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June 2015 Blog Posts (183)

ग़ज़ल : रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २

 

जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है

रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

 

पर्वतों से मिल यकीं होने लगा मुझको

हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है

 

छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें

पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है

 

सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में

यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है

 

तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना

वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 29, 2015 at 6:24pm — 26 Comments

ग़ज़ल : हमारा प्यार आँखों से अयाँ हो जायगा एक दिन

हमारा  प्यार आँखों से अयाँ हो जाएगा इक  दिन 

छुपाना लाख चाहोगे बयाँ हो जाएगा इक दिन 

ये सब वहशत-ज़दा रातें इसी उम्मीद में गुज़रीं 

कि तुम आओगे , रौशन ये  समां हो जाएगा इक दिन 

न टूटे दिल  , न तन्हा रात , न भीगी  हुई पलकें 

मगर सब छीन कर बचपन,जवां हो जाएगा इक दिन 

तुम्हारे सुर्ख होठों की महक में ऐसा जादू है 

कि भवरों को भी फूलों का गुमाँ हो जाएगा इक दिन 

लिखो बस  गीत उल्फ़त के और नग्मे प्यार के…

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Added by saalim sheikh on June 29, 2015 at 11:30am — 19 Comments

राय बहादुर : लघु कथा

“मेरे ग्रैंड फादर राय बहादुर थे” ..... उस व्यक्ति ने बुद्धिजीवियों की सभा में अकड़ के साथ यह बात कही ।   सभा के आयोजक ने भी गर्व से अपना सर ऊंचा कर लिया । वहाँ  उपस्थित लोग जो उस व्यक्ति को मिल रहे विशेष सम्मान, तवज्जो , उसके समृद्ध पहनावे एवं उसकी मंहगी गाड़ी से पहले ही नतमस्तक हो रहे थे, यह सुनकर थोड़े  और विनीत भाव दिखलाने लगे। उसे मंच पर सबसे ऊंची कुर्सी दी गयी । सब उसके साथ एक फोटो खिचवा लेना चाहते थे । महेश सभा में सबसे पीछे की कुर्सी पर उपेक्षित सा बैठा अपने मलिन कपड़ों को देख रहा था।  वह…

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Added by Neeraj Neer on June 28, 2015 at 6:25pm — 22 Comments

लघुकथा- आग

लघुकथा- आग

बरसते पानी में काम को तलाशती हरिया की पत्नी गोरी को बंगले में कुत्ते को बिस्कुट खाते हुए देख कर कुछ आश जगी, ‘ यहाँ काम मिल सकता है या खाने को कुछ. इस से दो दिन से भूखे पति-पत्नी की पेट की आग बुझ  सकती थी.’

“ क्या चाहिए ?”

“ मालिक , कोई काम हो बताइए ?”

“ अच्छा ! कुछ भी करेगी ?” संगमरमरी गठीले बदन पर फिसलती हुई चंचल निगाहें उस के शरीर के रोमरोम को चीर रही थी.

“ जी !! ” वह धम्म से बैठ गई. उसे आज महसूस हुआ कि बिना तन की आग बुझाए पेट की आग नहीं बुझ…

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Added by Omprakash Kshatriya on June 28, 2015 at 1:30pm — 18 Comments

प्राणि शिरोमणि

 

पढाया गया था-

‘मैन इज ए सोशल एनिमल’

हमने भी रट लिया

औरों की तरह

पर मन नहीं माना

कहाँ पशु और कहाँ हम

पर एक दिन जाना

पक्षी और पशु

दोनों ही बेहतर है

हम जैसे मानव से

क्योंकि 

भूख सबको लगती है 

पर पक्षी

न घुटने टेकता है

और न हाथ फैलाता है

रोता भी नहीं

गिडगिडाता भी नहीं  

हाथ तो मित्र

पशु भी नहीं फैलाते  

बल्कि वे…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 28, 2015 at 1:13pm — 9 Comments

अंधी आस्था का फायदा (लघुकथा)

"सर, हमारे अमरूदों के बाग़ में कुछ लोग रोज़ शाम को शराब पीते हैं साथ में जुआ भी..."
"एफ.आई.आर. करवा दो|"
"कोई फायदा नहीं सर, उसमें कुछ पुलिस वाले भी हैं..."
"तो फिर ये मूर्ती ले जाओ, शराब की बदबू अगरबत्ती और फूलों की खुश्बू में बदल जायेगी|"

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on June 28, 2015 at 12:37pm — 9 Comments

ग़ज़ल-नूर- फिर वो मीरा, राबिया दे जाएगा.

