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दूंगा मैं लौटा तुम्हारी धरा ,
अगर तुम मेरे पंख बन कर उड़ो
संभालूँगा तुमको मैं हर मोड़ पर,
चलोगी कभी जब गलत राह पर
यही एक ख्वाहिश तुम्हारे हो मन में
मेरे साथ चलना बरस चौदह वन में
कभी राम का अनुसरण कर सकूँ तो
दायित्व सीता का गर तुम संभालो
कोई मित्र कलि युग की लंका दहन
भ्राता अगर मिल गया हो लखन
अगर रह सको तुम मन से भी पावन
तभी मर सकेगा यहाँ भ्रष्ट रावन
भारत बनेगा तभी फिर अयोध्या
कभी राम जैसे प्रकट होंगे योद्धा
गर कोई छोड़ेगा पत्नी भी सीता
फिर एक कहानी सागर भी लिखता

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Comment by Rekha Joshi on September 12, 2012 at 5:28pm

सुंदर रचना पर बधाई आशीष जी 

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