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बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी

212 1212 1212 1212

...

बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी,

रौंदती उन्हें ग़मों की तल्खियाँ कभी-कभी ।

ज़िन्दगी हूई जो बे-वफ़ा ये छोड़ा सोचकर,

डूबती समंदरों में कश्तियाँ कभी-कभी ।

गर सफर में हमसफ़र मिले तो फिर ये सोचना,

ज़िंदगी में लगती हैं ये अर्जियाँ कभी-कभी ।

उठ गए जो मुझको देख उम्र का लिहाज़ कर,

मुस्कराता देख अपनी झुर्रियाँ कभी-कभी ।

इश्क़ में यकीन होना लाजिमी तो है मगर,

दूर-दूर दिखती हैं…

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Added by Harash Mahajan on April 6, 2018 at 9:30pm — 19 Comments

चंद हायकू ....

चंद हायकू ....

आँखों की भाषा
अतृप्त अभिलाषा
सूनी चादर

सूनी आँखें
वेदना का सागर
बहते आंसू

साँसों की माया
मरघट की छाया
जर्जर काया

टूटे बंधन
देह अभिनन्दन
व्यर्थ क्रंदन

बाहों का घेरा
विलय का मंज़र
चुप अँधेरा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 6, 2018 at 9:08pm — 6 Comments

एक ताज़ा ग़ज़ल

फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फेलुन/फ़इलुन

इसलिये आने से कतराते हैं ईमाँ वाले

तेरे कूचे में उधम करते हैं शैताँ वाले

.

ये किसी ख़तरे की आमद का इशारा तो नहीं

ख़्वाब क्यों मुझको दिखाता है वो तूफ़ाँ वाले

.

और सब कुछ यहाँ तब्दील हुआ है लेकिन

घर में दस्तूर हैं अब तक वही अम्माँ वाले

.

बाग़बाँ ने वो सितम तोड़े हैं इनपर देखो

कितने सहमे हुए रहते हैं गुलिस्ताँ वाले

.

रह्म करना किसी बिस्मिल पे गवारा ही…

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Added by Samar kabeer on April 6, 2018 at 3:00pm — 27 Comments

रेगिस्तान में    ......

रेगिस्तान में    ...... 

तृषा

अतृप्त

तपन का

तांडव

पानी

मरीचिका सा

क्या जीवन

रेगिस्तान में

ऐसा ही होता है ?

हरियाली

गौण

बचपन

मौन

माँ

बेबस

न चूल्हा , न आटा ,न दूध

भूख़

लाचार

क्या जीवन

रेगिस्तान में

ऐसा ही होता है ?

पेट की आग

भूख का राग

मिटी अभिलाषा

व्यथित अनुराग

पीर ही पीर

नयनों में नीर

सूखी नदिया

सूने तीर

खाली मटके…

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Added by Sushil Sarna on April 6, 2018 at 1:22pm — 11 Comments

ग़ज़ल- फँस गया जाल में शिकारी खुद

बह्र- फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

2122 1212 22

मार कर पेट में कटारी खुद।

मर गया एक दिन मदारी खुद।

अपने कर्मों से वो जुआरी खुद।

हो न जाये कभी भिखारी खुद।

पड़ गये दाँव पेंच सब उल्टे,

फँस गया जाल में शिकारी खुद।

आगये दिन हुजूर अब अच्छे

दान देने लगे भिखारी खुद।

हैं नशामुक्ति के अलम्बरदार,

पर चलाते हैं वो कलारी खुद।

खानदानी हुनर है बच्चों में,

सीख लेते हैं दस्तकारी…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on April 6, 2018 at 5:39am — 17 Comments

स्वार्थ नें राष्ट्र की है सजाई चिता-----ग़ज़ल

212 212 212 212

स्वार्थ नें राष्ट्र की है सजाई चिता

जाति की अग्नि से चिट चिटाई चिता

भारती माँ तड़प कर कराहे सुनो

पूछती जीते जी क्यूँ सजाई चिता?

प्रीत के व्योम पर द्वेष धूम्राक्ष है

लोभियों नें वतन की जलाई चिता

राजगद्दी के लोभी हैं शामिल सभी

पूछिए मत कि किसनें लगाई चिता?

आग है जो लगी आप जल जाएंगे

बढ़ के आगे न यदि जो बुझाई चिता

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 4, 2018 at 11:30pm — 14 Comments

लोकतंत्र (लघुकथा)

एक गाँव में कुछ लोग ऐसे थे जो देख नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो सुन नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो बोल नहीं पाते थे और कुछ ऐसे भी थे जो चल नहीं पाते थे। उस गाँव में केवल एक ऐसा आदमी था जो देखने, सुनने, बोलने के अलावा दौड़ भी लेता था। एक दिन ग्रामवासियों ने अपना नेता चुनने का निर्णय लिया। ऐसा नेता जो उनकी समस्याओं को जिलाधिकारी तक सही ढंग से पहुँचा कर उनका समाधान करवा सके।

जब चुनाव हुआ तो अंधों ने अंधे को, बहरों ने बहरे को, गूँगों ने गूँगे को और लँगड़ों ने एक लँगड़े को वोट दिया। जो…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 4, 2018 at 9:11pm — 14 Comments

प्रायश्चित (लघु कथा )

 वृद्धाश्रम के द्वार पर विधवा माँ को छोड़कर जाते समय बेटे ने उसका मोबाइल अपने कब्जे में किया और जाते हुए बोला, ‘तुम यहाँ आराम से रहना. इसकी अब तुम्हें जरूरत ही क्या. मैं आकर हाल लेता रहूँगा ‘

बेटा चला गया तब माँ की आँखों के रुके आंसू बाहर निकलने को बेताब हुए .