२१२२/२१२२/२१२/

मंज़िलों का जो पता दे जाएगा

ज़िंदगी का फ़लसफ़ा दे जाएगा.

.

और थोड़ा फ़ासला दे जाएगा

ज़िंदगी की गर दुआ दे जाएगा.

.

दिल को सतरंगी छटा दे जाएगा

फिर धड़कने की अदा दे जाएगा.

.

ग़म हमें अब और क्या दे जाएगा

बस नया इक तज्रिबा दे जाएगा.

.

आएगा कोई पयम्बर फ़िर नया

फ़िर नया हम को ख़ुदा दे जाएगा.

.

जब वो सोचेगा हमारे वास्ते

फिर वो मीरा, राबिया दे जाएगा.

.    

“नूर” बरसेगा ख़ुदा का एक दिन

मुश्किलों…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on June 28, 2015 at 10:54am — 31 Comments

"थकी हुयी सी जिन्दगी"

थकी हुयी सी जिन्दगी,

थका हुआ मुकाम है।

कौन सी जगह है ये,

हर कोई परेशान है।।

सुबह की धूप शाम है,

शाम रात सी घनी।

हवा मे क्या ये घुल रहा,

फिज़ा जहर सी बनी।

कहाँ आ गये है हम,

हर कोई हैरान है।।

अजनबी है हर कोई,

अजनबी है ये जहाँ।

मोबाईल वैब से जुडे,

दिलो के फासले यहाँ।

हर किसी का नाम है,

पर हर कोई बेनाम है।।

थकी हुयी सी जिन्दगी,

थका हुआ मुकाम है।

कौन सी जगह है ये,

हर कोई परेशान है।।



'विरेन्दर… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on June 28, 2015 at 9:22am — 13 Comments

माचिस की तीली की आत्मकथा ( लघुकथा )

सिरा है मेरा काला ,

तन है मेरा सफ़ेद |

मोल नहीं कुछ मेरा ,

करूँ अगर रंगों में मेरे भेद |

कोई ना जाने मोल मेरा,

गर रहूँ मैं डिब्बे में बंद |

बाहर निकल कर रगड़ जो खाऊं ,

तब बनु मैं ज्योत अखंड |

रहती हूँ अपनी सहेलियों के सांथ,

काम आती रहेंगी जो आपके ,

मेरे जाने के भी बाद |

लौ के रूप में उत्साह के सांथ हम बाँट लेती हैं एक दूजे का दर्द /``\ /``\

त्योहारों में दिया जलाकर खुशियां भी लाती हूँ |

बीड़ी-सिगरेट को जला कर धूम्रपान भी फैलाती…

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Added by Rohit Dubey "योद्धा " on June 27, 2015 at 7:59pm — 7 Comments

प्‍यार धरती की

बिछा मेरा जमीं पे दिल कदम अपने बढ़ाती है

मुझे ही प्‍यार करती है कसम भी रोज खाती है



न कोई प्‍यार अब लिखना, किताबो से मिटा देना

वफा कैसे करें पढ कर जला वो दिल दिखाती है



जुदाई चीज है ऐसी कही खुशियाँ कही दे गम

जुदा नभ से हो बूँदे प्यास धरती की मिटाती है



खिलो मत एे कमल अब तुम, तुझे देखे न अब दुनिया।

तुम्‍हारा नाम ले जिसको, पुकारू वो सताती है।।



छुपा लो चाँद को बादल, न है अब रौशनी प्यारी

उजाला देख कर मुझको, किसी की याद आती है



किसे…

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Added by Akhand Gahmari on June 27, 2015 at 5:05pm — 5 Comments

