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August 2015 Blog Posts (185)

गजल(मनन)

जिंदगी है जब किसीके नाम आये जिंदगी,

जिंदगी है जब कभी पैगाम लायेे जिंदगी।

जिंदगी है कह रही तेरी कथा अबतक हसीं,

जिंदगी है जब किसीके काम आये जिंदगी।

जा रही तू अब तलक है कामिनी इठला अरी,

जिंदगी है जब कहीं मोक़ाम आये जिंदगी।

तू रही अबतक बरस पर धूम ही छाता गया,

जिंदगी है जब बरस कोंपल खिलाये जिंदगी।

पड़ रही बेकल गले अपने-पराये कर रही,

जिंदगी है जब ठहर सीने लगाये जिंदगी।

गा रही गुनगुन हमेशा धुन हवाओं की रही,

जिंदगी है जब किसीका दर्द गाये… Continue

Added by Manan Kumar singh on August 31, 2015 at 5:38pm — 2 Comments

ग़ज़ल-पता अपना बता दे तू मुझे ऐ आसमाँ वाले।

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

मेरी तकदीर में लिख दे उसे ऐ आसमाँ वाले।

सिवा उसके मुझे कुछ भी न दे ऐ आसमाँ वाले।



मुझे उस शख़्स के दिल में बसा दे सिर्फ चाहे तू।

नसीबों के सभी सुख छीन ले ऐ आसमाँ वाले।



बिना तुझसे मिले समझा नहीं सकता तुझे अब मैं।

पता अपना बता दे तू मुझे ऐ आसमाँ वाले।



मुहब्बत के सफर में अब मुहब्बत के परिन्दें हो।

मिटा दे नफरतों के काफिले ऐ आसमाँ वाले।



न बस्ती में न जंगल में न सहरा में न उपवन में।

ये दिल मेरा न सावन में… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on August 31, 2015 at 3:16pm — 8 Comments

अंगूठी (लघु कथा ) ....

अंगूठी (लघु कथा )

'नहीं,नहीं … देखो अब इस घर में रहना शायद मुमकिन नहीं है। 'रेनू ने गुस्से में अपने पति रणधीर से कहा और बैग में अपने कपड़ों को रखने लगी। ''दीपू चलो अपने खिलोने उठाओ और अपने बैग में रखो। ''रेनू ने अपने सात साल के बेटे को करीब करीब डांटते हुए कहा। दीपू भौंचका सा डर कर अपने पापा की तरफ देखकर अपने खिलौने बैग में रखने लगा। ''देखो रेनू ! यूँ छोटी छोटी बातों पर रूठ कर ज़िंदगी के बड़े फैसले नहीं लिए जाते। क्या हुआ अगर मम्मी ने तुम्हें बर्तन साफ़ करने के लिए कह दिया। उनकी…

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Added by Sushil Sarna on August 31, 2015 at 2:39pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
कबीरा, सूर, मीरा और तुलसीदास रखता हूँ। (ग़ज़ल)

1222---1222---1222-1222

 

मैं घर से दूर आया हूँ मगर कुछ ख़ास रखता हूँ।

तुम्हारी याद की ताबिश हमेशा पास रखता हूँ।

 

कभी वट पूजती हो तुम, दिखा के चाँद को…

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Added by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 2:03pm — 28 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मिला आज बेटा वो बलवाइयों में (फिलबदीह ग़ज़ल 'राज')

122   122  122    122

कुहुकती है कोयलिया अमराइयों में

महकते  कई  फूल पुरवाइयों में  

 

दिखाई  न  दी आज दीवार उनकी

अजी, क्या सुलह हो गई भाइयों में ?

