फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन
दर्द अपना यूँ सर-ए-बाज़ार कर के
क्या मिलेगा वक़्त से तक़रार कर के
कुछ नहीं हासिल,समझते क्यों नहीं हो
गम उठाना आह भरना प्यार कर के
सामने उस मोड़ पर कुछ अनमना सा
शख़्स इक बैठा है सब न्योछार कर के
बन्दगी उल्फत है मैं था इस गुमां में
वो नहीं आया अना को पार कर के
दिल जला के रौशनी होती नहीं है
ये भी 'ब्रज' ने देखा है सौ बार कर के
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार आदरणीय राज साहब...दूसरे शेर में 'गम उठा के आह भर के प्यार कर के' इसमें के शब्द की पुनरावृत्ति से मजा नहीं आएगा...हालाँकि तीसरे शेर में आदरणीय समर जी की बात का संज्ञान है मुझे।उसको यूँ करता हूँ "शख़्स इक बैठा है सब न्यौछार कर के" बताइयेगा...
वैसे जनाब समर कबीर साहब की बात सही लगती है क्योंकि प्रयोग में हम कहते हैं कि हम (मसलन कुछ भी) हार के बैठे हैं, हार कर के बैठे हैं, ऐसा नहीं. सादर
ब्रिजेश जी बस यूँ ही:
सामने उस मोड़ पर कुछ अनमना सा
शख़्स इक बैठा है सबकुछ हार कर के
इसे ऐसे किया जा सकता है क्या?
अपनी बर्बादी के सूने खंडहरों में
शख़्स इक बैठा है सबकुछ हार कर के
सादर
आदरणीय ब्रज जी, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति के दिल मुबारकबाद. इस शेर को
कुछ नहीं हासिल,समझते क्यों नहीं हो
गम उठाना आह भरना प्यार कर के
यूँ कर लें तो?
कुछ नहीं हासिल,समझते क्यों नहीं हो
गम उठाके, आह भरके, प्यार कर के
सादर
आदरणीय ब्रजेश जी नमस्कार
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल....मुबारकबाद कुबूल करें ।
हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय तेजवीर सिंह जी सादर
स्वागत संग आभार आदरणीय महेंद्र जी सादर
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