गजल-मेरा मन मेरे सामने आइना है

मेरा मन मेरे सामने आइना है
मेरा आज खुद से हुआ सामना है
तुम्हारे मिलन में मुझे फैलना है
मगर किसलिये आज मन अनमना है
तुम्हारी खुशी में हमारी खुशी है
खुशी से खुशी को हमें बाँटना है
महब्बत पनपती नहीं जकडनों में
ये रस्मों का जंगल हमें तोड़ना है
तुम्हारी महब्बत भी मंजिल थी लेकिन
अभी जिंदगी है अभी दौड़ना है

मौलिक व अप्रकाशित

Added by सूबे सिंह सुजान on June 27, 2015 at 2:12pm — 6 Comments

एक प्रयास आस्तित्व के लिए ( लघुकथा ) कान्ता राॅय

एक प्रयास आस्तित्व के लिए (लघुकथा )





भूमि उर्वरक थी । महत्वाकांक्षी थी, स्वंय के सर्वोच्च उत्पादन हेतु । वो ...... जिसके मालिकाना हक में बंधी हुई थी .... उदासीन निकला था ....भूमि के प्रति । जिसके परिणाम स्वरूप बंजर के उपनाम से उद्घोषित होने लगी थी ।



वह सृजन के लिए बेताब हो खरपतवार का ही पोषण करती गई । क्यों ना करें ..? सार्थक बीजों से मोहताज जो थी !

वह सृजन की अभिलाषी , अपना अभिलाषा चाहे कैसे भी पूरा करे ..!



राह चलते अब लोगों की नजर उस बड़ी बड़ी… Continue

Added by kanta roy on June 27, 2015 at 10:56am — 4 Comments

उड़ान : लघु कथा- हरि प्रकाश दुबे

“सुनंदा .सुनंदा, सुन तो सही, इतनी उदास क्यों है?”

“कुछ नहीं माँ बस सर में थोडा दर्द है !”

“अच्छा ठीक है तू नहा कर आ मैं तेरे सर की मालिश कर देती हूँ !”

“तुम भी न माँ हर बात के पीछे ही पड़ जाती हो .... सुनंदा ने चिल्लाते हुए कहा !”

“तेरी रगों में मेरा ही खून दौड़ रहा है सुनंदा, मैं सब समझ रहीं हूँ, तूने अपने पिता की म्रत्यु के बाद उनके दवाई बनाने के कारखाने को इतने अच्छे से संभाला, कभी भी तूने मुझे उनकी कमी महसूस नहीं होने दी, आज अगर वो जिन्दा होते तो भी क्या तू ऐसे…

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Added by Hari Prakash Dubey on June 27, 2015 at 9:07am — 6 Comments

पच्चईयाँ ( नाग पंचमी )

तीन दिन पहले से ही 

सच कहूँ तो एक हफ्ते पहले से ही 

पच्चईयाँ (नाग पंचमी) का 

इंतजार रहता था .... 

एक एक दिन किसी तरह 

से काटते हुये 

आखिर, पच्चईयाँ आ ही जाती थी 

पच्चईयाँ वाले दिन 

सुबह ही सुबह 

अम्मा पूरा घर 

धोती थी, हम सब को कपड़े 

पहनाती थी 

सुबह सुबह ही 

गली मे 

छोटे गुरु का बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग लो 

कहते हुये बच्चे नाग बाबा 

की फोटो बेचते थे 

हम वो…

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Added by Amod Kumar Srivastava on June 27, 2015 at 7:00am — 6 Comments

अनुभव(लघु कथा, मनन कुमार सिंह)

अनुभव(लघुकथा)
-नहीं।
-क्यों?
-डरती हूँ,कुछ इधर-उधर न हो जाए।
-अब डर कैसा?बहुत सारी दवाएँ आ गयी हैं,वैसे भी हम शादी करनेवाले हैं न।
-कब तक?
-अगले छः माह में।
-लगता है जल्दी में हो।
-क्यों?
-क्योंकि बाकि सब तो साल-सालभर कहते रहे अबतक।
लड़के की पकड़ ढीली पड़ गयी।दोनों एक-दूसरे को देखने लगे।फिर लड़की ने टोका
-क्यों,क्या हुआ?तेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ है क्या?
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