 

ग़मों के  भँवर में जो खोया था बचपन

मिला आज यादों की परछाइयों में

 

पिघलते हों पत्थर धुनें जिनकी सुनकर

फुसूँ हमने देखा वो शहनाइयों में

 

उजाले  में दिन के छुपे रहते बुजदिल

उमड़ते वही अब्र तन्हाइयों में

 

न कद से समंदर की औकात…

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Added by rajesh kumari on August 31, 2015 at 11:57am — 15 Comments

पास आ, आह्वान करता

फासला, मैं अमान करता।
आप का, अवधान करता।।
हो ख़फ़ा, आख़िर भला क्यों।
मान जा, अविगान करता।।। (अविगान= मतैक्य)

रात्रि सा, छाया तिमिर है।
चन्द्र का, अरमान करता।।

भज रहा, तेरी भजन हिय।
देख ना, गुणगान करता।।

सांस का, है क्या भरोसा।
जान जा, मैं बयान करता।।

प्राण ना, मिलने निकल दे।
पास आ, आह्वान करता।।

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 31, 2015 at 10:42am — 6 Comments

कैसे हम आजाद हैं (दोहा-गीत)

 कैसे हम आजाद हैं, है विचार परतंत्र ।

अपने पन की भावना, दिखती नहीं स्वतंत्र ।।

भारतीयता कैद में, होकर भी आजाद ।

अपनों को हम भूल कर, करते उनको याद ।

छुटे नही हैं छूटते, उनके सारेे मंत्र । कैसे हम आजाद हैं....

मुगल आक्रांत को सहे, सहे आंग्ल उपहास ।

भूले निज पहचान हम, पढ़ इनके इतिहास ।।

चाटुकार इनके हुये, रचे हुये हैं तंत्र । कैसे हम आजाद हैं...

निज संस्कृति संस्कार को, कहते जो बेकार ।

बने हुये हैं दास वो, निज आजादी हार…

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Added by रमेश कुमार चौहान on August 31, 2015 at 10:00am — 6 Comments

इसीलिए फूले फिरते हो [कविता ]

 दुःख से अब तक नहीं मिले हो

इसीलिए फूले फिरते हो I

 

 ज्ञान  ध्यान की बातें सारी 

सुख सुविधा संग लगती प्यारीI

चेहरे पर पुस्तक  चिपकाये

दूजों को ही पाठ पढ़ाये

खुद  उनको तुम सीख न पाए I

खुद को पढ़ना  भूल गए  हो

इसीलिए  फूले फिरते हो I

 

 चीज़ों का बस संचय करना

अलमारी को हर दिन भरना I 

नया जूता जो देता छाला

लगता कितना  पीड़ा वाला I

नंगे पैरों के छालों से

अब तक शायद नहीं मिले…

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Added by pratibha pande on August 30, 2015 at 6:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल ,,,,,,,,, गुमनाम पिथौरागढ़ी ,,,,,,,

२१२२  २१२२  २१२२  २१२

भेड़िये यूँ घूमते हैं झोपड़ी के सामने

डालते वहशी नज़र सब छोकरी के सामने

जेब खाली देखकर ये रेजगारी कह उठी

जेब खाली मत दिखाना तुम किसी के सामने

पेट बच्चा भर ना पाता बूढ़े से माँ बाप का

रोज मजमा जो लगाता घर गली के सामने

इस नशे में देखिये तो घर उजाड़े हैं बहुत

ये नशा दीवार है घर की ख़ुशी के सामने

शाम से ही सज रही मजबूर सी ये लडकियाँ

ज़ख्म ढक के आ गयीं हैं अब सभी के…

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Added by gumnaam pithoragarhi on August 30, 2015 at 8:37am — 7 Comments

ग़ज़ल:गगन में हैं हमारे पाँव भूतल ढूँढ़ते हैं (भुवन निस्तेज)

है खोया क्या  किसे वो आज हर पल ढूँढ़ते हैं,

गगन में हैं हमारे पाँव भूतल ढूँढ़ते हैं ।

 

सभाओं में कोई चर्चा कोई मुद्दा नहीं है,

सभी नेपथ्य में बैठे हुए हल ढूँढते हैं ।

 

उन्हें होगा तज्रिबा भी कहाँ आगे सफर का,

वो सहरा में नदी, तालाब, दलदल ढूँढ़ते हैं ।

 

कहीं से खुल तो जाये कोठरी ये आओ देखें,

दरों पर खिडकियों पर कोई सांकल ढूँढ़ते हैं ।

 

यूँ भी बेकारियों का मसअला हो जायेगा हल,

जो अब तक खो दिया है…

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Added by भुवन निस्तेज on August 30, 2015 at 8:30am — 14 Comments

चेहरा / लघुकथा / कान्ता राॅय

आधी रात को रोज की ही तरह आज भी नशे में धुत वो गली की तरफ मुड़ा । पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी सी लड़की पर जैसे ही नजर पड़ी , वह ठिठका ।



लड़की शायद उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी ।



करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी ।

चार लडके घूर रहे थे उसे । उनमें से एक को वो जानता था । लडका झेंप गया नजरें मिलते ही । अब चारों जा चुके थे ।

लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी… Continue

Added by kanta roy on August 30, 2015 at 6:33am — 24 Comments

आज फिर इक सुहागन अभागन हुई

आवरण छोड़ कर तुम चले तो गये, आभरण आज उसका उतारा गया।

आज फिर इक सुहागन अभागन हुई, उसका सिन्दूर धुल के बहाया गया।।  

मयकदे से तुम्हारी लगन क्या लगी, देख ले ना गृहस्थी अगन में जली।

आचरण के असर से भले तुम गये, एक दुल्हन को बेवा बनाया गया।।  

कल्पना से परे चेतना से परे, जाने संसार में कौन से तुम गये।

हे भ्रमर किस सफर पर चले तुम गये, रंग तेरे सुमन का मिटाया गया।।  

कितने संताप आँखों के रस्ते बहे, कितने सपने सुलग कर भशम हो…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 29, 2015 at 11:58pm — 7 Comments

कोण तलाशते लोग

तुम गोलाई में तलाशते हो कोण

सीधी सरल रेखा को बदल देते हो

त्रिकोण में

हर बात में तुम तलाशते हो

अपना ही एक कोण

तुम्हें सुविधा होती है

एक कोण पकड़कर

अपनी बात कहने में

बिन कोण के तुम

भीड़ के भंवर में

उतरना नहीं चाहते

तुम्हें या तो तैरना नहीं आता

या तुम आलसी हो

स्वार्थी और सुविधा भोगी भी

तुम्हें सत्य और झूठ से भी मतलब नहीं है

इस इस देश में गढ़ डाले है

तुमने हजारो लाखों कोण

हर कोण से तुम दागते हो तीर

ह्रदय को…

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Added by Neeraj Neer on August 29, 2015 at 11:14am — 12 Comments

दोहा गीत - रक्षा बंधन पर्व में,

दोहा गीत -

रक्षा बंधन पर्व में,

दुनिया भर का प्यार

 

ऐसा पावन पर्व यह, है भारत की शान

सम्बन्धों की डोर का, बढे खूब सम्मान |

राखी धागे में बँधी, रक्षा की पतवार

बहन लुटाती भ्रात पर, दुनिया भर का प्यार

 

राखी धागा प्रेम का, बहना देती मान,

आत्महीन भाई वही दे न सके सम्मान |

रिश्ते ही परिवार में, जीने का आधार

भाई के उपहार में, दुनिया भर का प्यार

 

रक्षा बंधन पर्व में, छुपी खूब यह प्रीत

सबसे ऊपर…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 29, 2015 at 10:30am — 10 Comments

सुनो भैया !

 

सुनो भैया !

