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हम आज के इंसान हैं

हम आज के इंसान हैं, हम आज में जीते हैं.

वो और लोग होंगे, जो समाज में जीतें हैं.

गीता- कुरान पढ़तें हैं, मानते नहीं.

इंसान हैं, इंसानियत को जानते नहीं.

ज़ख़्मी को देखतें हैं, ठहरते नहीं.

लाल खून देखकर, सिहरते नहीं.

हम वो घड़े हैं जो, संवेदना से रीते हैं.

हम आज के इंसान हैं, हम आज में जीते हैं.

15 अगस्त आता है, तो राष्ट्र-गान गाते हैं.

घर के मुंडेर पर, तिरंगा भी फहराते हैं.

रचनाकार हैं, रचनाधार्मिता को पोसते हैं.

राष्ट्र की दुहाई देकर, शासन को… Continue

Added by satish mapatpuri on August 10, 2010 at 4:30pm — 2 Comments


मुख्य प्रबंधक
कविता : बारिश के रंग

हाल- ए- दिल ऊंचे महलों से पूछो जरा,

मस्तियाँ बादलों की कैसी उन्हे लगती हैं,



जब सावन की पहली पड़ती फुहार,

धरा ख़ुशी से सोंधी खुशबू बिखेरती,

बच्चे उछलते कूदते मचलते खेलते,

चेहरे किसानो के उम्मीदों से चमकते,



हाल- ए- दिल झोपड़ियो से पूछो जरा,

आंशु बन बारिश छपरों से टपकती है,



खूब बारिश हुई भरी नदिया और ताल ,

मचलती तितलियाँ भी आँचल संभाल,

हवाओं को भी देखो चलती मदभरी,

दीवाना बनाने को हमें हठ पर अड़ी,



हाल- ए- दिल उन… Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 10, 2010 at 2:30pm — 32 Comments

बाबा की पाती

[आएश और आमश के लिए]





हमारे पास कुछ भी नहीं है



चंद औराक़ गर्दिशे-दौराँ के

चंद नसीहतें जो नस्ल दर नस्ल हम तक पहुंचीं

ऐसा विश्वास जहाँ श्रद्धा के अतिरिक्त

सारे सवाल अनुत्तरित और प्रतिबंधित

हैं



मैं कांपता था , लड़खडाने लगते थे क़दम

पसीने लगते थे छूटने

तुम मत डरना

कभी कुत्ते के भौंकने और बिल्ली के म्याओं म्याओं से



शिनाख्त रखना नहीं

न वजूद के पीछे

भागना

रैपर बन जाना

किसी भी साबुन की… Continue

Added by शहरोज़ Shahroz on August 9, 2010 at 10:30pm — 6 Comments

बेच दूंगा मैं खुद को खरीदेंगे आप

बेच दूंगा मैं खुद को खरीदेंगे आप

सोच के आज आया हूँ बाज़ार में --

दोस्तों मेरी कीमत जियादह नहीं

मैं भी बिक जाउंगा आपके प्यार में |



पहले हर बोल के मोल को तौलिये

'बाद में जो मुनासिब लगे बोलिए ---

बोल से ही तो जाहिर ये होता है के

'कितनी तहजीब होगी खरीदार में



इतनी जुर्रत कहाँ के लगा लूँ गले

ये भी हसरत नहीं के गले.से लगूं ---

जो मजा पा के सौ बार मिलता नहीं

वो मजा खो के पाया है एक बार में |



बिक रही है जमीं बिक रहा… Continue

Added by jagdishtapish on August 9, 2010 at 7:42pm — 3 Comments

हाइकु क्या है..??

हाइकु - ये जापानी काव्य प्रकार है । हाइकु अकसर कुदरत वर्णन के लिए लिखे गए हैं । जिसे " कीगो " कहते हैं । जापानी हाइकु , एक पंक्ति में लिखा जाता है और १९ वीं शताब्दी पूर्व इसे हिक्को कहा जाता था । मासाओका शिकी महोदय ने १९ वीं सदी के अंत तक इसे हाइकु नाम दिया ।



हाइकु , कविता में ३ पंक्तियाँ होतीं हैं । जिनका अनुपात है--



प्रथम पंक्ति में ५ अक्षर , दूसरी में ७ अक्षर और फ़िर तीसरी पंक्ति में ५ अक्षर हों..