Added by Manan Kumar singh on June 27, 2015 at 12:01am — 4 Comments

बाँसुरी [दोहावली]

बन कान्हा की बाँसुरी, अधरों को लूँ चूम 

रस पी  कान्हा प्यार का ,नशे संग लूँ झूम ।।

 

ऐसा तेरी प्रीत का ,नशा चढ़ा चितचोर

अधर चूम के बाँसुरी ,करे ख़ुशी से शोर ।।

 

बन कान्हा की बाँसुरी, खुद पर कर लूँ नाज 

जन्म सफल होगा तभी ,छू लूँ उसकोआज ।।…

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Added by Sarita Bhatia on June 26, 2015 at 10:36pm — 1 Comment

गजल--मेरी किस्मत के पन्नों में कोई हरकत नहीं दिखती।

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

बहुत दिन हो गये अब भी कहीं राहत नहीं दिखती।

मे'री किस्मत के' पन्नों में को'ई हरकत नहीं दिखती।।

***

सभी मन्दिर में' मस्जिद,चर्च में दिल ले के' भटका हूँ।

किसी मजहब में' दुनिया के मुझे कुदरत नहीं दिखती।।

***

ते'री फुरकत के' तीरों ने किया हैं आश तक घायल।

मुझे अफसोस है तुझको मे'री हालत नहीं दिखती।।

***

सनम इक जख़्म रो रो कर बडी जिद करता' है मुझसे।

कहाँ से ला के' दूँ तुझको इसे गुरबत नहीं दिखती।।

***

हमारी जे़ब में… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on June 26, 2015 at 9:30pm — 18 Comments

ग़ज़ल : सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

हर एक शक्ल पे देखो नकाब कितने हैं

सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं

 

जले गर आग तो उसको सही दिशा भी मिले

गदर कई हैं मगर इंकिलाब कितने हैं

 

जो मेर्री रात को रोशन करे वही मेरा

जमीं पे यूँ तो रुचे माहताब कितने हैं

 

कुछ एक जुल्फ़ के पीछे कुछ एक आँखों के

तुम्हारे हुस्न से खाना ख़राब कितने हैं

 

किसी के प्यार की कीमत किसी की यारी की

न जाने आज भी बाकी हिसाब कितने…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 26, 2015 at 9:16pm — 22 Comments

अखंडित ( लघुकथा )

" आज कैसे याद किया , कोई काम था क्या ?

" नहीं यार , बस यूँ ही तुम्हारी याद आई और चला आया "|

कुछ देर बात चीत चलती रही और फिर वो उठ कर चल दिया | घर पहुँचते ही पत्नी ने पूछा " बात की उनसे , क्या कहा उन्होंने !

" हाँ , कहा तो हैं , देखो क्या होता हैं "|

" जब झूठ बोल नहीं सकते तो क्यों कोशिश करते हो | उनका फोन आया था , कह रहे थे जरूर कोई बात थी लेकिन मुझे बताया नहीं | अभी भी अपने उसूलों का पक्का हैं "|

" देखो तुम्हारे इतना कहने पर मैं चला तो गया था लेकिन कहते नहीं बना | खैर…

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Added by विनय कुमार on June 26, 2015 at 12:44am — 18 Comments

ग़ज़ल - ज़िन्दगी में तुम्हारी लहर मैं पिया

212 212 212 212

 

छोड़ दूँ अब कुंवारा नगर मैं पिया

काट लूँ सँग तुम्हारे सफर मैं पिया

 

मन न माने मगर क्या बताऊँ तुम्हें

साथ दोगे चलूंगी सहर मैं पिया

 

पंखुड़ी खिल गयी राग पाकर कहीं

बेज़ुबां अब न खोलूं अधर मैं पिया

 

मौत का गम नहीं साथ तुम हो मेरे   

मुस्करा के पियुंगी जहर मैं पिया

 

अब तुम्हारे सिवा कुछ न चाहूंगी मैं

दिल मिलाओ मिलाऊं नज़र मैं पिया

 

दूर से देखकर आज रुकना…

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Added by Nidhi Agrawal on June 25, 2015 at 12:01pm — 6 Comments

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