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February 2013 Blog Posts (194)

आँख मिचौली वासंती संग

पीत वसन से सजी धरती सखि 

सोन से भाव में तोलि  रही सब 

सोंधी सी खुश्बू हिया अब उमड़ति 

प्रीति के चन्दन लपेटि रही अंग 

कुसुमाकर बनि काम कुसुम तन 

सिहरन बनि झकझोरि रहे हैं 

नील गगन रक्तिम बदरी मुख …

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Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on February 14, 2013 at 11:56pm — 17 Comments

सात सुरों में साज

  बसंत ऋतु पर दोहे
- लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला
 

ऋतु बसंत का आगमन,खुशियों का उन्माद,

खुशबु है मन भावन सी,मधुर-मधुर सा स्वाद।
 
ऋतु बसंत दस्तक करे, जाड़े का…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 14, 2013 at 10:26pm — 14 Comments

कोई फूल अब थोडा खिलने तो दो

पत्थर दिलों के पिघलने तो दो
ज़रा होश अपने संभलने तो दो

सारा चमन तो जलाया है तुमने
कोई फूल अब थोडा खिलने तो दो

हर शाख पर अब तो उल्लू है बैठा  
कहीं इन परिंदों को मिलने तो दो

अंधेरों से डरते सभी हैं यहाँ पर
जरा तुम ये सूरज निकलने तो दो

ये आँखें ही कल की हकीकत रचेंगी
मगर आज ख्वाबों को पलने तो दो

-पुष्यमित्र उपाध्याय

Added by Pushyamitra Upadhyay on February 14, 2013 at 6:50pm — 7 Comments

सूनेपन का रंग

  • सूनेपन का रंग

सूनेपन का रंग ...

पतझड़ के सूखे पत्तों -सा पीला,

मेले में खो गए भयभीत

बालक की नब्ज़-सा नीला,

या अमावस के गहन

अंधकार-सा गंभीर और काला,

सूनेपन का रंग

कैसा होता है?

घोर आतंक-सा वातावरण,

मौसम पर मौसम बेचैन,

जँगली हाँफ़ती हवाएँ

दानव-सी हँसी हँसती,

हर मास एक और पन्ना पलट

करता है गए मास का

अंतिम संस्कार।

पर सूनापन पड़ा रहता है,

वहीं का वहीं,

पुराने…

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Added by vijay nikore on February 14, 2013 at 4:00pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
प्रीत दिवस(कुछ दोहे )

प्रेम प्रणय का आज क्यूँ ,हो पाता इज़हार |

प्रीत दिवस के बाद क्या ,खो जाता है प्यार ?

सच्चे मन से कीजिये ,सच्चे दिल का प्यार |

निश्छल दिल ही दीजिये,जब करना इज़हार||

पश्चिम का तो चढ़ रहा ,प्रेम दिवस उन्माद |

अपने पर्वों के लिए ,पाल रहे अवसाद||

युवक युवतियों के लिए ,दिन है बहुत विशेष |

खुली मुहब्बत का मिले ,हर दिल को संदेश||

पश्चिम के त्यौहार का ,डंका बजता आज |

प्रेम दिवस के सामने ,गुमसुम है…

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Added by rajesh kumari on February 14, 2013 at 11:00am — 24 Comments

मूर्ख बनाना बंद करो

भोली जनता को नेता जी मूर्ख बनाना बंद करो।

जनता जाग गई अब दिल्ली धौंस दिखाना बंद करो॥



जन्तर मन्तर से जनता का आजादी अभियान शुरू।

झूठे वादे तानाशाही गया जमाना बंद करो॥



हम सब के मत से ही नेता तुम इतने मतवाले हो।

है तेरी कुछ औकात नहीं रौब दिखाना बंद करो॥



चूस रहे हो खून हमारा अब हमको अहसास हुआ।

शहद लगे विषधर डंकों को पीठ चुभाना बंद करो॥



हम सबके श्रम के पैसों से पाल रहे हो तुम गुण्डे।

परदे के पीछे से छुपकर तीर चलाना बंद…

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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 14, 2013 at 5:00am — 19 Comments

जागतीआँखें .. टूटते ख्वाब...

पत्थरों के शहर मे दिल ही टूटते थे अभी,

भरम भी टूट गया अब के, अच्छा ही हुआ..

