भोपाल की इक सुबह...
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भोपाल की इक सुबह...जून का महीना और गर्मी का तेवर चढ़ा हुआ. किसी महानगर सी हलचल का कोई निशाँ नहीं. हाँ, इक छोटे, अलसाए से कस्बे के जीवन की मद्धम धड़कन की अंतर्ध्वनि कानों में आहिस्ता गूंजती, जैसे खामोशी अगर कभी बोलती तो यूँ बोलती. लताएं हल्के हलके अंदाज़ में सुस्त हवाओं के ताल पे डोलतीं, सडकों पे बेज़ार कुत्ते इधर उधर मुंह मारते, रुपहली धूप के गर्म होते साये मकानों पे फैलते- भोपाल की ये तस्वीर अद्भुत है. लोग कब घरों से निकल के दफ्तर पहुँच जाते हैं, ये पता भी नहीं चलता, चौड़ी फ़ैली सडकों पे ट्राफिक सुस्त चाल से सरकते किसी सांप का बदन हो जैसे, आहिस्ता आहिस्ता रेंगते बिना पैरों संकुचन और विकुचन की क्रिया का त्रि-आयामी दृश्य. बी एच ई एल की सम्पूर्ण टाउनशिप और इसके गिर्दोपेश का अन्यमनस्क देहाती जनजीवन मुख्य नगर के लताकुंजों और झीलों से भरी रहाइशगाह का चित्रण और भी सटीकता से करते हों. सन १९८४ दिसंबर की गैस त्रासदी ने गोया भोपाल को एक संन्यासी जैसी मानसिकता दे दी हो......सारे विकारों के मध्यस्थ अबोध, अगम्य, अनंत, निर्लिप्त और निर्विकार जीवन.
भोपाल, तुझसे मुझे बहुत कुछ सीखना है!
© राज़ नवादवी
भोपाल, प्रातःकाल १०.५९, १६/०६/२०१२
Comment
शुक्रिया राजेश कुमारी जी, आपने पढ़ा और सराहा!.
भोपाल का सुन्दर शब्द संयोजन से अप्रतिम चित्रण ...अति सुन्दर
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