अकसर , संधि अक्षर भी एक अक्षर ही गिना जाता है… Continue

Added by विवेक मिश्र on August 9, 2010 at 2:56am — 2 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
वापस दे दो

जब्त किये है तुमने जो अल्फाज़ अभी वापस दे दो

अपने हिस्से की थोड़ी आवाज अभी वापस दे दो



मेरा ग़म, दिल की मायूसी, या फिर मेरी तन्हाई

दिल में छुपाये मेरे सारे राज अभी वापस दे दो



सूरज से जो लड़ आये थे खालिस जेठ महीने में

उन मदमस्त परिंदों की परवाज़ अभी वापस दे दो



सीमा पार से जो आया है वो बारूद है कर्जे का

मूल को छोड़ो ब्याज बहुत है ब्याज अभी वापस दे दो





अब एक प्यारा सा गाना भी सुनते… Continue

Added by Rana Pratap Singh on August 8, 2010 at 11:00pm — 3 Comments

गीत: हर दिन मैत्री दिवस मनायें..... संजीव 'सलिल'

गीत:

हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....

संजीव 'सलिल'

*

हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....

*

होनी-अनहोनी कब रुकती?

सुख-दुःख नित आते-जाते हैं.

जैसा जो बीते हैं हम सब

वैसा फल हम नित पाते हैं.

फिर क्यों एक दिवस मैत्री का?

कारण कृपया, मुझे बतायें

हर दिन मैत्री दिवस मनायें.....

*

मन से मन की बात रुके क्यों?

जब मन हो गलबहियाँ डालें.

अमराई में झूला झूलें,

पत्थर मार इमलियाँ खा लें.

धौल-धप्प बिन मजा नहीं है

हँसी-ठहाके… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on August 8, 2010 at 11:32am — 3 Comments

मन को बांधना आसान नहीं

शब्दों की तरह

चाहता हू बांधना मन को भी

मगर मन ...

कौंधती है बिजली की तरह

बढती है लहरों की तरह

मन बाहर दौड़ने लगता है

ध्यान के दौरान

गंदे विचार कुलबुलाते रहते है ॥





बड़े ही द्वन्द में जीता है मन

आत्मा -परमात्मा के चक्कर में

गृहस्थ -वैराग्य के रास्तों पर

अपने -पराये की दहलीज पर

ठिठक जाता है मन ॥



खोये प्रेमी /खोया धन

पाने के लिए तपड़ता है मन ॥

सोचा था ...

बुढ़ापे के साथ

तन और मन ठंढा हो जाएगा… Continue

Added by baban pandey on August 8, 2010 at 7:31am — 4 Comments

लडखडाते हुए तुमने जिसे देखा होगा

लडखडाते हुए तुमने जिसे देखा होगा
वो किसी शाख से टूटा हुआ पत्ता होगा


अजनबी शहर में सब कुछ ख़ुशी से हार चले
कल इसी बात पे घर घर मेरा चर्चा होगा

गम नहीं अपनी तबाही का मुझे दोस्त मगर
उम्र भर वो भी मेरे प्यार को तरसा होगा

दामने जीस्त फिर भीगा हुआ सा आज लगे
फिर कोई सब्र का बादल कहीं बरसा होगा

कब्र में आ के सो गया हूँ इसलिए अय तपिश
उनकी गलियों में मरूँगा तो तमाशा होगा
मेरे काव्य संग्रह ---कनक--से -

