उसकी ना है इतनी सी औकात मगर हड़का रहा है
झूठे में ही खा जाएगा लात मगर हड़का रहा है
औरों की बातों में आकर गाल बजाने वाला बच्चा
जिसके टूटे ना हैं दुधिया दाँत मगर हड़का रहा है
जिसके आधे खर्चे अपनी जेब कटाकर दे रहे हैं
अबकी ढँग से खा जायेगा मात मगर हड़का रहा है
आदर्शों मानवमूल्यों को छोड़ दिया तो राम जाने
कितने बदतर होंगे फिर हालात मगर हड़का रहा है
उल्फत की शमआ पर पर्दा डाल रहा है बदगुमानी
कटना मुश्किल है नफरत की रात…
Added by आशीष यादव on August 10, 2020 at 6:36pm — No Comments
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22
मेरे ही प्यार में पगी आई.
पास जब मेरी ज़िन्दगी आई.
उनके हिस्से में कुछ नहीं आया,
जिनको करना न बंदगी आई.
न किसी से लगा…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on August 10, 2020 at 11:03am — 10 Comments
22 / 22 / 22 / 22 / 22 / 22
एक नया दस्तूर चलाया जा सकता है
ग़म को भी महबूब बनाया जा सकता है [1]
अपने आप को यूँ तड़पाया जा सकता है
बीती बातों पर पछताया जा सकता है [2]
यार की बाँहों में अब दम घुटता है मेरा
जन्नत से भी तो उकताया जा सकता है [3]
आशिक़ सा मासूम कहाँ पाओगे जिस से
अपना कह कर सब मनवाया जा सकता है [4]
पहली बार महब्बत छूती है जब दिल को
उस लम्हे को कैसे भुलाया जा सकता है [5]
जीत…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on August 9, 2020 at 12:42pm — 17 Comments
अपना क्या है इस दुनिया में है जो कुछ भी धरती का
आग, हवा ये, फूल, समन्दर, चिड़िया, पानी धरती का।१।
**
क्या सुन्दरवन क्या आमेजन कोलोराडो क्या गौमुख
ये हरियाली, रेत के टीले, सोना, चाँदी धरती का।२।
**
हिमशिखरों की चमक चाँदनी बारामूदा का जादू
पीली नदिया, हरा समन्दर ताजा बासी धरती का।३।
**
बाँध न गठरी लूट धरा को अपना माल…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 9, 2020 at 4:20am — 7 Comments
लंबे अंतराल के बाद एक ग़ज़ल के साथ
2122 1212 22
चाँद के चर्चे आसमानों में
और मेरे सभी फसानों में
अय हवा बख्श दे अभी ये लौ
हैं अँधेरे गरीबखानों में
हम सुख़नवर से पीर ज़िंदा है
दर्द का मोल क्या दुकानों में
आँखों में आँसुओं का डेरा है
ख्वाब हैं क़ैद मर्तबानों में
पंछियों के लिए सदा रखना
कोई उम्मीद आबदानों में
दिल जला 'ब्रज' जरा सुकूँ आये
रौशनी भी रहे मकानों में
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 8, 2020 at 3:16pm — 2 Comments
2122 2122 2122
मूंदकर आंखें अंधेरा वह कहेगा
भौंकना तारी नहीं वह चुप रहेगा।1
आदमी को बांटता है आदमी से
बर्फ की माफिक हमेशा वह ढहेगा।2
आप शीतल होइए, उसको नहीं गम
आग का दरिया बना वह, फिर बहेगा।3
नाज़ नखरे आपने उसके सहे हैं
जुंबिशें कुछ आपकी वह क्यूं सहेगा?4
खा रहा कबसे मलाई मुफ्त की वह
आपका मट्ठा अभी भी वह महेगा।5
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on August 8, 2020 at 10:23am — 3 Comments
221 2121 1221 212
क्या है मेरे होठों की दुआ मैं भुला चुका.
किस तरह मानता है ख़ुदा मैं भुला चुका.
मेरे सभी गुनाहों को अब तू भी भूल जा,
तुझसे हुई है जो भी खता मैं भुला चुका.
असली खुशी दबी पड़ी है गर्त में कहीं,
अब उसको ढूंढने की अदा मैं भुला चुका.
नज़दीक से गुज़र के मेरे देख ले कभी,
वो तेरी रहबरी की हवा मैं भुला चुका.
मुझको पुकार ने की तो आदत सी हो गई,
पर किसको दे रहा हूँ सदा मैं भुला…
Added by मनोज अहसास on August 8, 2020 at 9:30am — No Comments
" काल सुबह कु तैयार हो जाना! हमलोगा को लेने बस आवेगी।"
" किधर कु जाना है? मुकादम जी!"
