़म है 



इक मुहब्बतथी जावेदां वोभी नहीं नसीब 

इस आलमे फना में क्या दूसरा अलम है 



कहानी नई नहीं अजअज़ल यही दास्ताँहै 

दिल है तो दर्द है, मुहब्बत है तो गम है 



आओ बताएं क्याक्या है बागेमुहब्बत में 

जुल्म है ज़ोर है ज़ब्र है जफा है सितम है



ज़िंदगी एकसी है दर्द एक इन्केशाफ एक 

आँखों को जैसे अश्क गुलों को शबनम है



ये कायनात कोई ख्वाब बीदा परीज़ादी है …

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:54pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५

कब तलक यूँ ही गली-गली में सताई जाएँगी बेटियाँ 

कभी ज़हेज़ तोकभी इज्ज़तको जलाई जाएँगी बेटियाँ 



कब तलक दुल्हन बननेके लिए गैरतके खरीदारों को 

सजा-धजाके किसी खिलौनेसी दिखाई जाएँगी बेटियाँ



माँ बहन बीवी और बेटी सभी हैं आखिरशतो बेटियाँ

फिर क्यूँ कब्रसे पहले हमल में सुलाई जाएँगी बेटियाँ 



खुदा भी क्या सोचता होगा आलमेअर्श में बैठा- बैठा

अगले खल्कमें सिर्फ और सिर्फ बनाई जाएँगी बेटियाँ 



अगर यूँ ही बेटियों को तआस्सुब से देखा जाएगा तो …

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:50pm — 2 Comments

साहित्य विहार में बहार देवनागरी

भीनी भीनी मीठी मीठी
मधुर सुगन्ध लिए
साहित्य विहार में बहार देवनागरी

बिखरी अनेकता को
एकता में जोड़ती है
तार तार से जुड़ी सितार  देवनागरी

नेताजी,पटेल,लाला
लाजपत राय  जैसे 
क्रान्तिकारियों की तलवार देवनागरी

तुलसी,कबीर,सूर,
रहीम,बिहारी,मीरा,
रसखान से फूलों का हार देवनागरी

Added by Albela Khatri on June 26, 2012 at 11:00pm — 12 Comments

तेरा मेरा साथ (गीत)

तू बादल है मैं मस्त पवन 

उड़ते फिरते उन्मुक्त गगन 

गिरने न दूंगा धरा मध्य 

बाहों में ले उड़ जाऊँगा 

तू बादल है मैं मस्त पवन 

उड़ते फिरते उन्मुक्त गगन 

.

मन के सूने आँगन में 

मस्त घटा बन छायी हो 

रीता था जीवन मेरा 

बहार बन के आयी हो 

जम के बरसो थमना नहीं 

प्यासा न रह जाए ये…

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 26, 2012 at 10:14pm — 1 Comment


सदस्य कार्यकारिणी
फिफ्टी-फिफ्टी हास्य गज़ल.................

कच्ची रोटी भी  प्रेमिका की भली लगती है

बीबी अच्छी भी खिलाये तो जली लगती है |



बीबी  हँस दे  तो कलेजा ही  दहल जाता है

प्रेयसी  रूठी  हुई  भी  तो  भली  लगती है |



नये - नये  में  बहु  कितनी  भली लगती है

फिर  ससुर - सास को वो बाहुबली लगती है |



कलि  अनार की  लगती  थी ब्याह से पहले

अब मैं कीड़ा हूँ  और वो छिपकली लगती है |



फिर  चुनी  जायेगी  दीवार में पहले की तरह

ये    मोहब्बत  सदा  अनारकली  लगती  है |



इस  शहर …

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Added by अरुण कुमार निगम on June 26, 2012 at 9:14pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४

बहुत कुछ हमने पढ़ा है किताबों में

ज़िंदगी मगर नहीं समातीहै बाबों में

 

इत्मीनान हुए तो बेचैन हो उठे हम

सुकूंकी आदत होगई है इज्तेराबों में

 

बेपर्दा हुएतो पहचान न पाए तुमको

जोभी देखाहै वो देखा है हिजाबों में 

 