Added by jagdishtapish on August 7, 2010 at 8:41pm — 7 Comments

जिंदगी

जिंदगी के नशे मे है झूमती जिंदगी

मौत के कुएँ मे भी है घूमती जिंदगी



जिंदगी की कीमत तो जिंदगी ही जाने

रेगिस्तान मे जलबूँद है ढूँढती जिंदगी



हो गर जवाब तो वो लाजवाब ही होवे

हर पल ऐसे सवाल है पूछती जिंदगी



कोई मिला खाक मे, कोई खुद धुआँ हुवा

धरती ओर गगन के बीच है झूलती जिंदगी



किसी का गम किसी की मुस्कुराहट यहाँ

हर हाल मे मुस्कुराके आँखे है मूंदती जिंदगी



जान ले "मासूम " रुसवाई नही किसी को यहाँ

मौत के भी खुश होकर पग है… Continue

Added by Pallav Pancholi on August 7, 2010 at 3:30pm — 3 Comments

प्रशांत ! Copyright ©

कैसे विनम्र सा बैठा



अथाह सागर फैला हुआ



मौत सा सन्नाटा सुनाई देता



इसके अन्दर सिमटा हुआ



बंद करके आँखें मैं



लेट गया सफ़ेद रेत पे



सुनने को आतुर था मन



सुर जो बनता



लहरों के साहिल पे टकराने से



जब पूरा ध्यान उन लहरों पर था



और मन के सारे द्वार मैंने खोल दिए



पहचानने को वो शक्ति मैं था बैठा



ऐसा लगता मानो कह रहा सागर



धैर्य हूँ मैं



शंकर हूँ और शक्ति हूँ… Continue

Added by अनुपम ध्यानी on August 7, 2010 at 1:24am — No Comments


मुख्य प्रबंधक
मेरी दूसरी ग़ज़ल

दो सीधे से सवाल का जवाब दोस्तों ,

क्यों पी रही है मुझको ये शराब दोस्तों ,



मैने शराब पी थी गम भुलाने के लिए

बढ़ने लगी है क्यों मेरी अजाब दोस्तों,



माना कि पी गया मै जश्ने यार मे बहुत ,

डर है जिगर न दे कहीं जवाब दोस्तों ,



इतनी ही गर हसीं है ये प्याले की महेबुबा,

फिर क्यों मिला रहे सुरा में आब दोस्तों,



मैने जवानी जाम संग बितायी शान से,

चर्चा हुई बुढ़ापे की ख़राब दोस्तों ,



कितनी ही मिन्नतों के बाद जिंदगी मिली,

ना… Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 7, 2010 at 1:00am — 27 Comments

yeh kaisaa saawan

यह कैसा सावन
--------------
सावन के झूलों के संग
हिलोरे लेती मैं
और मेरी
सतरंगी चुनर के रंग
कहाँ खो गए
अब के क्यों
बर्फ सी जमी है
सावन मैं
एहसास भी बर्फ सी
सफ़ेद चादर ओढ़े
सो गए.

Added by rajni chhabra on August 6, 2010 at 11:23pm — 4 Comments

हिन्दी वैभव: मगही / भोजपुरी / अंगिका / बघेली / उर्दू खड़ी बोली

हिन्दी वैभव:

हिन्दी को कम आंकनेवालों को चुनौती है कि वे विश्व की किसी भी अन्य भाषा में हिन्दी की तरह अगणित रूप और उन रूपों में विविध विधाओं में सकारात्मक-सृजनात्मक-सामयिक लेखन के उदाहरण दें. शब्दों को ग्रहण करने, पचाने और विधाओं को अपने संस्कार के अनुरूप ढालकर मूल से अधिक प्रभावी और बहुआयामी बनाने की अपनी अभूतपूर्व क्षमता के कारण हिन्दी ही भावी विश्व-वाणी है. इस अटल सत्य को स्वीकार कर जितनी जल्दी हम अपनी ऊर्जा हिन्दी में हिंदीतर साहित्य और संगणकीय तकनीक को आत्मसात करेंगे, अपना और हिन्दी का… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on August 6, 2010 at 7:57pm — 2 Comments

रैप टाइम (हास्य ) हिंगलिश- शैली

गिरते -पड़ते डांस करें, बिन सुर - ताल के गाना.

ये है रैप ज़माना - ये है रैप ज़माना.

स्कूल हो या कॉलेज हो, बस फिल्मों का नॉलेज हो.

क्या रखा है किताबों में, अलजबरा के हिसाबों में.

झगड़ा है इतिहासों में, टेंसन संधि- समासों में.

तर्कशास्त्र तो टेढ़ा है, इंगलिश एक बखेड़ा है.

राजनीति में पचड़ा है, अर्थशास्त्र एक दुखड़ा है.

कौन फंसे साइक्लोजी में, लफड़ा है बाईलोजी में.

पानीपत में कौन जीता, बेमतलब सर है खपाना.

ये है रैप ज़माना… Continue

Added by satish mapatpuri on August 6, 2010 at 4:00pm — 2 Comments

कारगिल युद्ध के एक सैनिक का अंतिम क्षण

लेह से कारगिल तक का राजमार्ग

फिजाओं में घुला था बारूदी महक

हो भी क्यों ना

यह युध्ध तीर -कमानों से नहीं

बोफोर्स्र तोपों का था ॥



अँधेरी रातों में

घावों से रिस रहा था मवाद

शरीर निढाल था

और पैर मानो

लोहे का बना था ....

