राजनीति के मंच पर, चढ़ गए आज दबंग
फूट फूट कर रो रहे, ध्वज के तीनों रंग
गधा जो देखन मैं चला, गधा न मिलया मोय
तब इक नेता ने कहा, मुझसा गधा न कोय
उजली खादी पहन के, करते काले काम…
Added by Albela Khatri on September 12, 2012 at 9:30pm — 18 Comments
अमृत ही बरसाय (संशोधित दोहे)
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 12, 2012 at 6:00pm — 16 Comments
कई मोड़ हैं
मेरी हथेली पर
हांफते हुए
ख्वाब में डूबे
कुछ चश्में भी तो हैं
कांपते हुए
नीले पड़ाव
धुंध में फिसलते ...
सैलाब भी हैं
सुर्ख परियां
वजू करते हाथ
हुबाब भी हैं
कम भी नहीं
इतनी खामोशियां
जीने के लिए
बेदर्द जख्म
काफी है इतना ही
अभी के…
Added by राजेश 'मृदु' on September 12, 2012 at 3:30pm — 6 Comments
"लिखते लिखते"
जमीं पे चाँद तारे
सूरज
सब हैं दिखते
लिखते लिखते
नदियाँ, पहाड़, झरने
हाथी-घोड़ा
शेर, भालू, हिरने
कभी सजर
कभी…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 12, 2012 at 1:56pm — 11 Comments
पडौसी खावे मलाई, हम ताकत ही रहे,
शरनागाह बना देश, हम देखते ही रहे |
नीतियाँ उदारवादी, हमको ही खा रही,
स्वार्थ की राजनीति, सबको जला रही |
स्पष्ट निति के अभाव में,अभाव में जी रहे,
सहिष्णुता लोकतंत्र में, तपत हम सोना रहे |
समय हमें सिखलाएगा, काँटों पर चलना,
शहीद की शहादत को, अक्षुण बनाए रखना |
शीतल कैलाश हिम पर, है शिव शंकर बैठे,
पवित्र गंगा भी धारित, है जटा में समेटे |
त्रिनेत्र से भष्म कर दे, इसका…
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 12, 2012 at 1:00pm — 2 Comments
आज हम ग़म से वाकिफ हैं,असर तेरी दुआ का है
हर हाल में जीते हम यह अपनी अदा है दोस्त
हक़ दोस्ती-ओ-मुहब्बत का अदा हमको भी करना है
हम हँसते हुए कुर्वान हुए यह अपनी वफ़ा है दोस्त
दुनियाँ यकीं करे न करे तुम ज़रूर कर लेना
हमने तुमपे ऐतवार किया यह अपनी ख़ता है…
Added by Deepak Sharma Kuluvi on September 12, 2012 at 11:30am — 8 Comments
पलकों पे टिकी शबनम को सुखा ले साथिया
धूप के जलते टुकड़े को बुला ले साथिया
जुल्म ढा रही हैं मुझ पर सेहरे की लडियां
इस चाँद पर से बादल को हटा ले साथिया
बिछ गए फूल खुद टूट कर राहों में तेरी
अब कैसे कोई दिल को संभाले साथिया
बिजली न गिर जाए तेरे दामन पे कोई
कर दे मेरी तकदीर के हवाले साथिया
देख के सुर्ख आँचल में लहराती शम्मा
दे देंगे जान इश्क में मतवाले साथिया
यहाँ जल…
ContinueAdded by rajesh kumari on September 12, 2012 at 11:00am — 17 Comments
इन्साफ जो मिल जाय तो दावत की बात कर
मुंसिफ के सामने न रियायत की बात कर
तूने किया है जो भी हमें कुछ गिला नहीं
ऐ यार अब तो दिल से मुहब्बत की बात कर
गर खैर चाहता है तो बच्चों को भी पढ़ा
आलिम के सामने न जहालत की बात कर
अपने ही छोड़ देते तो गैरों से क्या गिला
सब हैं यहाँ ज़हीन सलामत की बात कर
'अम्बर' भी आज प्यार की धरती पे आ बसा
जुल्मो सितम को भूल के जन्नत की बात कर
--अम्बरीष श्रीवास्तव
Added by Er. Ambarish Srivastava on September 12, 2012 at 10:30am — 26 Comments
सौरभ जी से चर्चा के पश्चात जो परिवर्तन किये हैं उन्हें प्रस्तुत कर रही हूँ
परिचर्चा के बिंदु सुरक्षित रह सके इस हेतु पूर्व की पंक्तियों को भी डिलीट नहीं किया है जिससे नयी पंक्तियाँ नीले text में हैं
गीत मे तू मीत मधुरिम नेह के आखर मिला
प्रीत के मुकुलित सुमन हो भाव मे भास्वर* मिला -----*सूर्य
हो सकल यह विश्व ही जिसके लिए परिवार सम
नीर मे उसके नयन के स्नेह का सागर मिला …
Added by seema agrawal on September 12, 2012 at 10:00am — 34 Comments
दूंगा मैं लौटा तुम्हारी धरा ,
अगर तुम मेरे पंख बन कर उड़ो
संभालूँगा तुमको मैं हर मोड़ पर,
चलोगी कभी जब गलत राह पर
यही एक ख्वाहिश तुम्हारे हो मन में
मेरे साथ चलना बरस चौदह वन में
कभी राम का अनुसरण कर सकूँ तो
दायित्व सीता का गर तुम संभालो
कोई मित्र कलि युग की लंका दहन
भ्राता अगर मिल गया हो लखन
अगर रह सको तुम मन से भी पावन
तभी मर सकेगा यहाँ भ्रष्ट रावन
भारत बनेगा तभी फिर अयोध्या
कभी राम जैसे प्रकट होंगे योद्धा
