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चेहरा / लघुकथा / कान्ता राॅय

आधी रात को रोज की ही तरह आज भी नशे में धुत वो गली की तरफ मुड़ा । पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी सी लड़की पर जैसे ही नजर पड़ी , वह ठिठका ।

लड़की शायद उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी ।

करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी ।
चार लडके घूर रहे थे उसे । उनमें से एक को वो जानता था । लडका झेंप गया नजरें मिलते ही । अब चारों जा चुके थे ।
लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद !

" तुम इतनी रात को यहाँ कैसे और क्यों ?"

" मै अनाथाश्रम से भाग आई हूँ । वो लोग मुझे आज रात के लिए कही भेजने वाले थे । " दबी जुबान से वो बडी़ मुश्किल से कह पाई ।

"क्या..... ! अब कहाँ जाओगी ? "

" नहीं मालूम ! "

" मेरे घर चलोगी ? "

".........!"

" अब आखिरी बार पुछता हूँ , मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए ? "

" जी " ....मोतियों सी लड़ी गालों पर ढुलक आई । गहन कुप्प अंधेरे से घबराई हुई थी ।

उसने झट लड़की का हाथ कसकर थामा और तेज कदमों से लगभग उसे घसीटते हुए घर की तरफ बढ़ चला । नशा हिरण हो चुका था ।

कुंडी खडकाने की भी जरूरत नहीं पडीं थी । उसके आने भर की आहट से दरवाजा खुल चुका था । वो भौंचक्की सी खड़ी रही ।

" ये लो , सम्भालो इसे ! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए । अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे । "


मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by kanta roy on September 3, 2015 at 11:17pm

आदरणीय सौरभ जी , आपका ये मार्गदर्शन सहित त्रृटियों को इंगित करना मेरे लिये इस मंच पर अनुपम सौगात हुआ है । आपसे ये मेरा विशेष निवेदन है कि मुझपर सदा ये अनुग्रह बनाये ऱखियेगा । मेरा , लेखन में अभी शैशव काल है और मैं समझने के लये अति उत्सुक भी हूँ । कभी -कभी मैं वक्त लेती हूँ समझने में और अनजाने में गलती का दोहराव भी कर बैठती हूँ अक्सर , इसलिये सदा इसी तरह मुझे मेरी गलतियों पर सचेत कर मुझ पर कृपा बनाये रखियेगा । सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 3, 2015 at 10:51pm

वस्तुतः यह रचना ही होती है जो कुछ कहने के लिए प्रेरित करती है. या फिर उस रचना का रचनाकार. 

आज इस मंच पर कई सदस्य हैं जो सापेक्षतः नये हैं.

आदरणीया कान्ताजी, यह सबको मालूम है कि रचनाओं पर नीर-क्षीर चर्चा यदि न हो तो फिर रचनाकर्म कमज़ोर रह जाता है. लेकिन नीर-क्षीर चर्चा किन्हीं की रचना पर हो जाये जो इनका आदी नहीं है तो..  आदरणीया, हमारा अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है. आपने जब-तब ऐसा महसूस किया होगा कि कुछ सदस्य ऐसी प्रतिक्रियाओं को सहज रूप में नही लेते. 

आपकी संलग्नता, सीखने की अदम्य इच्छा तथा सुझावों के बाद रचनाओं के सुधरे स्वरूप को लेकर आपका अभ्यास हमसभी को उत्साहित तो करता ही है, आशान्वित भी करता है. 

आपके ही माध्यम से वे सदस्य भी लाभान्वित हो जायेंगे, जिनकी रचनाओं में ऐसी कुछ बातें होंगीं जैसी आपकी रचना में मिली हैं. 

आपको मेरा निवेदन काम का लगा, मैं अनुगृहित हूँ. 

हमसब समवेत सीखते हैं 

सादर

Comment by kanta roy on September 3, 2015 at 11:00am

एक सामान्य सी लघुकथा ने आपको विवश किया इतनी सुन्दर विवेचना के लिए मैं तो कृतार्थ हो गयी इस अनुपम समीक्षा को पाकर। आपने लघुकथा के तत्थों के साथ व्याकरणीया दृष्टिकोण से अवगत कराया और इसके रेशे -रेशे की समीक्षा की ,इतना गूढ़ पठन के योग्य रचना को समझा ,इसके लिए शत -शत नमन आपको।