’तुम्हारी कोई बेटी नही है क्या ?’- अचानक व्यवस्थापिका ने आकर उससे पूछा .

‘नही, पर क्यों ?’- उसने धीरे से कहा.

‘इसलिए कि आज तक कोई बेटी अपनी माँ को वृद्धाश्रम छोड़ने नही आयी’

‘सच कहती हो बहन, मैंने दो…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 4, 2018 at 9:05pm — 8 Comments

गीत : कुम्हलाईए मत खिल खिल रहिये

कुम्ह्लाइए मत खिल-खिल रहिये !

खुश-खुश रहिये , हिलमिल रहिये !

बीत गया मनमोहक सपना 

खो गया दिलबर आपका अपना

कतराइये मत, शामिल रहिये 

हंसमुख रहिये, चुलबुल रहिये !…

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Added by नन्दकिशोर दुबे on April 4, 2018 at 5:00pm — 3 Comments

कब पटाखे फूट जाएँ

गर्म होती जा रहीं है,

शहर में पागल हवाएँ.

क्या पता इन बस्तियों में,

कब पटाखे फूट जाएँ.

 

ढूँढता अस्तित्व अपना,

सच बहुत बेचैन है.

डस रहा है दिन उसे तो,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on April 4, 2018 at 11:16am — 18 Comments

ग़ज़ल नूर की- हाँ! सराब का धोखा तिश्नगी में होता है,

२१२/ १२२२// २१२/ १२२२ 

.

हाँ! सराब का धोखा तिश्नगी में होता है,

ग़लतियों पे पछतावा आख़िरी में होता है.

.

तितलियों के पंखों पर चढ़ते हैं गुलों के रँग

ज़िक्र जब मुहब्बत का शाइरी में होता है.

.

शम्स ख़ुद भी छुपता है देख कर अँधेरे को,

इम्तिहान जुगनू का तीरगी में होता है.

.

बीज यादों के बो कर सींचता है अश्कों से

दिल ख़याल उगाता है जब नमी में होता है.

.

जिस ख़ुदा की ख़ातिर तुम लड़ रहे हो सदियों से

काश ये समझ पाते वो सभी में…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 3, 2018 at 9:00pm — 12 Comments

यथार्थ ....

यथार्थ ....

कुछ पीले थे

कुछ क्षत-विक्षत थे

कुछ अपने शैशव काल में थे

फिर भी उनका 

शाखाओं का साथ छूट गया



धरा पर पड़े

इन पत्तों की बेबसी पर

हवा कहकहे लगा रही थी



जिसके फैले बाज़ुओं पर

निश्चिंत रहा करते थे

उम्र के पड़ाव पर

उन्हीं बाजुओं से

साथ छूटता चला गया



अब उनका बाबा

एक कंकाल मात्र ही तो था

पीले पत्ते बात को समझते थे

कभी -कभी हवा के बहकावे में

इधर -उधर हो जाते थे

लेकिन…

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Added by Sushil Sarna on April 3, 2018 at 6:17pm — 7 Comments

ग़ज़ल(याद आती हैं जब)

ग़ज़ल(याद आती हैं जब)

212 212 212 212

याद आतीं हैं जब आपकी शोखियाँ,

और भी तब हसीं होतीं तन्हाइयाँ।

आपसे बढ़ गईं इतनी नज़दीकियाँ,

दिल के लगने लगीं पास अब दूरियाँ।

डालते गर न दरिया में कर नेकियाँ,

हारते हम न यूँ आपसे बाज़ियाँ।

गर न हासिल वफ़ा का सिला कुछ हुआ,

उनकी शायद रही कुछ हों मज़बूरियाँ।

मिलता हमको चराग-ए-मुहब्बत अगर,

राह में स्याह आतीं न दुश्वारियाँ।

हुस्नवालों से दामन बचाना ए…

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Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 3, 2018 at 8:30am — 9 Comments

पराजित योद्धा (लघु कथा )

‘क्या बात करते हो दद्दू ,प्रयास में कमी?’- मैंने झुंझलाकर कहा, ‘अरे हम जमीन आसमान एक कर दिए. कहाँ-कहाँ नहीं दौड़े. जिसने जहाँ बताया भाग-भागे गये. अख़बारों के मेट्रोमोनियल्स छान मारे, बड़े-बड़े घमंडी अह्मकों के आगे दामन फैलाया पर नतीजा वही सिफ़र. दो-तीन जगह तो दिखाई भी हुई, दो-एक लोगों ने पसंद भी किया, विवाह के लिये हाँ भी कर दी पर बाद में मुकर गए. इतना भी न सोचा कि लडकी पर क्या गुजरेगी. माँ-बाप पर क्या बीतेगी. जुबान की तो ससुरी कोई कीमत ही नही.’