कहीं मन नहीं लगता

जिधर देखती हूँ

तुम ही दिखाई देते हो

कभी आँगन में

माँ के साथ बैठे हुए, कभी

द्वार पर माँ के साथ

मन की बात करते हुए



मै जब भी आती थी

माँ के साथ-साथ तुम्हारे चेहरे पर भी

चमक आ जाती थी

माँ के आँचल की छाँव में

हम दोनों बचपन की यादें

याद कर खुश होते

और माँ भी युवा हो जाती थी   

दिन कैसे बीत जाते पता ही नहीं चलता



अब वही घर है वही आँगन

पर ना तुम हो ना माँ…

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Added by Meena Pathak on August 29, 2015 at 9:30am — 4 Comments

ग़ज़ल :- अपनी बहना के नाम एक ग़ज़ल

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन


अपनी बहना के नाम एक ग़ज़ल
मेरी चाहत का है ये चेक ग़ज़ल

पाक जज़्बात इसमें शामिल हैं
इसलिये कह रहा हूँ नेक ग़ज़ल

एक शाइर की दोनों औलादें
एक व्हाइट है इक ब्लेक ग़ज़ल

इसके जादू से कौन बच पाया
सबके दिल पर करे अटेक ग़ज़ल

ग़म के मारों को मिल रहा है सुकूँ
दर्द पर कर रही है सेक ग़ज़ल

है गुज़ारिश, "समर" सुनाओ हमें
डायरी में करो न पेक ग़ज़ल

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

Added by Samar kabeer on August 28, 2015 at 10:46pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मुम्बईया मजाहिया ग़ज़ल -- मिथिलेश वामनकर

1222---1222---1222-1222

 

सटक ले तू अभी मामू किधर खैरात करने का

नहीं है बाटली फिर क्या इधर कू रात करने का

 

पुअर है पण नहीं वाजिब उसे अब चोर बोले तुम…

Continue

Added by मिथिलेश वामनकर on August 28, 2015 at 8:30pm — 32 Comments

भाई (कविता)

भावना के वेग से प्रेम के वाशीभूत हो
नैनो को करके सजल वो रात की रानी सी बहना ।
राम की मूरत निहारे कहे चाहिए भाई सा गहना
मन निकले कुछ स्वर तो बोले खुद ही बोल
मेरे आज से बस राम तेरे उन्ही को तू भाई कहना ।
मांगती हूँ एक वचन बांधकर रेशम की डोरउ
शाम हो या हो सवेरा जेठ की तपती दोपहरी
या शर्द रात्री का हो पहरा
जाऊ जिस भी मोड़ से में जिंदगी के हर मोड़
पर भाई मेरे संग संग ही रहना ।


मौलिक एवम् अप्रकाशित ।

Added by Rajan Sharma on August 28, 2015 at 5:00pm — 2 Comments

चार मित्रों, चार चेलों से मिली क्या वाह वाह (मज़ाहिया ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

 

चार मित्रों, चार चेलों से मिली क्या वाह वाह

मैं समझने लग गया ख़ुद को ग़ज़ल का बादशाह

 

एक चेले की जुबाँ दी काट मैंने इसलिए

बात मेरी काटने का कर दिया उसने गुनाह

 

बात क्या है, क्यूँ है, कैसे है मुझे मतलब नहीं

मंच पर पहुँचूँ तो फिर मैं बोलता धाराप्रवाह

 

अब सिवा मेरे न इसको प्यार कर सकता कोई

हो गया है शाइरी का आजकल मुझसे निकाह

 

चार छः चमचे मिले, माइक मिला, माला…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 27, 2015 at 10:00pm — 6 Comments

खुद को प्रांजल कैसे लिख दूँ

खुद को शुद्ध नहीं कर पाया, तुझ को कश्मल कैसे लिख दूँ।

मन पर पाप का बादल छाया, खुद को निर्मल कैसे लिख दूँ।।



प्रतिपल भजन लोभ के गाऊँ, हर पल स्वार्थ साधना चाहूँ।

लोभ का दमन नहीं कर पाया, खुद को निश्छल कैसे लिख दूँ।।



भ्रम की पर्त चढ़ी है नैन, कटती नहीं कठिन ये रैन।

तिमिर को दूर नहीं कर पाया, आत्मा उज्जवल कैसे लिख दूँ।।



चलता जाता मैं प्रतिदिन, पकड़नें अपना ही प्रतिबिम्ब।

अब तक प्राप्त नहीं कर पाया, खुद को निश्चल कैसे लिख दूँ।।



कण्ठ तक आ… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 27, 2015 at 9:56pm — 10 Comments

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