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प्‍यार धरती की

बिछा मेरा जमीं पे दिल कदम अपने बढ़ाती है
मुझे ही प्‍यार करती है कसम भी रोज खाती है

न कोई प्‍यार अब लिखना, किताबो से मिटा देना
वफा कैसे करें पढ कर जला वो दिल दिखाती है

जुदाई चीज है ऐसी कही खुशियाँ कही दे गम
जुदा नभ से हो बूँदे प्यास धरती की मिटाती है

खिलो मत एे कमल अब तुम, तुझे देखे न अब दुनिया।
तुम्‍हारा नाम ले जिसको, पुकारू वो सताती है।।

छुपा लो चाँद को बादल, न है अब रौशनी प्यारी
उजाला देख कर मुझको, किसी की याद आती है

किसे अपना कहा जाता किसे हम गैर हैं कहते।
नहीं ये भी पता मुझको मुझे वो क्‍यों भुलाती है

नदी के इक किनारे मैं खड़ा हो देखता रहता
निकल कर याद से मेरी कहाँ वो रोज जाती है

मौलिक एवं अप्रकाशित अखंड गहमरी

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Comment

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Comment by Akhand Gahmari on July 12, 2015 at 12:43pm

आदणीय मिथिलेस वामनकर जी, आदरणीय डा गोपाल नारायण श्रीवास्‍तव जी, आदरणीय सौरभ पाड़े जी आप सभी को नमन


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 8, 2015 at 1:53am

आपकी मेहनत रंग ला रही है, भाई.. शुभकामनाएँ

Comment by maharshi tripathi on July 1, 2015 at 11:47pm

खिलो मत एे कमल अब तुम, तुझे देखे न अब दुनिया।
तुम्‍हारा नाम ले जिसको, पुकारू वो सताती है।।,,,,,,,,,,,,,,वाह!! दाद कुबुलें आ. Akhand Gahmari  जी |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 28, 2015 at 12:50pm

बढ़िया गहमरी जी .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 4:58am

बढ़िया ग़ज़ल 

बधाई 

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