तुम गएतो खराबातेइश्क उजड़ गया

नशा अब कहाँ बाकी रहा शराबों में

 

कारिज़ थे जो तेरे होगए हैं कर्ज़दार

न जाने चूक कहाँ होगई हिसाबों में

 

हमें धोखामिला उनसे जोथे मोतेबर

तुम सबात…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 9:00pm — 7 Comments

व्यंग रचना- अर्थ-तंत्र पर भारी

अर्थ-तंत्र पर भारी राज-तंत्र में गठबंधन सरकार,
गठबंधन-धर्म निभाने की मज़बूरी में यह सरकार |
 
डालर रुपये को मार रहा, ऊपर महंगाई की मार…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 26, 2012 at 7:30pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३

भोपाल की इक सुबह...

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भोपाल की इक सुबह...जून का महीना और गर्मी का तेवर चढ़ा हुआ. किसी महानगर सी हलचल का कोई निशाँ नहीं. हाँ, इक छोटे, अलसाए से कस्बे के जीवन की मद्धम धड़कन की अंतर्ध्वनि कानों में आहिस्ता गूंजती, जैसे खामोशी अगर कभी बोलती तो यूँ बोलती. लताएं हल्के हलके अंदाज़ में सुस्त हवाओं के ताल पे डोलतीं, सडकों पे बेज़ार कुत्ते इधर उधर मुंह मारते, रुपहली धूप के गर्म होते साये मकानों पे फैलते- भोपाल की ये तस्वीर अद्भुत है. लोग कब घरों से निकल के दफ्तर…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 6:13pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २

महीनों बाद भोपाल के घर में बैठा एकांतप्रस्थ मेरा मन.....

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शाम इक दुल्हन की तरह सजी संवरी महक रही है. डूबते सूरज की लालिमा के घूंघट ने उसे और भी युवा बना दिया है, पीतवर्णी क्षितिज जैसे उसकी सुडौल बाहें हैं, सारी धरा इस दुल्हन की सौम्य काया, नीड़ों को लौटते पक्षियों का कलरव जैसे दुल्हन के आभूषणों की कर्णप्रिय ध्वनियाँ हैं, कोयल की आवाज़, जैसे दुल्हन की पाजेब की खनक. अस्तमान सूर्य के अर्धचन्द्राकार वलय से विकीर्ण…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 6:10pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- १

दिन किसी पैसेंजर ट्रेन की तरह है...

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दिन किसी पैसेंजर ट्रेन की तरह है जिसपे हर सुबह हम सवार हो जाते हैं. रोज़ का बंधा बंधाया सफर सुब्ह से शाम तक का और फिर वापिस अपने अपने घरों में. सुबह की निकली ट्रेन दोपहर के स्टेशन आ चुकी है, कुछ थकी थकाई, सांसे थोड़ी ऊपर नीचे, चेहरे पे सफर की धूल और आँखों में रुकते-दौड़ते रहने की थकान. लोग अपने अपने मुकामों के प्लेटफोर्म पे उतर कर न जाने क्या ढूँढते रहते हैं, क्या कदो-काविश (भाग-दौड़) है, क्या कारोआमाल…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 6:00pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३

हज़ार जिगर को तेरे मिलने की चाहत हो

काम क्या बने जब न अपनी किस्मत हो

 

मैंने अक्सरहा रोटी और कपड़ों से पूछा है

ज़रूरतोंके दाफिएके लिए कितनी दौलतहो

 

क्यूँ अभीसे ही तू सूफियाना हुआ जाता है

ऐ दिल तुझे कोई ख्वाहिश कोई हसरत हो

 

हसरतों को लूटकर करते हो मिजाजपुरसी

दुआ है तुझेभी जूनूँ हो दर्द हो मुहब्बत हो 

 

लो ऐलान करदिया कि आगए हैं बाज़ारमें

ज़िंदगी तवाइफ़ है मेरी, अबतो इनायत हो

 

ज़िंदगी भर रहे…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 5:26pm — 4 Comments

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