// जब वाक्य में दो संज्ञाओं के सर्वनाम प्रयुक्त होते हों तो लेखक के तौर पर हमें अधिक सचेत रहने की आवश्यकता होती है. अन्यथा उलझाव हो जाता है. ’करीब जाकर पूछने वाला’ अलग है, ’दाहिनी तरफ इशारा’ करने वाला अल्ग है. जिसकी ’नज़र वहाँ घूमी’ भी इनमें से कोई एक है. क्या हो रहा है इस वाक्य में ? व्याकरण के अनुसार इसे वाक्य दोषपूर्ण माने जाते हैं. कारण कि, पाठक प्रस्तुति के कथ्य और तथ्य पर दिमाग़ लगाये या वाक्य-विन्यास पर ?//

-----यहाँ लेखन में एक नई दृष्टि मिली हमें की हम इन पहलुओं को अनदेखा नहीं कर सकते हैं लेखन में।

//लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद ! //-----

मैंने यहां कोशिश की थी की लड़की के मन की दुविधा को रोपित करने की ,उसकी मजबूरी ने उससे विवश किया उस पुरुष (बेवड़े) पर भरोसा करने के लिए।

//’कुप्प’ शब्द वस्तुतः ’घुप्प’ है. ’कुप्प’ ’कुआँ’ का तत्सम स्वरूप होता है//----

हिन्दी साहित्य में शब्द - शब्द का अर्थ -अनर्थ ये जाना मैंने आज आपके द्वारा की गई इस समीक्षा से ।
आपके इस सार्थक शिक्षात्मक टिप्पणी की वजह से ऐसा लगा जैसे मन-मस्तिष्क पर पडे एक ताले में कोई सही चाभी लग गई है । सृजन-काल में इन बातों पर बेहद सतर्क रहने कि जरूरत आन पडी है ।

पूज्य श्री बिलकुल सही कहें है परसों अपने लघुकथा और कहानी संदर्भ में कि हम सिर्फ अभी लिखना समझे हैं कहना नहीं । मुझे तो ऐसा भान हो रहा है कि लिखना सीखना भी जैसे अभी बाकी ही है हमारा ।
इस विशेष अनुग्रह के लिये सदा आभारी रहूंगी आपका आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ।
गुरूजनों समेत सादर नमन मंच को ।

Comment by shashi bansal goyal on September 2, 2015 at 11:40pm
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आनंद आ गया आपकी टिप्पणी पढक़र । इतनी बारीकी से गहनता के साथ आपने आद0 कांता जी की रचना की जो विवेचना की है उससे मस्तिष्क के बहुत से तंतु खुल गए । धन्यवाद इतनी ज्ञानवर्धक जानकारी साझा करने हेतु । सादर ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 2, 2015 at 8:37pm

कुछ प्रस्तुतियों के आयाम तनिक विशिष्ट हुआ करते हैं. यह शीर्षक के मात्र कथात्मक बहाव के कारण नहीं होता, बल्कि इस बात पर भी निर्भर करता है कि उनके साथ रचनाकार बर्ताव कैसा कर रहा है. यही बताता है कि रचनाकार वस्तुतः चाहता क्या है !
यह लघुकथा अपने सामान्य बहाव में ही बढ़ती है. लेकिन प्रहारक-पंक्ति के रूप में उद्धृत वाक्य इसका टर्निंग-प्वाइण्ट है. पाठक को आवश्यक पंच मिल जाता है. लघुकथा निस्संतान दंपति की मनोदशा को जिस गहराई से प्रस्तुत करती है वह इसके रचनाकार के तौर पर आदरणीया कान्ताजी की सोच और उसके आयाम के प्रति आश्वस्त करता हुआ है.

इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाइयाँ और अशेष शुभकामनाएँ, आदरणीया कान्ताजी.

अब लघुकथा के व्यावहारिक पक्ष को लिया जाये.  तो अंत, जो कि इस लघुकथा की उद्येश्य और बल है, आशा से अधिक आशावादी है, कई तरह के प्रश्नों को आकर्षित करता हुआ-सा ! लाजिमी भी है. क्योंकि कोई स्त्री सड़क पर से लायी गयी युवती को सहज ही पुत्रीसम स्वीकार नहीं कर लेगी. चाहे वो आदती ’बेवड़े’ की ही पत्नी क्यों न हो.  पति कितना ही इम्पोजिंग क्यों न हो.

लेकिन लघुकथा विधा में ऐसी नाटकीयता सदा से स्वीकार्य रही है. निर्भर करता है कि नाटकीयता का निर्वहन कैसे हुआ है. ध्यातव्य है, कथ्य में नाटकीयता का सार्थक निर्वहन ही एक रचनाकार को इस लघुकथा  विधा में स्थापित करता है.

