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एक प्रयास आस्तित्व के लिए ( लघुकथा ) कान्ता राॅय

एक प्रयास आस्तित्व के लिए (लघुकथा )


भूमि उर्वरक थी । महत्वाकांक्षी थी, स्वंय के सर्वोच्च उत्पादन हेतु । वो ...... जिसके मालिकाना हक में बंधी हुई थी .... उदासीन निकला था ....भूमि के प्रति । जिसके परिणाम स्वरूप बंजर के उपनाम से उद्घोषित होने लगी थी ।

वह सृजन के लिए बेताब हो खरपतवार का ही पोषण करती गई । क्यों ना करें ..? सार्थक बीजों से मोहताज जो थी !
वह सृजन की अभिलाषी , अपना अभिलाषा चाहे कैसे भी पूरा करे ..!

राह चलते अब लोगों की नजर उस बड़ी बड़ी हरितिमा से सजी खरपतवार पर पड़ने लगीं ।
हठात् उसे देख चलते - चलते किसान के कदम ठिठक से गये , और उसकी आँखों में एक बिजली सी चमक उठी ।

कुछ ही महीनों पश्चात उस खेत में गेंहू की बालियाँ अठखेलियाँ करती हुई भूमि को आह्लादित कर रही थी ।

अपने आस्तित्व की हारती हुई लड़ाई आखिर भूमि ने जीत ही ली ।


कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by kanta roy on July 8, 2015 at 7:31am
हा हा हा हा ......नमन आपको आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 8, 2015 at 1:49am

//अब किसान बटाई पर मालिक से खेत माँग आया होगा या खरीद ही लिया होगा ... कुछ तो जुगाड़ लगाया ही होगा खेत को गेंहूँ की बालियों से सजाने के लिए । अब लघुकथा लिख रहे है सब कुछ लिख देंगे तो कही कहानी ना बन जाये इसलिए अनकहा ही रहने दिया //

हा हा हा हा.............

Comment by kanta roy on June 28, 2015 at 11:14pm
आभार आपको तहे दिल से आदरणीय डा. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी , अब किसान बटाई पर मालिक से खेत माँग आया होगा या खरीद ही लिया होगा ... कुछ तो जुगाड़ लगाया ही होगा खेत को गेंहूँ की बालियों से सजाने के लिए । अब लघुकथा लिख रहे है सब कुछ लिख देंगे तो कही कहानी ना बन जाये इसलिए अनकहा ही रहने दिया । आभार
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 28, 2015 at 12:43pm

आ० कान्ता जी

भूमि जिसके मालिकाना हक़ में थी  वह उदासीन था  भूमि के प्रति ------------ तो भूमि किसान के पास कैसे पहुँच गयी स्वतः  

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