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ग़ज़ल : सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं

सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं

छोड़ मुझे वो जब जब मैके जाने लगते हैं

 

उनके गुस्सा होते ही घर के सारे बर्तन

मुझको ही दोषी कहकर चिल्लाने लगते हैं

 

उनको देख रसोई के सब डिब्बे जादू से

अंदर की सारी बातें बतलाने लगते हैं

 

ये किस भाषा में चौका, बेलन, चूल्हा, कूकर

उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं

 

जिसकी खातिर खुद को मिटा चुकीं हैं, वो ‘सज्जन’

प्रेम रहित जीवन कहकर पछताने लगते हैं

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(यह ग़ज़ल स्वरचित एवं अप्रकाशित है)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 6, 2013 at 11:46pm

बहुत बहुत शुक्रिया रक्ताले  साहब

Comment by Ashok Kumar Raktale on March 6, 2013 at 11:40pm

आदरणीय धर्मेन्द्र जी सादर, सुन्दर और मनोरंजक प्रस्तुति वाह गुनगुनाकर मन प्रफुल्लित हो गया. सादर बधाई स्वीकारें.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 16, 2013 at 11:50am

upasna siag जी, धन्यवाद

Comment by upasna siag on February 14, 2013 at 6:32pm

बहुत बढ़िया जी ..

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 14, 2013 at 3:57pm

बहुत बहुत धन्यवाद SANDEEP KUMAR PATEL साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 14, 2013 at 3:56pm

बहुत बहुत शुक्रिया Arun Srivastava साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 14, 2013 at 3:55pm

आदरणीय विजय जी बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 14, 2013 at 3:53pm

आदरणीय सौरभ जी , आपका अपार स्नेह और आशीर्वाद यूँ ही बना रहे। बैक्टीरिया तो नहीं, आप जैसे विद्वानों से मिलने जुलने का परिणाम है। हार्दिक धन्यवाद।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 14, 2013 at 3:50pm

वीनस जी की निगाह में आ गई ग़ज़लगोई सफल हो गई। बहुत बहुत शुक्रिया साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 14, 2013 at 3:49pm

बहुत बहुत शुक्रिया नादिर ख़ान साहब, स्नेह बना रहे

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