" अरे! उवा पिछली बेर गए थे न, मकान बनाने..."
" ओह! उधर कु तो मेरी लुगाई नही जावेगी।"
"कीयों?"
" बस ! मेरी मरजी... मेरी लुगाई है ... वो हरामी ठेकेदार और वाके आदमी... मेरी लुगाई पर..."
"अबे साले! तू क्या खुद को सलमान खान समझता है? तेरी लुगाई को संग लाना होगो वरना..." मुकादम ने जर्दा थूकते हुए अपने करीब खड़े अपने दोस्त से कहा," साला! हरामी! समझता नही यह, इसको…
ContinueAdded by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 7, 2020 at 12:20pm — No Comments
जमाने की नजर में यूँ बताओ कौन अच्छा है
भले ही माँ पिता के वास्ते हर लाल बच्चा है।१।
**
हदों में झूठ बँध पाता नहीं है आज भी लोगों
जुटाली भीड़ जिसने बढ़ लगे वो खूब सच्चा है।२।
**
लगे बासी भरा जो भोर को घर में जिन्हें सन्ध्या
मगर बोतल में जो पानी कहा करते वो ताजा है।३।
**
महज चाहत का रिस्ता है यहाँ हर चीज से मन का
सुना है नेह से मिलता …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 6, 2020 at 5:11pm — 2 Comments
2×15
एक ताज़ा ग़ज़ल
लाखों ग़म की एक दवा है, सोचो ! कुछ भी याद नहीं.
कोई शिकायत करने आए,कह दो कुछ भी याद नहीं.
हमने उसकी यादें जीकर उसकी याद के गीत लिखे,
उसने पढ़कर लिख भेजा है, उसको कुछ भी याद नहीं.
मेरी कहीं इक बात पे मेरा साथी रूठ गया मुझसे,
मैंने वफ़ा की याद दिलाई,वो तो कुछ भी याद नहीं!
मेरी तड़प तो भूलना बेहतर था तेरे जीने के लिए,
तुमने काटी थीं जो रातें रो-रो,कुछ भी याद नहीं?
सारे कागज़ के…
ContinueAdded by मनोज अहसास on August 6, 2020 at 12:12am — 2 Comments
मापनी 221 2121 1221 212
हर आदमी ही वक़्त का मारा है इन दिनों.
प्रभु के सिवा न कोई सहारा है इन दिनों.
फिरते सभी नक़ाब में चेहरा छुपा-छुपा,
चारों तरफ अजीब नज़ारा है इन दिनों.
मिलना गले न हाथ मिलाना किसी…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on August 5, 2020 at 5:30pm — 10 Comments
अछूतों से भी मत करना कभी व्यवहार अछूतों सा
समय तुम को न इस से दे कहीं दुत्कार अछूतों सा।१।
**
कहोगे भार जब उनको तुम्हें कोसेगा अन्तस नित
कहोगे तब स्वयम् को ही यहाँ पर भार अछूतों सा।२।
**
करोना वैसा ही लाया करें व्यवहार जैसा हम
उसी का भोगता अब फल लगे सन्सार अछूतों सा।३।
**
पता पाओगे पीड़ा का उन्हें जो नित्य डसती है
कहीं पाओगे…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 5, 2020 at 6:30am — 10 Comments
212 1212 1212 1212
ख़ाक हो गयी खुशी, था आग का पता नहीं ।
ख़्वाब सारे जल गए, मगर धुआँ उठा नहीं ।
पूछिये न हाले दिल यूँ बारहा मेरा सनम ।
ये हमारे दर्दोगम का सिलसिला नया नहीं ।।
इक नज़र से दिल मेरा वो लूट कर चला गया ।
इस सितम पे क्यूँ अभी तलक कोई खफ़ा नहीं ।।
रूबरू था हुस्न …
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on August 4, 2020 at 11:31pm — 7 Comments
एक ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल
(2122 2122 2122 212 )
वक़्त ने हमसे मुसल्सल इस तरह की रंजिशें
ख़ुदक़ुशी को हो गईं मज़बूर अपनी ख़्वाहिशें
अजनबी जो भी मिले सारे मुहब्बत से मिले
और की हैं ख़ास अपनों ने हमेशा साज़िशें
क्या ख़ुदा नाराज़ है कुछ आदमी से इन दिनों
गर्मियोँ के बाद आईं थोक में हैं बारिशें
क्यों नुज़ूमी को दिखाता हाथ है तू बार बार