मिलों तक थकान नहीं था

मगर कान जगे थे

और जब कान जागता हो

तो नींद कैसे आएगी ॥





धुल के गुब्बार

आखों में धुल नहीं झोक पाए

वह नेस्नाबुद करना चाहता था

चाँद -तारे उगे हरे झंडे

और फतह… Continue

Added by baban pandey on August 6, 2010 at 12:12pm — 2 Comments

कायरता या बुद्ध Copyright ©.







ज्ञात हैं हमें कि हर भाव

इतना शक्तिशाली होता है

कि वो आपका जीवन

बदल दे

असीम शक्ति का

प्रमाण है भाव

व्यक्त न भी हो सके तो

क्या

है वो ही प्रणाम

जो पशुओं और मनुष्य में

करता है चुनाव

एक ऐसा ही भाव है

कायरता।





कायरता, बुजदिली

या जो भी कह लो

अद्भुत शक्ति है इसमें

जो काया पलट दे

और साधारण से

असाधारण , अनुपम में बदल दे

भय हो जब हार… Continue

Added by अनुपम ध्यानी on August 5, 2010 at 10:01pm — 2 Comments

2010 की अगस्त क्रांति Copyright ©

जैसे ही अगस्त आया है



वैसे ही सब कवियों ने



तिरंगा उठाया है



और स्याही में कलम डुबो के



सब को यह दिलासा दिलाया है



कि “हम भूले नहीं हैं



भारत हमारा है”



काला है , गोरा है



अभिशप्त है तो क्या हुआ



दरिद्र है तो क्या हुआ



भ्रष्ट है तो क्या हुआ



बाकी न सही पर



अगस्त आते ही हमे याद



ज़रूर आया है



भारत हमारा है।







शब्दावली से… Continue

Added by अनुपम ध्यानी on August 5, 2010 at 8:30am — 10 Comments

मुक्तिका: मन में दृढ़ विश्वास लिये. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:



मन में दृढ़ विश्वास लिये.



संजीव 'सलिल'

**

मन में दृढ़ विश्वास लिये.

फिरते हैं हम प्यास लिये..



ढाई आखर पढ़ लें तो

जीवन जियें हुलास लिये..



पिये अँधेरे और जले

दीपक सदृश उजास लिये..



कोई राह दिखाये क्यों?

बढ़ते कदम कयास लिये..



अधरों पर मुस्कान 'सलिल'

आयी मगर भड़ास लिये..



मंजिल की तू फ़िक्र न कर

कल रे 'सलिल' प्रयास… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on August 4, 2010 at 8:37am — No Comments

सुलेखा पांडे की तीन कविताएँ

अजनबीपन



दर्पण के पीछे है

एक और दर्पण

मन के भीतर है

एक और मन



शब्दों के जाल में

अनजाने भाव है

ऊपर से गहराई

नापते हैं हम



रात की सियाही में

दर्द के सैलाब पर

अंधेरे की चादर

तानते हैं हम



शूलों के दर्द में

फूल जो महका

उसकी ही रुह से

अनजान है हम



अपनी ही काया के

भीतर जो छाया है

उसकी सच्चाई कब

पहचानते हैं हम



दर्पण के पीछे..

मन के… Continue

Added by Narendra Vyas on August 3, 2010 at 4:12pm — 3 Comments

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"आ. अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, मेरी सारछंद प्रस्तुति आपको सार्थक, उद्देश्यपरक लगी, हृदय से आपका…"
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Chetan Prakash replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 159 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. प्रतिभा पाण्डे जी, आपको मेरी प्रस्तुति पसन्द आई, आपका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।"
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pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 159 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक आभार आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी"
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pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 159 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक आभार आदरणीय "
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 159 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश जी उत्साहवर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार। "
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 159 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. प्रतिभा बहन, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 159 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। चित्रानुरूप उत्तम छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
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Dayaram Methani replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 159 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय प्रतिभा पांडे जी, निज जीवन की घटना जोड़ अति सुंदर सृजन के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।"
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Dayaram Methani replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 159 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश कृष्ण जी, सार छंद में छन्न पकैया का प्रयोग बहुत पहले अति लोकप्रिय था और सार छंद की…"
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