अब बातें व्याकरण की दृष्टि से --

//करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी //

जब वाक्य में दो संज्ञाओं के सर्वनाम प्रयुक्त होते हों तो लेखक के तौर पर हमें अधिक सचेत रहने की आवश्यकता होती है. अन्यथा उलझाव हो जाता है. ’करीब जाकर पूछने वाला’ अलग है, ’दाहिनी तरफ इशारा’ करने वाला अल्ग है. जिसकी ’नज़र वहाँ घूमी’ भी इनमें से कोई एक है. क्या हो रहा है इस वाक्य में ? व्याकरण के अनुसाराइसे वाक्य दोषपूर्ण माने जाते हैं. कारण कि, पाठक प्रस्तुति के कथ्य और तथ्य पर दिमाग़ लगाये या वाक्य-विन्यास पर ?

दूसरे, सही वाक्यांश होगा - उसने अँगुली से अपने दाहिनी तरफ इशारा किया. ’तरफ’ स्त्रीलिंग की तरह इस्तमाल होता है.

//लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद ! //

प्रस्तुत वाक्य जब यह बता देता है कि उस पुरुष (बेवड़े) की अधेड़ावस्था से वह लड़की आश्वस्त-सी हो जाती है तो फिर ’या अविश्वास’ या मन में कोई भ्रम बनना उचित नहीं लगा. ऊहापोह को और बेहतर वाक्य मिल सकता था.

//"अब आखिरी बार पुछता हूँ , मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए ? "//

पुछता हूँ या पूछता हूँ ? अवश्य ही, ’पूछता हूँ’. 

//मोतियों सी लड़ी गालों पर ढुलक आई । गहन कुप्प अंधेरे से घबराई हुई थी //

इसी कथा में पहले लाइट-पोस्ट का ज़िक़्र हुआ है जिससे सहारा लिये हुए वह लड़की बतायी गयी है. फिर ये ’कुप्प’ वो भी ’गहन’ ’अँधेरा’ अचानक कहाँ से हो गया ? शायद बिजली चली गयी होगी. है न ?
दूसरे, ’कुप्प’ शब्द वस्तुतः ’घुप्प’ है. ’कुप्प’ ’कुआँ’ का तत्सम स्वरूप होता है.

शुभेच्छाएँ

Comment by kanta roy on September 2, 2015 at 5:43pm
तहेदिल से आभार आपको आदरणीय जवाहरलाल जी कथा पर मेरा हौसला बढाने के लिए ।
Comment by kanta roy on September 2, 2015 at 5:39pm
आदरणीय रवि जी , यहाँ इस पंक्ति पर मै भी ठहर गई थी कुछ पल को , लेकिन तुरंत ही मेरे मन में एक बात याद आ गई कि हमारे गाँव में एक बाँझ दम्पत्ति है जिनके पुरूष को सब "बँझिबा " और महिला को " बँझिनीयां " सहसा याद आ गया । फिर हिन्दी के भी कुछ शब्दों में "बाँझ "और "बाँझिन" शब्द याद आ गये , और मैने फिर बेझिझक ये शब्द यहाँ रोपित कर दिये । बाँझ और बाँझिन पुंलिंग स्त्रीलिंग में क्या और कितना भेद रखते है ये मै आपसे अधिक तो कतई नहीं समझ सकती हूँ । आप सब मुझे यहाँ सही मार्गदर्शन करें , क्योंकि मेरा सीखने का क्रम जारी है और ये मेरे आगे के लेखन के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा । आपका मार्गदर्शन सदा मेरे लिये एक कभी भी ना भूलने वाली सीख होती है । सादर नमन आपको
Comment by kanta roy on September 2, 2015 at 5:30pm
कथा पर आपके पसंदगी के साथ मेरी जिम्मेदारियों का एहसास करा कर तो आपने मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ा दिये है । हा हा हा हा ।
कथा पर इतने सुंदर अल्फाजों से मेरा हौसला बढाने के लिए तहे दिल से आपको आभार आदरणीय श्री सुनील जी ।
Comment by kanta roy on September 2, 2015 at 5:26pm
इतने सुंदर अल्फाजो से मेरा हौसला बढाया है आपने आदरणीय सुशील सरना जी कि आपने मेरे लिखने के उत्साह को दुगुना कर दिये है । सादर नमन आपको ।
Comment by kanta roy on September 2, 2015 at 5:23pm
दिल से आभार आपको आदरणीया शशि बंसल जी । आपका सदा मेरा हौसला बढाने मन को बहुत भाता है । सादर

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