दोस्ती लफ्ज़ से नफ़रत थी हमको पहले भी,

रहा सहा यकीं भी उठ गया अच्छा ही हुआ..

खुली थी आँखें फिर भी नींद आ गयी जाने,

तुमने झकझोर के जगा दिया अच्छा ही हुआ..

ज़मीन होती क़दम तले तो भला गिरते क्यों,

हवा मे उड़ने का अंजाम मिला अच्छा ही हुआ..

ख्वाब था या के हादसा था जो गुज़र ही गया,

यकीं से अपने यकीं उठ गया अच्छा ही हुआ..

यूँ भी मुर्दे पे सौ मन मिट्टी थी पहले से,

एक मन और पड़ गयी…

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Added by Sarita Sinha on February 13, 2013 at 11:52pm — 16 Comments

उन्मुक्तता

क्यों मिल गयी संतुष्टि

उन्मुक्त उड़ान भरने की

जो रौंध देते हो पग में

उसे रोते , कराहते

फिर भी मूर्त बन

सहन करना मज़बूरी है

क्या कोई सह पाता है रौंदा जाना ???

वो हवा जो गिरा देती है

टहनियों से उन पत्तियों को

जो बिखर जाती हैं यहाँ वहाँ

और तुम्हारे द्वारा रौंधा जाना

स्वीकार नहीं उन्हें

तकलीफ होती है

क्या खुश होता है कोई

रौंधे जाने से ??

शायद नहीं

बस सहती हैं और

वो तल्लीनता…

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Added by deepti sharma on February 13, 2013 at 9:26pm — 15 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघु कथा :- कुत्ते की दुम / गणेश जी बागी

दारोगा बाबू का स्थानांतरण शहर से दूर एक छोटे थाने में कर दिया गया था । काफी शिकायतें आयीं थी, कि बगैर घूस लिए काम ही नहीं करते थे । नया क्षेत्र बहुत ही शांत था। थाने में कोई केस नहीं । सभी सिपाही, हवलदार, दिन भर मानों समय काटते । जैसे तैसे एक महिना निकल गया, 'बोहनी’ तक नसीब नहीं हुई थी । 

"राम सिंह, जरा इधर तो आओं"
"जी सर", राम सिंह सिपाही दौड़ते हुए आया…
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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 13, 2013 at 3:00pm — 35 Comments

धरती

ये धरती कब क्या कुछ कहती है

सब कुछ अपने पर सहती है,

तूफान उड़ा ले जाते मिटटी,

सीना फाड़ के नदी बहती है !

सूर्यदेव को यूँ देखो तो,

हर रोज आग उगलता है,

चाँद की शीतल छाया से भी,

हिमखंड धरा पर पिघलता है !

ऋतुयें आकर जख्म कुदेरती,

घटायें अपना रंग…

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Added by राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' on February 13, 2013 at 12:30pm — 11 Comments

ये था मेरा भी एक गुनाह ....

आज मैं जिस परिस्थिति में हूँ वहां पर खुद को एक दोषी के रूप में देख रहा हूँ ! मेरे पेट में दर्द बढ़ रहा है ! हस्पताल वाले मुझे सांत्वना दे रहे हैं कि आप चिंता न करिए अभी थोड़ी देर में ही आपका ऑपरेशन हो जायेगा और आप सही सलामत हो जायेंगे ! मैं उनको कह रहा हूँ की मुझे ऑपरेशन से बहुत डर लग रहा है ! तभी एक नर्स ने मुझे बताया कि डरने की कोई बात नहीं है आपका ऑपरेशन निशा शर्मा करेंगी जो की जानी - मानी डॉक्टर हैं ! उनके आज तक सभी ऑपरेशन सफल हुए हैं ! ये नाम सुनकर ही मेरे होश उद्द गए और मैं अपने अतीत…

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Added by Parveen Malik on February 13, 2013 at 12:00pm — 21 Comments

ग़ज़ल : सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं

सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं

छोड़ मुझे वो जब जब मैके जाने लगते हैं

 

उनके गुस्सा होते ही घर के सारे बर्तन

मुझको ही दोषी कहकर चिल्लाने लगते हैं

 

उनको देख रसोई के सब डिब्बे जादू से

अंदर की सारी बातें बतलाने लगते हैं

 

ये किस भाषा में चौका, बेलन, चूल्हा, कूकर

उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं

 