‘धीरज धरो, छोटे’ – दद्दू ने सांत्वना दी,…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 2, 2018 at 9:13pm — 7 Comments

एक अतुकांत रचना :फरियाद: मनोज अहसास

एक दुआ

साथ देने की गुजारिश के साथ

जाने अबकी बार खुदाया कैसी पूर्णमासी है

चाँद के पूरे दीदार की चाहत सुलग रही है माथे पर

और पैरों को हिला रहा है डर मंज़र खो देने का

सूनी आँखे ढूंढ रही हैं अपनी क्षमता से दूर

घुटने टेके, हाथ पसारे ,दुआ सहारे

हर दम

मर्यादा से बँधे खड़े हैं

और अम्बर का कैसा नज़ारा

इन नज़रों को सता रहा है

पेड़ों के पीछे चाँद के आने की आहट से

धड़ धड़ सीना धड़क रहा है

लेकिन

जो अंधियारे ,गहरे, काले बादल गरज रहे हैं

उनसे इन…

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Added by मनोज अहसास on April 2, 2018 at 7:02pm — 12 Comments

कह दिया किसने तुझको खुदा तू नहीं

212 212 212 212

रूह से मेरे अब तक जुदा तू नहीं ।

बात सच है सनम बेवफा तू नहीं ।।1

कर रहा एक मुद्दत से सज़दा तेरा ।

कह दिया किसने तुझको खुदा तू नहीं ।।2

जिंदगी से मेरे जा रहा है कहाँ ।

इस तरह अब नजर से गिरा तू नहीं ।।3

मेरे कूचे से निकला न कर बेसबब ।

दिल हमारा अभी से जला तू नहीं ।।4

वार कर मत निगाहों से मुझ पर अभी ।

सब्र मेरा यहाँ आजमा तू नहीं ।।5

लोग अनजान हैं कत्ल के…

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Added by Naveen Mani Tripathi on April 2, 2018 at 6:57pm — 9 Comments

'ओबीओ की आठवीं सालगिरह का तुहफ़ा'

फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन



मेरी सारी वफ़ा ओबीओ के लिये

काम करता सदा ओबीओ के लिये




दिल यही चाहता है मेरा दोस्तो

जान करदूँ फ़िदा ओबीओ के लिये




आठ क्या,आठ सो साल क़ाइम रहे

है यही इक दुआ ओबीओ के लिये



मेरे दिल में कई साल से दोस्तो

जल रहा इक दिया ओबीओ के लिये…



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Added by Samar kabeer on April 2, 2018 at 3:00pm — 40 Comments

ओ बी की आठवीं वर्षगाँठ पर कुछ दोहे - लक्ष्मण रामानुज

ओ बी ओ में हो रहा, उत्सव का आगाज |

आठ  वर्ष  तक का सफ़र,साक्ष्य बना है आज  ||

 

दूर दृष्टि बागी लिए, खूब बिछया साज |

योगराज के यत्न से, बना खूब सरताज | |

 

काव्य विधा को सीखते, विद्वजनों…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 2, 2018 at 2:30pm — 27 Comments

माथे की बिन्दी

माथे की बिन्दी

कोई ताज़ी भूलें, कुछ नए आँसू

हमारा अब अलसाया-सा बन्धन

ले आता है ओठों पर रूक-रूक एक ही सवाल ---

सुबह से गोधूली तक के अल्प समय में 

तिरछी परछाइयाँ डूबने से पहले ही

मेरे प्यार, भूल गए तुम प्यार की पहचान

तुम कैसे इतने बदल गए ?

समुद्र से करती कोमल-स्पर्श संवेदित हवाएँ

लहरों के ओठ बन्द कर उन्हें सुलातीं थीं जो

उन हवाओं के भी जैसे  मिजाज बदल…

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Added by vijay nikore on April 2, 2018 at 11:00am — 10 Comments

गजल#(आज के दिन पर)

22  22  22  22

मूर्खों का सम्मेलन हो फिर,

बीतीं बातें,चिंतन हो फिर।1

उम्र हुई तो क्या होता है

सुन्नत,चाहे मुंडन हो फिर।2

अपने तर्क उठाते रहिये

औरों का बस खंडन हो फिर।3

जात-धरम अवसाद हुए कब?

मुँहदेखी हो,मंडन हो फिर।4

भाषा,भनिति अबला जैसी

नाच नचा लें,ठन-ठन हो फिर।5

पीठ नहीं पूजी जाये तो

चलते-फिरते अनबन हो फिर।6

पढ़ने से परहेज भला है

मतलब कुछ हो, लेखन हो…

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Added by Manan Kumar singh on April 1, 2018 at 9:08pm — 14 Comments

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