गर कोई…
Added by Ashish Srivastava on September 12, 2012 at 8:30am — 1 Comment
बिरादरी में ऊँची नाक रखने वाले, दौलतमंद, पर स्वभावतः अत्यधिक कंजूस, सुलेमान भाई ने अपने प्लाट पर एक घर बनाने की ठानी| मौका देखकर इस कार्य हेतु उन्होंने, एक परिचित के यहाँ सेवा दे रहे आर्कीटेक्ट से बात की| आर्कीटेक्ट नें उनके परिचि त का ख़याल करते हुए, बतौर एडवांस, जब पन्द्रह हजार रूपया जमा कराने की बात कही, तो सुलेमान भाई अकस्मात ही भड़क गए, और बोले, "मैं पूरे काम के,…
ContinueAdded by Er. Ambarish Srivastava on September 12, 2012 at 8:30am — 20 Comments
हिंदी दिवस मना रहे, अंग्रेजी की खान/
कैसे हो हिंदी भला, मिले इसे सम्मान//
मिले इसे सम्मान,ज्ञान का कोष अनूठा/
हर जिव्हा पर आज,शब्द परदेशी बैठा//
कह अशोक सुन बात,भाल पर जैसे बिंदी/
करो सुशोभित आज, देश की भाषा हिंदी//
लाओ फिरसे खोज कर,हिंदी के वह संत/
जिनसे थी प्रख्यात ये,चुभे विदेशी दंत//
चुभे विदेशी दंत, बहा दो हिंदी गंगा/
करते जो बदनाम, करो अब उनको नंगा//
कह अशोक यह बात,…
Added by Ashok Kumar Raktale on September 12, 2012 at 8:30am — 13 Comments
एक छोटी सी कविता मेरी,
ना जाने कहाँ खो गयी है
सुबह, सीढियां चढ़ते वक्त तो थी
मेरी ही जेब में
फिर ना जाने कहाँ गयी
सारे दिन की भाग दौड़ में
मुझे भी न रहा ध्यान
न जाने कब खो गयी वो
छोटी सी ही थी
उस कविता में,
एक पेड़ था
पेड़ पे एक झूला
झूले पर झूलते मेरे दोस्त
आवाज़ देकर बुलाते हुए
वो सब उसी कविता में ही तो थे
अब वो भी ना जाने कैसे मिलेंगे?
खो गये वो भी
उस कविता में था
एक बेघर हुआ
चिड़िया का छोटा सा…
Added by Pushyamitra Upadhyay on September 11, 2012 at 10:07pm — 7 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on September 11, 2012 at 6:00pm — 21 Comments
Added by राजेश 'मृदु' on September 11, 2012 at 2:52pm — 9 Comments
तुम कंचन हो,
मै कालिख हूँ!
तुम पारस, मै
कंकड़ इक हूँ!
तुम सरिता हो,
मै कूप रहा!
तुम रूपा, इत
ना रूप रहा!
जो मानव नहीं है उसको, देव की पांत है असंभव!
है तुलना न अपनी कोई, मिलन की बात है असंभव!
तुम ज्वाला हो,
मै…
ContinueAdded by पीयूष द्विवेदी भारत on September 11, 2012 at 2:30pm — 58 Comments
दोपहर शाम शब् सहर जन्नत
हर घडी आ रही नज़र जन्नत
वक्ते फुरकत लगा जहन्नम सा
खंडहर हो गया है घर जन्नत
भूलना आपको हुआ मुश्किल
याद कर कर के हर पहर जन्नत
जिन्दगी किस तरह जियें तुझको…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 11, 2012 at 2:08pm — 4 Comments
तेरे बगैर मज़ाभी क्या आये जीने का
शराब न हो तो क्या हो आबगीने का
तेरी ज़ुल्फ़से दोचार नफ्स मांग लेतेहैं
तेरेही इश्कने काम बढ़ाया है सीने का
तू नमाज़ी है तो पाबन्द है औकातका
मैं खराबाती हूँ कोई वक्त नहीं पीनेका
नतुम न दरियएइश्क पार करनेको है
नाखुदा है खुदा काम क्या सफीने का
राज़ ज़रा संभल के खर्च करो मआश
अभीतो पूरा महीना पड़ा है महीने का
© राज़…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 11, 2012 at 7:45am — 6 Comments
मान और सम्मान की,नहीं कलम को भूख
महक मिटे ना पुष्प की , चाहे जाये सूख |
खानपान जीवित रखे , अधर रचाये पान
जहाँ डूब कान्हा मिले , ढूँढो वह रस खान |…
Added by अरुण कुमार निगम on September 11, 2012 at 12:00am — 14 Comments
आज सुबह-सुबह बड़कऊ का बेटा कविता ’पुष्प की अभिलाषा’ पर रट्टा मार रहा था --"चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ.. ." मैथिली शरण गुप्त जी ने बाल कविता लिखी है. शब्दों का चयन, सन्निहित भाव सबकुछ कालजयी है. आँखो को मूँदे कविता को आत्मसात करता हुआ मन ही मन राष्ट्रकवि को नमन किया. अभी मन के दरवाजे पर कुछ और शुद्ध विचार दस्तक देते कि घर के दरवाजे पर दस्तक हुई. सारे शुद्ध विचार एक बारगी हवा हो गये.. "कौन कमबख़्त सुबह-सुबह फ़ोकट की चाय पीने आ गया, यार ?" झुंझलाता-झल्लाता…
ContinueAdded by Shubhranshu Pandey on September 10, 2012 at 9:00pm — 11 Comments
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