जिसकी खातिर खुद को मिटा चुकीं हैं, वो ‘सज्जन’

प्रेम रहित जीवन कहकर पछताने लगते…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 13, 2013 at 11:59am — 28 Comments

दोहा-रोला गीत

आदरणीय अम्बरीश सर के मार्गदर्शन से दोहा गीत को
दोहा-रोला गीत में परिवर्तित कर नए स्वरुप में प्रस्तुत कर रहा हूँ



सब ऋतुओं से है भला, मोहक परम उदंत

"आराधन रस का लिए, ये ऋतुराज बसंत"



अति जाड़े का अंत, माघ शुक्ला जब आये,

नव दुर्गा का ध्यान, करें ऋतुराज सुहाये,

मना रहे सब संत, जन्म उत्सव वागीश्वरि, …

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on February 13, 2013 at 8:35am — 24 Comments

तनहाई से जंग ठनी है आ भी जाओ ना

हर आहट पे सांस थमी है आ भी जाओ ना॥

सूनी दिल की आज गली है आ भी जाओ ना॥

अरमानों के गुलशन में बस तेरा चर्चा है,

हरसू तेरी बात चली है आ भी जाओ ना॥

पूनम की इस रात में तेरी याद बहुत आती है,

तारों की बारात सजी है आ भी जाओ ना॥…

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Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on February 13, 2013 at 1:30am — 20 Comments

कोई दीप फिर तुम जला दो प्रिये

पथ मेरे ये अंधेरों में घिरने लगे…

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Added by Pushyamitra Upadhyay on February 13, 2013 at 12:30am — 13 Comments

हिंदी छन्द : त्रिभंगी / संजीव सलिल

त्रिभंगी सलिला:

ऋतुराज मनोहर...

संजीव 'सलिल'

*

ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.

पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..

लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.

पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..

*

ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.

बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..

सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.

दस दिशा तरंगित, भू-नभ…

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Added by sanjiv verma 'salil' on February 12, 2013 at 8:30pm — 12 Comments

बस कहूँगा राम-राम!

इस मलिन बस्ती से,

दूर जाना चाहता हूँ !

सब स्वार्थ से घिरे है ,

थोड़ा आराम चाहता हूँ !



ऐसा नहीं कि मै कमज़ोर हूँ ,

इनसे नहीं लड़ सकता !

अपनत्व दिखाते है फिर भी ,

चलते हैं चाल कुटिलता…

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Added by ram shiromani pathak on February 12, 2013 at 7:00pm — 6 Comments

बदलती नज़रें ...( लघु कथा )

उर्वशी की बाहर पुकार हो रही थी। वह  शीशे  के आगे खड़ी अपना चेहरा संवारती -निहारती कुछ सोच में थी। तभी फिर से उर्वशीईइ .....! नाम की पुकार ने उसे चौंका दिया।

उर्वशी उसका असली नाम तो नहीं था पर क्या नाम था उसका असल में , वह भी नहीं जानती !

अप्सराओं की तरह बेहद सुंदर रूप ने उसका नाम उर्वशी रखवा दिया और भूख -गरीबी और मजबूरी ने उसे स्टेज -डांसर बना दिया। वह छोटे - बड़े समारोह या विवाह समारोह में डांस कर के परिवार का भरण -पोषण करती है अब , आज-कल।

गन्दी , कामुक , लपलपाती नज़रों के…

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Added by upasna siag on February 12, 2013 at 5:24pm — 19 Comments

बसंत

चमक रही
सूरज की तरह
पीली सरसों
...............
बिखर गई
खुशिया सब ओर
आया बसंत
................
लाल गुलाबी
रंग बिरंगे फूल
लाया बसंत
.................
बगिया मेरी
महक उठी आज
आया बसंत
..............
नमन तुझे
दो मुझे वरदान
माता सरस्वती

मौलिक और अप्रकाशित रचना

Added by Rekha Joshi on February 12, 2013 at 4:43pm — 9 Comments

घर की मुर्गी या दाल

घर की मुर्गी या दाल

 

देख पडोसी की बीबी, मेरी तबियत भडकी,

मिली नजर उससे तो, मेरी आंख फडकी,

कई दिनो तक रहा, यही सिलसिला…

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Added by बसंत नेमा on February 12, 2013 at 4:00pm — 6 Comments

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