दिन किसी पैसेंजर ट्रेन की तरह है...
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दिन किसी पैसेंजर ट्रेन की तरह है जिसपे हर सुबह हम सवार हो जाते हैं. रोज़ का बंधा बंधाया सफर सुब्ह से शाम तक का और फिर वापिस अपने अपने घरों में. सुबह की निकली ट्रेन दोपहर के स्टेशन आ चुकी है, कुछ थकी थकाई, सांसे थोड़ी ऊपर नीचे, चेहरे पे सफर की धूल और आँखों में रुकते-दौड़ते रहने की थकान. लोग अपने अपने मुकामों के प्लेटफोर्म पे उतर कर न जाने क्या ढूँढते रहते हैं, क्या कदो-काविश (भाग-दौड़) है, क्या कारोआमाल (काम-काज)- दुनिया में हर किसी की अपनी एक और दुनिया है जहाँ के सारे किर्दार (चरित्र), सारे कायदे, और सारा आलम उसकी अपनी सोच की धुरी से पैदा हुआ है. यहीं सपने हैं, यहीं तन्हाई है, यहीं मुसर्रत (खुशी) है, यहीं उदासी है. आदमी अपने अपने प्लेटफार्म की भीड़ में भी कितना अकेला है, अपनी इन्फिरादी (व्यक्तिगत) दुनिया के मुफस्सिल (शह्र की बाहरी हदें) में. वक्त ने सीटी बजाई और सब वापस अपने अपने डब्बों में सवार अपनी पुरानी जगहों पे मुस्तैद- कोई सुकून से बैठा, कोई चैन से लेटा, और कोई अब भी जगह की तलाश में इधर उधर झांकता.
ट्रेन इक बार फिर से चल पड़ी है शाम तक के सफर पे, रात के आते आते ज़िंदगी भी अपनी अपनी खोलियों में लौट आएगी सुबह इक और सफर पे चलने के लिए ज़रूरी ताकतोतवानाई (शक्ति और ऊर्जा) हासिल करने को !
© राज़ नवादवी
भोपाल, अपराह्न ०२.०७, १६/०६/२०१२
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