क्या लकीरें हाथ की रोकेंगीं तेरी…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on August 4, 2020 at 9:30pm — 6 Comments
2212 2212 2212 2212
मैं ठोकरें खाता रहा मुझ पर तरस आता था कब ।
इस ज़िंदगी पर सच बताएं आपका साया था कब ।।1
जीता रहा मैं बेखुदी में मुस्कुरा कर उम्र भर।
अब याद क्या करना कि मैंने होश को खोया था कब ।।2
वो कहकशां की बज़्म थी, उन बादलों के दरमियां ।
मुझको अभी तक याद है वो चाँद शर्माया था कब ।।3
जलते रहे क्यूँ शमअ में परवाने सारी रात तक ।
तू वस्ल के अंज़ाम का ये फ़लसफ़ा समझा था कब ।।4
जो अश्क़ में डूबा मिला था…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on August 4, 2020 at 5:44pm — 4 Comments
२२२२/२२२२/२२२२/२२२
रात से बढ़कर दिन में जलना कितना मुश्किल होता है
सच कहता हूँ निज को छलना कितना मुश्किल होता है।१।
**
जब रिश्तों के बीच में ठण्डक हद से बढ़कर पसरी हो
धूप से बढ़कर छाँव में चलना कितना मुश्किल होता है।२।
**
पेड़ हरे में जो भी मुश्किल सच में हल हो जाती पर
ठूँठ बने तो धार में गलना कितना मुश्किल होता है।३।
**
साथ समय तो लक्ष्य सरल पर समय हठीला होने से
सच में धारा संग भी चलना कितना मुश्किल होता है।४।
**…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 4, 2020 at 5:00pm — 8 Comments
बह्र- 2122 1122 1122 112/22
कोख में आने से साँसों के ठहर जाने तक
ज़िन्दगी में सकूँ मिलता नहीं मर जाने तक
मुफ़लिसी नेक दिली और ज़माने का दर्द
ये सभी सिर्फ़ सियासत में उतर जाने तक
शादी लड्डू ही नहीं एक बला है इसका
होता अहसास नहीं पंख कतर जाने तक
यार बरसात किसे अच्छी नहीं लगती मगर
खेत खलियान नदी ताल के भर जाने तक
हर तरफ़ शह्र में ख़ूँख़ार दरिन्दे घूमें
बेटियाँ ख़ौफ़ज़दा लौट के घर जाने…
Added by नाथ सोनांचली on August 4, 2020 at 6:11am — 10 Comments
221 1221 1221 122
शतरंज में रिश्तों की मैं हारा नहीं होता
अपनों को बचाने में जो उलझा नहीं होता
यादें तेरी ख़ुश्बू से न दिन रात महकतीं
लम्हा जो तेरे लम्स का ठहरा नहीं होता
भीतर न उसे आने कभी देता मेरा दिल
ख़ंजर पे तेरा नाम जो लिक्खा नहीं होता
शाख़ों से कहीं उसकी तुम्हें झाँकता बचपन
आँगन का शजर तुमने जो काटा नहीं होता
नफ़रत के समर आयेंगे नफ़रत के शजर पर
ऐ काश बशर बीज ये बोया नहीं होता
गर…
ContinueAdded by anjali gupta on August 4, 2020 at 12:30am — 5 Comments
2122 2122 2122 2122
वो न बोलेगा हसद की बात उसने पी रखी है
सिर्फ़ होगी प्यार की बरसात उसने पी रखी है
होश में दुनिया सिवा अपने कहाँ कुछ सोचती है
कर रहा है वो सभी की बात उसने पी रखी है
मुँह पे कह देता है कुछ भी दिल में वो रखता नहीं है
वो समझ पाता नहीं हालात उसने पी रखी है
झूठ मक्कारी फ़रेबी ज़ुल्म का तूफ़ाँ खड़ा है
क्या वो सह पायेगा झंझावात? उसने पी रखी है
जबकि सब दौर-ए-जहाँ में लूटकर घर भर रहे हों…
ContinueAdded by आशीष यादव on August 3, 2020 at 12:30pm — 4 Comments
जब मन वीणा के तारों पर
स्वर शिवत्व झन्कार हुआ
चिरकालिक,शाश्वत ,असीम
प्रकटा , अमृत संचार हुआ
निर्गत हुए भविष्य , भूत
वर्तमान अधिवास हुआ
कालातीत, निरन्तर,अक्षय
महाकाल का भास हुआ
शव समान तन,आकर्षण से
मन विमुक्त आकाश हुआ
काट सर्व बन्धन इस जग के
परम तत्व , निर्बाध हुआ
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on August 3, 2020 at 10:30am — 4 Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |