212 212 212 212
आप जब आईने में सँवर जाएंगे ।
फिर तसव्वुर मेरे चाँद पर जाएंगे ।।1
गर इरादा हमारा सलामत रहा ।
तो सितारे जमीं पर उतर जायेंगे ।।2
आज महफ़िल में वो आएंगे बेनकाब ।
देखकर हुस्न को इक नज़र जाएंगे ।।3
आज मौसम हसीं ढल गयी शाम है ।
तोड़कर आप दिल अब किधर जाएंगे ।।4
कीजिये बेसबब और इनकार मत ।
हौसले और मेरे निखर जाएंगे ।।5
जानकर क्या करेंगे…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on June 30, 2018 at 6:43pm — 12 Comments
बाबू राम नाथ पचहत्तर पार कर चुके हैं। शरीर अब जवाब देने लगा है। अभी कई दिन पहले जरा डाॅक्टर से चैक-अप कराने गये थे कि देर तक धूप में खड़ा रहना पड़ा । घर लौटते तेज़ बुखार हो गया। बेटा संयोग से इस वीक एन्ड पर सपत्नीक चला आया। दोनों बहनें जो अपने बच्चों के गर्मियो की छुट्टियों में आयी हुईं थी।सो डाॅक्टर को घर बुला लाया।
"हीट स्ट्रोक हुआ है', ङाॅक्टर बोला था। दवा दे गया था। अब आराम था। लेकिन कमजोरी बहुत थी। लू मानो सारा खून चूस गई थी। बाथरूम भी मुश्किल से जा पाते थे।
अभी कल…
Added by Chetan Prakash on June 30, 2018 at 6:00pm — 14 Comments
बहुत हुआ सूरज का तपना
अब तो आओ मेघ
जम कर बरसो मेघ
तपती धरती का सीना हो ठंढा
सूखी मिट्टी महके सोंधी
बंजर सी जमीं पर
अब फैले हरियाली
ठूंठ बन गए पेड़ों के
पत्ते अब हरियाएँ
नभ पर जमकर छा जाते
गरज का बिजली कड़काते
संग में वर्षा भी लाते
गर्मी डरकर जाती भाग
मौसम हो जाता खुशहाल
पर बादल तो
इधर से आये उधर गए
हम तो आस ही लगाए रहे
खुली चोंच लिए पक्षी
प्यासे ही रह गए
खेत जोतने को
हल लिए किसान…
Added by Neelam Upadhyaya on June 30, 2018 at 3:25pm — 8 Comments
इस बार सरकार के सामने जो प्रस्ताव आया था वह चोंकाने वाला था। उनकी माँग थी कि राष्ट्रीय ध्वज में चक्र के स्थान पर गाय का चेहरा दिखाया जाय। अन्य धार्मिक संगठनों ने भी इस माँग का समर्थन कर डाला। इसके पीछे उनकी दलील थी कि इससे देश और विदेश में गाय का सम्मान बढ़ेगा और महत्व भी। इस नीति से गाय के विरुद्ध होने वाली हिंसा भी रुकेगी| अतः सरकार को झुकना पड़ा। सरकार का इरादा था कि इस नीति को गुप्त रखा जाय और चुनाव के वक्त खुलासा किया जाय। एक तरह से सरकार इस नीति को हथियार के रूप में चुनाव में भुनाना…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on June 30, 2018 at 11:30am — 8 Comments
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फाइलुन
उसने बिखरे काग़ज़ों को छू के संदल कर दिया
इक अधूरी सी ग़ज़ल को यूँ मुकम्मल कर दिया
कुछ तो दीवाना…
ContinueAdded by santosh khirwadkar on June 30, 2018 at 8:30am — 18 Comments
मापनी २१२२ २१२२ २१२२ २१२२
गाँव से आकर नगर में फिर वो’ मंजर ढूँढते हैं
ईंट गारे के महल में गाँव का घर ढूँढते हैं
रौशनी देने सभी को मोम पिघला भी, जला भी …
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on June 29, 2018 at 4:00pm — 12 Comments
प्रतीक (लघु रचना ) .....
मेरे होटों पे
तूने अपने स्पर्श से
जो मौन शब्द छोड़े थे
सोचा था
वो
ज़हन की गीली मिट्टी में गिरकर
अमर गंध बन जाएंगे
क्या पता था
वो स्पर्श
मात्र
भावनाओं की आंधी थे
जो अन्तःस्थल में
एक घुटन के
प्रतीक
बन कर रह गए
एक स्वप्न का
यथार्थ कह गए
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 29, 2018 at 12:43pm — 4 Comments
घुमड़-घुमड़ बदरा छाये,
चम-चम चमकी बिजुरियां,छाई घनघोर काली घटाएं,
घरड-घरड मेघा बरसे,
लगी सावन की झड़ी,करती स्वागत सरसराती हवाएं........
लो,सुनो भई,बरखा बहार आई......
तपती धरती हुई लबालव,
माटी की सौंधी खुश्बू,प्रफुल्लित बसुन्धरा से संदेश कहती,
संगीत छेड़ती बूंदों की टप-टप ,
लहराते तरू,चहचहाते विहग,कोयल मधुर गान छेड़ती.......
लो सुनो भई,वरखा बहार आई.......
छटा बिखर गई,मयूर थिरक उठा-सा,
सुनने मिली झींगरों की झुनझुनी,पपीहे…
ContinueAdded by babitagupta on June 28, 2018 at 8:30pm — 9 Comments
5 क्षणिकाएं :
१
रात
रोज मरती है
अपने दोस्त
दिन के
इंतज़ार में
................
२
तपते सागर का
दर्द
लाते हैं मेघ
भीग जाती हैं
वसुधा
...................
३
नैनालिंगन
मौन अभिनन्दन
अधर समर्पण
....................
४
ज़िद पर आ जाये
तो
पाषाणों को…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 28, 2018 at 4:30pm — 4 Comments
जरा ज़ुल्फें हटाओ चाँद का दीदार मैं कर लूँ !
बस्ल की रात है तुमसे जरा सा प्यार मैं कर लूँ !!
बड़ी शोखी लिए बैठा हूँ यूँ तो अपने दामन में !
इजाजत हो अगरतो इनको हदके पार मैंकरलूँ!!
मुआलिज है तू दर्दे दिल का ये अग़यार कहते हैं!
हरीमे यार में खुद को जरा बीमार मैं कर लूँ !!
यूँ ही बैठे रहें इकदूजे के आगोश में शबभर !
जमाना देख ना पाये कोई दीवार मैं कर लूँ !!
तुझे लेकर के बाहों में लब-ए-शीरीं को मैं चूमूँ !
कि होके बेगरज़ अब इकनहीं…
Added by रक्षिता सिंह on June 28, 2018 at 3:16pm — 11 Comments
"इन दरख़्तों के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा; कोई यहां गया, कोई वहां गया !" कटे हुए पेड़ों के शेष ठूंठों और उनकी कराहती जड़ों की ओर निहारते हुए पड़ोसी पेड़ अपनी शाखाओं का रुख़ ज़मीं की ओर करते हुए एक फ़िल्मी नग़में की तर्ज़ पर शोक-गीत गाने लगे।
"ये शहादत खाली नहीं जायेगी! दिल्ली की खिल्ली उड़वा रहे हैं दुनिया में शेख़ चिल्ली!" पास के एक ऊंचे से पेड़ ने अपना अंतिम अट्टाहास करते हुए कहा।
"नये दरख़्त कितने भी कहीं भी लगवा लें, न तो उनके बीज और जड़ों की वह गुणवत्ता…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 28, 2018 at 6:30am — 9 Comments
विषाक्त उजाले :
कितना लालायित था
बाहर की दुनिया से
मिलने के लिए
दम घुटने लगा था मेरा
अंदर ही अंदर
गर्भ के
घुप अँधेरे में
रोशनी से
आलिंगनबद्ध होने के लिए
जब से
गर्भ से निकला हूँ
जी रहा हूँ
अपनी ही अंतस में
चुपचाप सा
यही सोचते हुए
क्या इन्हीं
विषाक्त
उजालों के लिए
जीव
गर्भ के
अन्धकार का
त्याग करता है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 27, 2018 at 6:18pm — 6 Comments
संवेदनाओं की पथरीली चोटी पर बैठकर
अपने रिसते हुए घावों को देखता हुआ
ये कौन है
जो कभी कुत्ते की तरह
जीभ से उन्हें चाटता है
तो कभी मुट्ठी में नमक भर कर
उनमें उड़ेल देता है
और फिर एक तपस्वी की तरह
ध्यान लगाकर सुनता है
अपनी आहों और कराहों को?
पत्थरों को उठा कर
अपने लहू में डुबा कर
भावनाओं की लहरों पर बैठे हुए
कौन लिख रहा है उनसे
अपना मृत्यु लेख?
किसी फन्दे पर लटक कर
एक पल में शान्ति से गुज़र जाने की अपेक्षा…
Added by Mahendra Kumar on June 27, 2018 at 9:03am — 4 Comments
विकास के नाम पर
व्यापार के दाम पर,
धनाढ्य, नेता, मंत्री,
बाबाजी सब काम पर!
इंसानियत होम कर,
अनुलोम-विलोम सा
हेर-फेर कर!
बच्चों, नारी,
ग़रीब, किसान
घेर कर!
पड़ोसियों से बैर कर,
रिश्ते-नातों को
तजकर, बेच कर!
या रिश्तों के नाम
जाम, दाम, नाम
लगाकर,
दूर के आभासी
अनजाने से
रिश्ते थाम कर,
मर्यादाओं को लांघ कर,
मानव-अंग उघाड़ कर,
येन-केन-प्रकारेण
अंग-निर्वस्त्रीकरण कर,
निज-स्वतंत्रता,…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 27, 2018 at 6:00am — 2 Comments
2122 1212 22
गुल जो सूखा किताब में देखा ।
आपको फिर से ख़्वाब में देखा ।।
बारहा चाँद की नज़ाक़त को ।
झाँक कर वह नकाब में देखा ।।
मैकदे में गया हूँ जब भी मैं ।
तेरा चेहरा शराब में देखा ।।
वस्ल जब भी लगा मुनासिब तो।
कोई हड्डी कबाब में देखा ।।
तोड़ पाता उसे भला कैसे ।
हुस्न उसका गुलाब में देखा ।।
डाल कर फूल राह में सबके ।
मैंने पत्थर जबाब में देखा ।।
लुट गईं रोटियां गरीबों…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on June 26, 2018 at 9:43pm — 16 Comments
क़लम लाचार है
विरोध की तेज़ धार है
घोषणाएँ जारी हैं
ग़रीब का भूखा पेट भी आभारी है
झोंपड़ियों के ऐब सारे ढँक गए
ग़रीब के घर बेबसी की बीमारी है
संसद में भूख का आँकड़ा गरमा रहा है
रहनुमा विकास का तराना गुनगुना रहा है
धर्म के ठेकेदारों की दबंगई है
ईमान की बोली सस्ती लगी है
दहशत में सबकुछ फलफूल रहा है
मदारी ख़ुद झूठ के बाँस पर चल रहा है
बहुत तरक़्की हो चुकी है
चैन की बाँसुरी भी सुर खो चुकी है
सरकार का चरित्र साफ़-साफ़ नज़र आ रहा है…
Added by Mohammed Arif on June 26, 2018 at 8:30am — 17 Comments
दुर्मिल सवैया
अबला नहिं आज रही महिला, सबला बन राज करे जगती।
मुहताज नहीं सब काज करे, मन ओज अदम्य सदा भरती ।।
धरती नभ नाप रही पल में, प्रतिमान नये नित है गढ़ती।
यह बात सभी जन मान गये, अब नार नहीं अबला फबती।१।
परिधान हरा तन धार खुशी, ललना गल धीरज हार गहा।
सिर बाँध दुकूल उमंग नया, मन केशरिया रँग आज लहा।।
शुभ कंगन साहस हाथ भरा, मुख आस सुहास विराज रहा।
पथ उन्नति एक चुना उसने, बिसरे सब पंथ विराग…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on June 25, 2018 at 8:26pm — 13 Comments
दुकान के चबूतरे पर चारों मित्र एकदम चौंकते हुए खड़े होकर अपने-अपने धर्म के सिखाये मुताबिक़ कुछ उच्चारण करते हुए अर्थी में ले जाये रहे मृतक को नमन कर श्रद्धांजलि देने लगे।
"ओह, इनके घरवालों को यह सदमा बरदाश्त करने की शक्ति दे! इन्हें स्वर्ग में स्थान दे!" अशरफ़ ने आसमान की ओर देखते हुए कुछ ऐसा ही उच्चारित किया।
"अबे, तू तो हमेशा उर्दू-अरबी में कुछ बोलता है न मय्यत पर! जन्नतनशीं और तौफ़ीक़ जैसे लफ़्ज़ों में!" रामलाल ने उसे टोक ही दिया।
"दरअसल तुम्हारे 'स्वर्ग' और…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 25, 2018 at 7:25pm — 6 Comments
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन
दर्द अपना यूँ सर-ए-बाज़ार कर के
क्या मिलेगा वक़्त से तक़रार कर के
कुछ नहीं हासिल,समझते क्यों नहीं हो
गम उठाना आह भरना प्यार कर के
सामने उस मोड़ पर कुछ अनमना सा
शख़्स इक बैठा है सब न्योछार कर के
बन्दगी उल्फत है मैं था इस गुमां में
वो नहीं आया अना को पार कर के
दिल जला के रौशनी होती नहीं है
ये भी 'ब्रज' ने देखा है सौ बार कर के
(मौलिक एवं अप्रकाशित)…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 25, 2018 at 6:00pm — 23 Comments
क्या है कविता?
भाव-प्रवण शब्दों का
मोहक जाल
डम-डम, डिम-डिम
ध्वनियों का कमाल
प्रकृति में गुंजायमान,
अनहत नाद?
स्यात, प्रणय का…
ContinueAdded by SudhenduOjha on June 25, 2018 at 5:14pm — No Comments
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